।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.36 II
।। अध्याय 10.36 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.36॥
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥
“dyūtaḿ chalayatām asmi,
tejas tejasvinām aham..।
jayo ‘smi vyavasāyo ‘smi,
sattvaḿ sattvavatām aham”..।।
भावार्थ:
मैं छलने वालो का जुआ हूँ, मैं तेजस्वियों का तेज हूँ, मैं जीतने वालों की विजय हूँ, मैं व्यवसायियों का निश्चय हूँ और मैं ही सत्य बोलने वालों का सत्य हूँ। (३६)
Meaning:
Among deceitful pursuits, I am gambling. I am the splendour in the brilliant and I am victory and determination. I am the Sattva of Saatvic individuals.
Explanation:
As we have seen throughout the Gita, Ishvara uses the power of his maaya to create this universe of duality. So, if everything that we consider “good” is Ishvara, its polar opposite is also Ishvara. To underscore this point, Shri Krishna brings forward gambling as Ishvara’s manifestation.
In fact, in the entire Mahabharatha; one important lesson is to be learned is; if we are not very careful, that gambling or such activities can suck us also down. And what is the example? Dharmaputra who was an embodiment of dharma, even that Dharmaputra got hooked to that and when Dharmaputra got hooked, he lost all the sense of propriety, and he lost even his wife and brothers.
Shree Krishna mentions not only virtue but also vice as his opulence. Gambling is a dangerous vice that ruins families, businesses, and lives. It was Yudhishthir’s weakness for gambling that led to the Mahabharat war. But if gambling is also God’s glory, then is there no harm in it, and why is it forbidden?
Most of us are under the sway of maaya. If we let maaya have her way, she can steal our faculty of discrimination, our intellect that can distinguish right from wrong. Of all the possible ways of deluding and deceiving us, gambling is the strongest form of maaya. Like any addiction, it can cause great attachment and ultimately result in great sorrow.
The God grants his power to the soul, and along with it, he gives the freedom of choice. If we choose to forget him, he gives us the power to forget. This is just as electric power can be used both to heat and cool a house. The user is free to choose how to utilize the power. However, the powerhouse that supplies the energy is not responsible for either the use or misuse of the power. Similarly, a gambler too possesses intellect and ability that is supplied by God. But if he decides to misuse these God- given gifts, then God is not responsible for the sinful deeds.
In Bhāgavatham it is said, in Kaliyuga, the kaliyuga resides in a few places; Kali dēvathā means that dēvathā which will take a person for spiritual downfall and Kali dēvathā means quarrel; fighting; shouting; drinking, all those things will come and therefore Krishna says, I am dhyūtam.
Then tējas tējasvināmaham; I am the brilliance; the internal brilliance, the intelligence among all the intelligent or brilliant people. Perhaps we can define the brilliance as that by which a person resists the temptation for dhyūtam; gambling; because in all of them, first time saying No is much easier; whether it is alcohol; whether it is cigarette or whether it is drug or whether it is gambling; first time saying No is very easy; but if first time one succumbs; then the downslide is so powerful. That it will be very difficult to get out of that; and therefore, I am that brilliant discrimination, which resists such a temptation.
Those among us who are endowed with a sharp intellect, one that never loses its power of discrimination. Nobel prize winners, freedom fighters, scientists, the list goes on. Shri Krishna says that it is Ishvara who is shining as the brilliance of such luminaries. Whenever we come across such individuals, we may feel inferior against their prowess. But there is no need to do so, because it is Ishvara that is giving them their brilliance.
Even if most of us are not endowed with such intellectual faculties, we can accomplish great things if we are hardworking, industrious and focused. People with very little mental and financial resources, through blood, sweat and tears, have shown that it is possible to succeed in spite of their limitations. Shri Krishna says that Ishvara manifests as their hard work, and also as the victory that comes as a result of this effort.
Sattva, along with rajas and tamas, comprise the three basic building blocks of maaya or prakriti. When any system is working in perfect harmony, without any fluctuations or disturbances, we can say that the Sattva quality has manifested. So, when our intellect is functioning without any agitations, when we see things clearly, it indicates that sattva has dominated over rajas and tamas. Ishvara manifests as this sattva in people who demonstrate virtues such as modesty, calmness, sobriety and goodness.
Vyavasāyaḥ means the effort required for the fulfilment of spiritual desire; just as effort is required for the fulfilment of materialistic desires; you should remember, equal or more effort is required for the fulfilment of spiritual desire. like doing pancha maha yajñā; all the noble activities for citta śuddhi; it requires effort; so here the word Vyavasāyaḥ means prayathna; perseverance; industry; effort.
And once there is vyavasāyaḥ or spiritual effort, what will it lead to? jayō:’smi; jayaḥ means victory; success; so that is why, look into the reverse order; satva guṇa to vyavasāyaḥ to jayaḥ; satva guṇa means spiritual inclination; vyavasāyaḥ means spiritual effort; jayaḥ means spiritual success or victory; all of them I am. if we get spiritual success, we should not become arrogant because of that; we should remember that is also because of the grace of the Lord only.
।। हिंदी समीक्षा ।।
परमात्मा ने अब विभूति को व्यवहारिक एवम जनसदाहरण
के कर्मो एवम व्यक्तित्व को ले कर बता रहे है। आगे के श्लोकों में भी यही सब जमीनी स्तर पर बताया गया है। छल करने वालों में जो पासों से खेलना आदि द्यूत है वह मैं हूँ।जीव के साथ सब से बड़ा जुआ यदि कोई खेलता है तो वो प्रकृति है। प्रकृति सत-रज-तम गुण से युक्त योगमाया से जीव को कर्तृत्व एवम भोक्तत्व के साथ छल ही करती रहती है। यह सत्य है कि जन्म लेने के बाद पूर्व जन्म का ज्ञान किसी को नही रहता किन्तु उस के कर्म संस्कार, उस की कामना, अहम के कारण उस को यह जन्म मिलता है। इस जन्म में कब, कहाँ, कौन और कैसे मिलेगा या क्या प्राप्त होगा यह जुए में फेंके गए पासे के समान है जब हम अपनी कामना के अनुसार उसे प्राप्त नही पाते तो अपने को छला से महसूस करते है। अक्सर जब खाली बैठे हो और जीवन में यह विचार न आए कि मेरा जन्म इस परिवार में ही क्यों हुआ, मुझे इस धारण, जाति में इस कारण जन्म लेना पड़ा या मैं भी क्यों नही किसी इस से उच्च परिवार में पैदा हुआ। मेरा आगे क्या है? मेरे जीवन का औचित्य क्या है?
भविष्य की यही अनिश्चितता द्यूत क्रीड़ा के समान है और प्रकृति द्वारा समय समय पर जो हमे छला जाता है उसे परमात्मा ने अपनी विभूति कहा है। याद रखिये कृष्ण को छलिया के नाम से भी जाना जाता है। कृष्ण की लीलाओं में या महाभारत के युद्ध मे कृष्ण की छल विद्या से कौन अपरिचित है। इसलिये ही यह परमात्मा की विभूति है। परब्रह्म का अंश होने के बाद भी, जो नित्य, अकर्ता, साक्षी है, वह यदि कर्मबन्धन मे फलाशा के साथ संसार योगमाया से वशीभूत हो कर जन्म मरण के दुख भोग रहा है, तो यह जीवात्मा के साथ छल ही तो है।
वास्तव में, संपूर्ण महाभारत में; एक महत्वपूर्ण सबक जो सीखना है वह है; यदि हम बहुत सावधान न रहें, तो जुआ या ऐसी गतिविधियाँ हमें भी बर्बाद कर सकती हैं और उदाहरण क्या है? धर्मपुत्र, जो धर्म का अवतार था, वह धर्मपुत्र भी उस धर्म में फँस गया और जब धर्मपुत्र उस में फँस गया, तो उसने अपना सारा धर्म खो दिया और यहाँ तक कि उसने अपनी पत्नी और भाइयों को भी खो दिया। क्या कोई व्यक्ति वहां पत्नी और भाइयों को दांव पर लगाने के बारे में सोच सकता है? धर्मपुत्र धर्म का अवतार है; वह धर्म शास्त्र जानता है; और यहाँ तक कि उसने अपना संतुलन भी खो दिया। यदि धर्मपुत्र अपना संतुलन खो सकता है; हम आम लोगों की तो बात ही क्या, हम तो जवान थे, मां-बाप ने कभी कार्ड छूने की इजाज़त नहीं दी; लोग कहते हैं कि हम केवल मनोरंजन के लिए ताश खेलते हैं। कोई पैसा शामिल नहीं है; लेकिन हमारे माता-पिता कहते हैं; मनोरंजन के लिए भी ताश न खेलें; क्योंकि वहाँ एक तीव्र खिंचाव है; कृष्ण स्वयं चेतावनी देते हैं ध्युतं अहम् अस्मि; धोखा देने वाली गतिविधियों के बीच; गतिविधियों को नीचे खींचना, सवारी गतिविधियों के लिए लेना; व्यसनी गतिविधियाँ; मैं जुआ सिद्धांत हूं. सो ध्युतम्; वस्तुतः ध्युतम् का अर्थ है पासा; और यहां इसका मतलब किसी भी प्रकार के जुए से है।
किसी भी बिजली की आपूर्ति में उपभोक्ता अपनी इच्छानुसार इस का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र होता है किन्तु पावर हाऊस जो बिजली की आपूर्ति करता है, वह इस का सदुपयोग या दुरूपयोग करने के लिए उपभोक्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं होता। समान रूप से जुआरी में भगवान द्वारा प्रदत्त बुद्धि और शक्ति होती है। लेकिन यदि वह भगवान द्वारा प्रदत्त उपहार का दुरुपयोग करना चाहता है तब भगवान उस के पापमय कर्म के लिए उत्तरदायी नहीं होते।
इंद्रप्रस्थ में पांडव का राज्य सम्पन्न हो कर चल रहा था, वही प्रकृति ने युधिष्ठर को जुए में छल द्वारा सब कुछ हराया गया, फिर द्रोपदी का चीर हरण, 12 वर्ष का वनवास, 1 वर्ष का अज्ञातवास और वापस आने पर राज्य नही लौटाने के कारण यह भीषण युद्ध की तैयारी। इस से बढ़ कर क्या द्यूत क्रिया होगी कि पासे पर पासे पड़ते गए और कौरव पांडव भाई भाई मरने मारने के युद्ध भूमि में खड़े हो गए। प्रकृति यह जुआ या द्यूत क्रीड़ा हम सब के साथ माया द्वारा खेल रही है और कब कौन दूर और कब पास होगा हमे पता नही, हमे हमेशा भाग्य कह कर छला जाता है। परमात्मा का कहना है यह प्रकृति द्वारा छला जाना एक द्यूत क्रीड़ा है जिस में जीव समय समय पर छला जाता है वो मै ही हूँ। द्यूत क्रीड़ा जीव का विवेक, ज्ञान, क्षमता, निपुणता आदि सभी हर लेता है और जीव अपने को ठगा सा महसूस करता है। जो स्मरण एवम समर्पण में डूबा वो ही छला नही जाता।
महाभारत की द्यूत क्रीड़ा या योगमाया में कंस को योगमाया द्वारा ठगा जाना या राम द्वारा ठीक राज्याभिषेक के समय वनवास जाना, इस सब छल का कारण लोककल्याण की होता है। तभी तो वामन अवतार में बालि को छला और तुलसी को उस के पति के रूप में, परमात्मा जब भी कुछ करे तो उस में कुछ न कुछ लोककल्याण अवश्य होता है। जो परमात्मा को समर्पित हो, वे कभी अपने को ठगा नही मानते, इस का उदाहरण स्वयं कर्ण या भीष्म या बालि है, जिन्होंने स्वयं को छलने के लिए परमात्मा को स्वीकार किया।
सावित्री द्वारा यमराज से अपने पति के प्राण बचाने हेतु मांगे गए वरदान या कर्ण से युध्द से पूर्व उस के कवच कुंडल का दान मांगना, द्रोपती द्वारा भीष्म से उन की मृत्यु का रहस्य प्राप्त करना आदि आदि चतुराई से अपनी विजय को हासिल करना एवम किसी व्यक्ति के विशिष्ट गुण को उस की कमजोरी की तरह प्रयोग में लाना, छल ही है। यह रोज मर्रा की जिंदगी में हर व्यक्ति के साथ होता है। इसलिये जब गुण ही व्यक्तित्व की पहचान हो जाए और जीव अपने से ज्यादा अपने व्यक्तित्व या अहम को महत्व दे, तो वह चतुर व्यक्ति द्वारा उस को उस की कमजोरी बना कर ठग लिया जाता है।
जीव के लग्न, क्षमता, तप, त्याग आदि से उस मे ओज पैदा हो जाता है यह उस के व्यक्तित्व का तेज है। श्री रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था निसन्देह सत्य एक प्रकाश है, परन्तु वह गुणरहित प्रकाश है। जो भी आभा किसी के मुख मंडल से झलकती है, वह उस में स्थित ब्रह्म के अंश का ही प्रकाश होता है।
मैं विजय हूँ उद्यमशीलता हूँ और मैं साधुओं की साधुता हूँ जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, यहाँ भी ये गुण मन की उस स्थिति या दशा को बताते हैं, जो इस प्रकार के निरन्तर चिन्तन से निर्मित होती है। जब उद्यमशीलता और साधुता जैसे गुणों को बनाये रखा जाता है, तब मन अत्यन्त शान्त और स्थिर हो जाता है जिस में चैतन्य आत्मा का प्रतिबिम्वित वैभव इतना स्पष्ट और तेजस्वी होता है कि मानो वही स्वयं सत्य है। अत पूर्वकथित गुणों की प्रत्यारोपण की भाषा में भगवान् कहते हैं कि ये गुण ही मैं हूँ। विजय प्रत्येक प्राणी को प्रिय लगती है। विजय की यह विशेषता भगवान् की है। इसलिये विजय को भगवान् ने अपनी विभूति बताया है। अपने मन के अनुसार अपनी विजय होने से जो सुख होता है, उस का उपभोग न करके उस में भगवद्बुद्धि करनी चाहिये कि विजय रूप से भगवान् आये हैं। अज्ञानी लोग उस के अहम और कर्ता भाव में अहंकार करते है।
व्यवसाय नाम एक निश्चय का है। इस एक निश्चय की भगवान् ने गीता में बहुत महिमा गायी है जैसे – कर्मयोगी की निश्चयात्मिका बुद्धि एक होती है, भोग और ऐश्वर्य में आसक्त पुरुषों की निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती, अब तो मैं केवल भगवान् का भजन ही करूँगा – इस एक निश्चय के बलपर दुराचारी से दुराचारी मनुष्य को भी भगवान् साधु बताते हैं। इस प्रकार भगवान् की तरफ चलने का जो निश्चय है उसको भगवान् ने अपनी विभूति बताया है। निश्चय को अपनी विभूति बताने का तात्पर्य है कि साधक को ऐसा निश्चय तो रखना ही चाहिये, पर इस को अपना गुण नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत ऐसा मानना चाहिये कि यह भगवान् की विभूति है और उन्हीं की कृपा से मुझे प्राप्त हुई है।
व्यवहारिक रूप में हम जो भी व्यापार एवम व्यवसाय करते है उस की उन्नति, सफलता, उस का प्रकार, उस मे ऊंच नीच सब को परमात्मा की विभूति ही मानना चाहिये जिस से हमारे अंदर अहम पैदा न हो। हमें समस्त कार्य भगवान के सेवक के रूप में ही करने चाहिए।
सात्त्विक मनुष्यों में जो सत्त्व गुण है, जो सात्त्विक भाव और आचरण है, वह भी भगवान् की विभूति है। तात्पर्य है कि रजोगुण और तमोगुण को दबाकर जो सात्त्विक भाव बढ़ता है, उस सात्त्विक भाव को साधक अपना गुण न मानकर भगवान् की विभूति माने। विजय, तेज, व्यवसाय, सात्त्विक भाव आदि अपने में अथवा दूसरों में देखने में आयें तो साधक इन को अपना अथवा किसी वस्तु व्यक्ति का गुण न माने, प्रत्युत भगवान् का ही गुण माने। उन गुणोंकी तरफ दृष्टि जाने पर उन में तत्त्वतः भगवान् को देख कर भगवान् को ही याद करना चाहिये। व्यवहार जगत में सत्य का अर्थ बोलने वाले व्यक्ति के ज्ञान, अनुभव एवम मनोस्थिति के अनुसार तथ्य की समझ पर निर्भर है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति का सत्य विभिन्न दृष्टिकोण होने से अलग अलग हो सकता है। किंतु जो सात्विक भाव से निष्काम, निष्पक्ष और दृढ़ता पूर्वक कहा या बताया जाए, वह उस व्यक्ति का व्यक्तिगत सत्य है, जिसे परमात्मा ने अपनी विभूति कहा है।
व्यवहार जगत में भगवान द्वारा अत्यंत संक्षेप में देवता, दैत्य, मनुष्य, पशु, पक्षी, और सर्प आदि चेतन तथा वज्र, इन्द्रिय, मन, समुन्द्र आदि जड़ पदार्थो के साथ साथ जय, निश्चय, तेज, नीति, ज्ञान आदि भावों का भी वर्णन किया। किन्तु अनिश्चितता एवम भाग्य और पुरुषार्थ के सामान्य जन जीवन मे परमात्मा की विभूति का अनुभव हो इसलिये यह वर्णन है।
जुआ का अर्थ है जो अनन्यास बिना किसी पुरुषार्थ के भाग्य से प्राप्त हो, यह छल इसलिये लिये है कि कामना या अपेक्षा या लोभ तो रहे किन्तु लक्ष्य बिना प्रयास के मिले, यह कामना की पूर्ति होगी या नही, इसे कोई नही कह सकता। वैसे ही हर व्यक्ति के गुण के कारण उस के चारो ओर एक आभा होती है, जिसे aura या तेज कह सकते है, यह तेज परमात्मा से उस व्यक्ति की निकटता से उत्पन्न होता, जितना अधिक निकटता, उतना अधिक तेज,। अनिश्चितता में जो दृढ़ता के साथ व्यवसाय अर्थात प्रयत्न करता है, वह निश्चयात्मक बुद्धि, संघर्ष और मेहनत, अभ्यास से दक्षता प्राप्त कर के जीतने वाले की जीत और सात्विक पुरुषों के सत्व भाव को परमात्मा ने अपना स्वरूप बता कर यह सिद्ध किया है कि प्रकृति के साथ मनुष्य की प्रत्येक राजसी एवम सात्विक क्रिया में परमात्मा की ही विभूति है।
छल व्यक्ति विशेष से प्रकृति ही नही करती, व्यक्ति भी स्वयं से करता है। अच्छे-बुरे सभी काम मे अपने सात्विक मन की आवाज को हर बार अनसुना करना, आलस्य, निंद्रा एवम कर्महीनता के जो भी बहाने बनाये जाए, वह अपने को छलना ही है। जब ज्ञान की प्राप्त करने का अवसर हो, उस समय अपने को व्यस्त एवम असमर्थ कह कर बचना भी अपने से छल ही है। समझ कर भी नासमझी करना, अपने को ज्ञानी सिद्ध करने के लिये रटी रटाई बाते करना भी छल ही है। अतः इस मे परमात्मा की विभूति मान कर अपने को सात्विकता की ओर न ले जाना, भी अपने से छल ही है।
परमात्मा ही करता है एवम परमात्मा ही करवाता है। हम सब उस की कठपुतली मात्र है। गीता प्रेस के समर्पित श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार की कविता में कहा है “मै कठपुतली तुम्हारी, नचायो मुझे निज इच्छा अनुसार”। इसी में उन्होंने कहा है ” इतना जो बोल गयीं मै मुख से, यह तुम ही बोले भर मुझ में, मै तो प्रखर मौन”। यह श्लोक इसी बात का द्योतक है कि जीव जो भी व्यापार या व्यवसाय करता है, जो भी परमात्मा से प्रार्थना या पूजन करता है, उस का तेज, सफलता, विजय, प्रकार, उस मे होने वाले छल व्यवहार, उस का ज्ञान, अनुभव एवम उस की बाते, कोई और नही, परमात्मा ही है। जो वह जानता है, वह भी परमात्मा ही है। आज आप जो जिस भी स्थिति में है यह परमात्मा की ही विभूति है, द्यूतक्रीड़ा के समान कल आप क्या होंगे यह आप नही तय कर सकते, कब कौन राजा से रंक और रंक से राजा होगा, कब कौन कहाँ होगा, किस से मिलेगा आदि यह द्यूत क्रीड़ा का छल भी परमात्मा ही है। जब भविष्य का पता नही हो, पूर्व जन्म का कुछ भी ज्ञान न हो, इस देह को त्यागने के बाद का पता नही हो, प्रारब्ध, संचित कर्म कितने और कब फलित होंगे, इस का हिसाब भी न हो और योगमाया में जीव में अज्ञान भर जाए तो जीवन एक द्युत क्रीड़ा बन कर रह जाता है जिस में हमे पल पल छला जाता है। फिर भी कोई जीव सत्व के साथ निश्चय ले कर मोक्ष की ओर बढ़ता है तो उस के प्रयास से जो तेज, सफलता और ओज मिलता है, उस में जीव का अस्तित्व ही कहां है क्योंकि कर्ता और भोक्ता बन कर को लीला रचा रहा है, वह तो परब्रह्म का ही अंश है। यहाँ तक कि जीव का सत्व गुण, व्यवसाय, व्यवहार, जीत और सत्य भी परमात्मा ही है। हम सब जो गीता का अध्ययन भी कर पा रहे है, यह भी उसी की विभूति है।
।।हरि ॐ तत सत।।10.36।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)