।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.35 II Additional II
।। अध्याय 10.35 II विशेष II
।। गायत्री मंत्र ।। विशेष – गीता 10.35 ।।
गायत्री मंत्र की अधिष्ठाता गायत्री देवी के बारे में कुछ किदवंतियाँ प्रचलित है, जिस में पुष्कर में ब्रह्मा द्वारा यज्ञ और सरस्वती द्वारा उन को श्राप की भी एक किदवंती है। वस्तुतः गायत्री मंत्र विश्वामित्र के ब्रह्मऋषि बनने के संकल्प में तीन बार निष्फल होने के बाद परमात्मा की शरण हो कर आराधना से विश्वामित्र जी तैयार किया हुआ मंत्र है, जिस से उन का अहम एवम भोक्तत्व भाव समाप्त हो कर, उन्हें ब्रह्मऋषि का पद प्राप्त हुआ। गायत्री मंत्र को देवी स्वरूप परमात्मा द्वारा संरक्षण देने के ममतामयी स्त्रीत्व स्वरूप में गायत्री देवी के स्वरूप की कल्पना की गई।
ऐसा भी कहा जाता है कि प्रमेष्टि प्रजापति ब्रह्माजी ने मुख्य तीन वेद लिये। तो तीन वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं और मुख्य माने जाते हैं, क्योंकि इन का उपयोग मुख्य रूप से अनुष्ठानों में किया जाता है; अथर्ववेद का अनुष्ठानों में अधिक उपयोग नहीं किया जाता है और इसलिए वे इसमें शामिल नहीं हैं।
तीन वेद में से ब्रह्माजी सार को बाहर निकालना चाहते है; क्योंकि वेद विशाल हैं,इसलिये फिर वेदों को मथा और ऋग्वेद सार आया; तस्ता विधुर वरेण्यम; गायत्री की पहली पंक्ति ऋग्वेद है। फिर उन्होंने यजुर्वेद को मथा और यजुर्वेद का सार मिला; भर्गो देवस्य थिमहि;
फिर उन्होंने सामवेद को मथा, किंतु उस से तपस मिला और फिर तप से सार मिला; धिह्यो योना प्रचोदयात्; इसलिए यह श्लोक कहता है. थिस्रेवेतु वेदेभ्य पदं पदं अदु दुहत्; जिस का अर्थ है, ब्रह्माजी ने गायत्री का एक एक पद निकाला; पाद, पाद का अर्थ है पंक्ति, तीन वेदों से और उन्हें मंत्र मिल गया जिसे मूल रूप से सावित्री मंत्र कहा जाता है।
अन्य किदवंती है, यह मन्त्र सर्वप्रथम ऋग्वेद में उद्धृत हुआ है। इस के रचियता ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। वैसे तो यह मन्त्र विश्वामित्र के इस सूक्त के 18 मन्त्रों में केवल एक है, किन्तु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरम्भ में ही ऋषियों ने कर लिया था और सम्पूर्ण ऋग्वेद के 10 सहस्र मन्त्रों में इस मन्त्र के अर्थ की गम्भीर व्यंजना सब से अधिक की गई। इस मन्त्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में और कालान्तर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मन्त्र का पूरा स्वरूप इस प्रकार स्थिर हुआ:
(१) ॐ(२) भूर्भव: स्व:(३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मन्त्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृति का गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
गायत्री तत्व क्या है और क्यों इस मन्त्र की इतनी महिमा है, इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है। आर्ष मान्यता के अनुसार गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक सम्बन्धों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मन्त्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उन में सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है वैसे मन भी देव है। मन ही प्राण का प्रेरक है। मन और प्राण के इस सम्बन्ध की व्याख्या गायत्री मन्त्र को इष्ट है। सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है। इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है।
गायत्री मंत्र में ‘सविता’ शब्द बहुत महत्वपूर्ण अर्थ रखता है। यही इस मंत्र का प्राण है। पूरे गायत्री में सविता ही अधिष्ठान है। शब्द की दृष्टि से भी सविता बहुआयामी अर्थ का द्योतक है। सविता केवल प्रकाशवान ही नहीं है, अपितु सृष्टा, पोषक, रक्षक व दाता है। गायत्री महाविद्या के सिद्ध पुरुष पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्यजी ने कहा है कि यह सविता समस्त प्राणियों के स्वामी हैं, प्रसविता और परित्राता हैं। मनुष्यों का परित्राण करने में परमात्मा की यही एकमात्र स्थूल अभिव्यक्ति माध्यम है जिसका आश्रय लेकर मनुष्य अपना बेड़ा पार लगा सकता है। उन्होंने सविता पर गहन शोध किया और गायत्री के इस सविता को या कहें कि सविता प्राण रूपी गहन गायत्री को सबके लिए सुलभ बना दिया।
वैसे सविता शब्द से साधारणत: सूर्य का अर्थ प्रकट होता है क्योंकि प्रत्यक्षत: वही तेजस्वी और प्रकाशवान है। परमात्मा की वह अप्रत्यक्ष शक्ति, जो तेज के रूप में हमारे स्थूल नेत्रों के सामने आती है वह सूर्य है, इसलिए स्थूल अर्थों में इस सूर्य नामक ग्रह को सविता कहते हैं। परंतु यह ध्यान रखना चाहिए कि यह चमकनेवाला अग्रिपिण्ड ही पूर्ण सविता नहीं है। आध्यात्मिक भाषा में सविता कहते हैं तेजस्वी को, प्रकाशवान को, उत्पन्न करनेवाले को। परमात्मा की अनंत शक्तियां हैं, उसके अनेक रूप हैं। उनमें तेजस्वी शक्तियों को सविता कहा जाता है।
परमात्मा की जिस शक्ति से हमें प्रयोजन होता है, जिसको अपनी ओर आकर्षित करना होता है, उसका ध्यान, स्मरण या जप किया जाता है। पूजा उपादानों के द्वारा उस शक्ति को अपने अभिमुख बनाया जाता है। रेडियो की सुई को जिस नंबर पर घुमा दिया जाता है, उस नंबर के मीटरवालों से उस रेडियो का संबंध स्थापित हो जाता है और उस में चलने वाली शब्दल हरी सुनाई पड़ने लगती है। इस विज्ञान को ध्यान में रखते हुए उपासना के लिए ऐसा नियम बनया गया है कि अनंत शक्तियों के भंडार ईश्वर की जिन शक्तियों से लाभ उठाया है, उसका ध्यान करते हैं।
गायत्री में सविता का ध्यान किया जाता है। सविता तेजस्वी है इसलिए साधक उससे तेजस्विता की आशा करता है, आत्मिक तेज, बौद्धिक तेज, आर्थिक तेज, शारीरिक तेज इन सब तेजों से संबंध बनने से मनुष्य का जीवन सर्वांगपूर्ण तेजयुक्त बनता है। ईश्वर की तेजशक्ति को धारण करके हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रकाशमान नक्षत्र की तरह चमकें। इसलिए ईश्वर के सविता नाम का गायत्री में स्मरण किया गया है। वेद शास्त्रों में सविता शब्द को विभिन्न अर्थों में परिभाषित किया गया है। कृष्णयजुर्वेद में सविता को समस्त सृष्टि का प्रसव करनेवाला तथा स्वामी बताया गया है-सविता वै प्रसवनामिशे।
वृहत् योगी याज्ञवल्क्य (अ. 9/55) में सविता को प्राणियों एवं भावों को उत्पन्न करनेवाला तथा प्रेरक और सबका रक्षक बताया गया है। संध्या भाष्य में सविता को दु:खों का नाश करनेवाले हेतुओं की वृष्टि करनेवाला बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में सविता को साक्षात ब्रह्म बताया गया है। भविष्य पुराण में सविता को समस्त भूतों की आत्मा, सनातन, प्राणियों का स्वामी तथा प्रजापति ब्रह्मा के रूप में निरूपित किया गया है।
इस तरह निरुक्त, उपनिषदों और पुराणों में सविता संबंधी वर्णन करीब इसी प्रकार से किया गया है। सविता को प्राणियों का जीवन दाता, प्रेरक, पोषक, रक्षक, स्वामी तथा उद्धारक बताया गया है। इसलिए सविता देवता का नित्य नियमित ध्यान करना चाहिए। सविता वर्ग विशेष या धर्म सम्प्रदायादि के भेद-भावों से परे होने से यह सबके स्वामी हैं। अत: सब कोई सविता का ध्यान कर अपने जीवन को सुखी समुन्नत बना सकता है।
गायत्री के दो प्रकार के मंत्र है, श्रोत मंत्र जिसे हम लोग जानते है, तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्। इस में (१) ॐ(२) भूर्भव: स्व:(३) गायत्री मंत्र का भाग नही है। किंतु जप के लिए इस को जोड़ा गया है और इस का पाठ कोई भी सात्विकता में रह कर सकता है। अन्य गायत्री मंत्र समर्थ गायत्री है, इस के मंत्र जाप के लिए जनेऊ धारण और वैदिक संस्कारो से युक्त हो कर विधि विधान से पाठ किया जाता है। क्योंकि गीता सविता अर्थात सूर्य के तेज की भी आराधना है, इसलिए इस का वैदिक अनुष्ठान और जाप भी पृथक है। जिस को हम यहां हम वर्णन नहीं कर रहे।
ब्राह्मण ग्रन्थों की व्याख्या है- कर्माणि धिय:, अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किन्तु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन की इस कर्मक्षमशक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरणा के लिए आवश्यक है वही वरेण्य भर्ग है। मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो। इस गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है उसके द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे।
गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं। भू पृथ्वीलोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है। भुव: अंतरिक्षलोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है। स्व: द्युलोक, सामवेद, आदित्यदेवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में कहे गए हैं, किन्तु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल विश्व को वाक के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए ही यह ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरम्भ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। यह विश्व प्रजापति की वाक है। वाक का अनन्त विस्तार है किंतु यदि उसका एक संक्षिप्त नमूना लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है।
गायत्री’ एक छन्द भी है जो 24 मात्राओं 8+8+8 के योग से बना है । गायत्री ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। इन सात छंदों के नाम हैं- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, विराट, त्रिष्टुप् और जगती। गायत्री छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छंदों की है। गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। अतएव जब छंद या वाक के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी तब गायत्री छंद की बढ़ती हुई महिता के अनुरूप विशेष मंत्र की रचना हुई, जो इस प्रकार है:
तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।
गायत्री ध्यानम्
मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील वलच्छायैर्मुखस्त्रीक्षणै-र्युक्तामिन्दु-निबद्ध-रत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम् । गायत्रीं वरदा-ऽभयः-ड्कुश-कशाः शुभ्रं कपालं गुण। शंख, चक्रमथारविन्दुयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥
अर्थात् मोती, मूंगा, सुवर्ण, नीलम्, तथा हीरा इत्यादि रत्नों की तीक्ष्ण आभा से जिनका मुख मण्डल उल्लसित हो रहा है। चंद्रमा रूपी रत्न जिनके मुकुट में संलग्न हैं। जो आत्म तत्व का बोध कराने वाले वर्णों वाली हैं। जो वरद मुद्रा से युक्त अपने दोनों ओर के हाथों में अंकुश,अभय, चाबुक, कपाल, वीणा,शंख,चक्र,कमल धारण किए हुए हैं ऐसी गायत्री देवी का हम ध्यान करते हैं।
गायत्री महामंत्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिस की महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है।
यह यजुर्वेद के मन्त्र ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ और ऋग्वेद के छन्द 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवितृ देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रूप में भी पूजा जाता है।
मेनका, त्रिशंकु एवम महाराज अम्बरीष अश्वमेध यज्ञ में शुन:शेप की रक्षा के कारण तीन बार तप भंग होने के पश्चात, विश्वामित्र ने विचार किया कि लाख प्रयत्न करके भी मैं तपस्या में सफल नहीं हो पा रहा हूँ। माया कब प्रवेश करती है मुझे पता ही नहीं चलता। जब आकाशवाणी सूचित करती है तब ज्ञात हो पाता है। लगता है कि मैं अपने बल से इन बाधाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर सकता। अन्तत: विश्वामित्र ने एक परमात्मा की शरण ली कि– ‘‘ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।’’ (यजुर्वेद, अध्याय ३६, कण्डिका ३) अर्थात् ॐ शब्द से उच्चरित, भू:, भुव: और स्व: तीनों लोकों में तत्त्वरूप से व्याप्त ‘सवितु:’– ज्योतिर्मय परमात्मा! आपके ‘वरेण्य भर्ग’ अर्थात् तेज का हम ‘धीमहि’- ध्यान करते हैं। ‘न: धिय: प्रचोदयात्’– हमारी बुद्धि में निवास करें, मुझे प्रेरणा दें। इस प्रकार अपने को भगवान के प्रति सर्मिपत कर विश्वामित्र तपस्या में लग गये, और सफल हुए।
मंत्र और भावार्थ
ॐ भूर् भुवः स्वः।तत् सवितुर्वरेण्यं।भर्गो देवस्य धीमहि।धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
हिन्दी में भावार्थ
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
मन्त्र जप के लाभ
गायत्री मन्त्र का नियमित रुप से सात बार जप करने से व्यक्ति के आसपास नकारात्मक शक्तियाँ बिलकुल नहीं आती।
जप से कई प्रकार के लाभ होते हैं, व्यक्ति का तेज बढ़ता है और मानसिक चिन्ताओं से मुक्ति मिलती है।
बौद्धिक क्षमता और मेधाशक्ति यानी स्मरणशक्ति बढ़ती है।
गायत्री मन्त्र में चौबीस अक्षर होते हैं, यह 24 अक्षर चौबीस शक्तियों-सिद्धियों के प्रतीक हैं।
इसी कारण ऋषियों ने गायत्री मन्त्र को सभी प्रकार की मनोकामना को पूर्ण करने वाला बताया है।
इस प्रकार गायत्री एक परमात्मा के प्रति समर्पण है। इसके द्वारा हम-आप त्रिगुणमयी प्रकृति का पार पा सकते हैं कि भू: भुव: स्व: तीनों लोकों में तत्त्वरूप से जो व्याप्त है, जो सहज प्रकाश स्वरूप है, हे परमात्मा! आप मेरी बुद्धि में निवास करें जिससे मैं आपको जान लूँ। यह प्रार्थना गीता के अनुरूप है कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ (१८/६६)– सारे धर्मों को त्याग दे, मात्र मेरी शरण हो जा। मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू मुझे प्राप्त होगा। सदा रहनेवाला जीवन और शान्ति प्राप्त कर लेगा। यही है गायत्री!
विविध धर्म-सम्प्रदायों मे गायत्री महामन्त्र का भाव
हिन्दू – ईश्वर प्राणाधार, दुःखनाशक तथा सुख स्वरूप है। हम प्रेरक देव के उत्तम तेज का ध्यान करें। जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर बढ़ाने के लिए पवित्र प्रेरणा दें।
यहूदी – हे जेहोवा (परमेश्वर) अपने धर्म के मार्ग में मेरा पथ-प्रदर्शन कर, मेरे आगे अपने सीधे मार्ग को दिखा।
शिन्तो – हे परमेश्वर, हमारे नेत्र भले ही अभद्र वस्तु देखें परन्तु हमारे हृदय में अभद्र भाव उत्पन्न न हों। हमारे कान चाहे अपवित्र बातें सुनें, तो भी हमारे में अभद्र बातों का अनुभव न हो।
पारसी – वह परमगुरु (अहुरमज्द-परमेश्वर) अपने ऋत तथा सत्य के भंडार के कारण, राजा के समान महान है। ईश्वर के नाम पर किये गये परोपकारों से मनुष्य प्रभु प्रेम का पात्र बनता है।
दाओ (ताओ) – दाओ (ब्रह्म) चिन्तन तथा पकड़ से परे है। केवल उसी के अनुसार आचरण ही उत्तम धर्म है।
जैन – अर्हन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार तथा सब साधुओं को नमस्कार।
बौद्ध धर्म – मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ, मैं धर्म की शरण में जाता हूँ, मैं संघ की शरण में जाता हूँ।
कनफ्यूशस – दूसरों के प्रति वैसा व्यवहार न करो, जैसा कि तुम उनसे अपने प्रति नहीं चाहते।
सिख – ओंकार (ईश्वर) एक है। उसका नाम सत्य है। वह सृष्टिकर्ता, समर्थ पुरुष, निर्भय, र्निवैर, जन्मरहित तथा स्वयम्भू है। वह गुरु की कृपा से जाना जाता है।
बहाई – हे मेरे ईश्वर, मैं साक्षी देता हूँ कि तुझे पहचानने तथा तेरी ही पूजा करने के लिए तूने मुझे उत्पन्न किया है। तेरे अतिरिक्त अन्य कोई परमात्मा नहीं है। तू ही है भयानक संकटों से तारनहार तथा स्व निर्भर।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 10.35 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)