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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.34 II

।। अध्याय      10.34 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 10.34

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌ ।

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा॥

“mṛtyuḥ sarva-haraś cāham,

udbhavaś ca bhaviṣyatām..।

kīrtiḥ śrīr vāk ca nārīṇāḿ,

smṛtir medhā dhṛtiḥ kṣamā”..।।

भावार्थ: 

मैं ही सभी को नष्ट करने वाली मृत्यु हूँ, मैं ही भविष्य में सभी को उत्पन्न करने वाली सृष्टि हूँ, स्त्रीयों वाले गुणों में कीर्ति, सोन्दर्य, वाणी की मधुरता, स्मरण शक्ति, बुद्धि, धारणा और क्षमा भी मै ही हूँ। (३४)

Meaning:

I am death, destroyer of all. I am what emerges in the future. Among women I am fame, wealth, speech, memory, retention, fortitude and forgiveness.

Explanation:

We continue our journey through the manifestations of Ishvara. In order to remind us of the ephemeral nature of life, Shri Krishna says that among those forces that destroy things, Ishvara is death, the ultimate destroyer. Death is closely intertwined with time since everything is destroyed in the course of time.

There is a phrase in English, “as sure as death.” For one who is born, death is certain. All life inevitably ends in death, and thus the phrase, “dead end.” God is not merely the force of creation; he is also the force of destruction. He devours everything in the form of death. In the cycle of life and death, those who die are born again. Shree Krishna states that he is also the generating principle of all future beings.

So, I am the greatest robber, as it were, who will take away everything from a jīva. So, a robber may take away so of the things; but kala is one which snatches everything from us, because we can never carry anything with us at the time of death. So, one by one you drop, and when you leave this body, you cannot carry anything; what you carry is your own puṇyam and papam; other than that nothing can you carry. It is taken away by whom; mṛtyuḥ. Therefore mṛtyuḥ, yama dharma rāja is called sarvaharaḥ; the one who takes away everything from you.

In the Puranaas, Lord Shiva commences the act of dissolution by performing a dance called “taandava nritya”, his drum called “damru” in hand. After dissolution is complete, Ishvara then emerges as the creative principle to begin the next round of creation. Ishvara is the “stuff” of the universe, as well as the energy pervading it.

So far, we have come across several manifestations of Ishvara. At times, we may find hard to connect some of these manifestations because we are not familiar with them. Shri Krishna is careful to not alienate us. He now provides a list of qualities that we see in ourselves and in others every day.

And I am the udbhavaḥ; the resource or source of all the future prosperity or future wealth; because if you have to produce anything in future, they all must be there potentially; we can never generate anything if that provision is not there, and Krishna says that provision is myself. Therefore, udbhavaḥ means I am the source or womb of all future prosperity.

Similarly, every organ of ours is governed by so many laws; Thunder, lightning, gravitation; anything you mention; anything within creation must be governed by inexorable laws of the Lord and if those laws are functioning, it is only because of an intelligence principle governing those laws. Because any law can function perfectly only when there is a governing principle and that is why whenever government introduces a law, an officer is required to take care of that. Once there are traffic laws, you require traffic police; only then the law will be maintained. Any law can exist, only if there is a law governing intelligence principle. And therefore, any object in creation is governed by laws and any law is governed by an intelligent principle and adding these two together, we require an intelligent principle to preside over every object.

Certain qualities are seen as adornments in the personality of women, while other qualities are viewed as especially praiseworthy in men. Ideally, a well-rounded personality is one that possesses both kinds of qualities. Here, Shree Krishna lists fame, prosperity, perfect speech, memory, intelligence, courage, and forgiveness, as virtues that make women glorious. The first three of these qualities manifest on the outside, while the next four manifest on the inside.

Besides this, the progenitor of humankind Prajapati Daksha had twenty- four daughters. Five of these were considered the best of women—Kirti, Smriti, Medha, Dhriti, and Kshama. Shree was the daughter of Sage Bhrigu. Vak was the daughter of Brahma. In accordance with their respective names, these seven women are the presiding deities of the seven qualities mentioned in this verse.

These qualities are : keerti (name and fame on account of performing virtuous deeds), shree (beauty and wealth), vaak (refined speech), smiriti (memory of events), medhaa (ability to retain information that was read), dhriti (fortitude in the face of exhaustion) and kshama (forgiveness in the face of sorrow). In Sanskrit grammar these words are feminine nouns. Shri Krishna says that Ishvara manifests himself as one or all of these qualities in people. Here, Shree Krishna enlists these qualities also as his vibhūtis.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जन्म से प्रतिक्षण मृत्यु को प्राप्त करता जीव, अपने अंतिम आघात में अपने साथ कुछ नही ले जा सकता। खाली हाथ आना और खाली हाथ जाना, यह संसार का नियम है,   इसलिये मृत्यु को सर्वहर माना गया है, यह अपने साथ किसी भी जीव के समस्त सांसारिक रिश्ते-नाते, धन-संपत्ति, आशा- निराशा, पद और सम्मान सब को हरते हुए ले जाती है, कुछ शेष जाता है तो कर्म संस्कार और फलासक्ति से प्राप्त कर्मफल। मृत्यु एक सकून और शांति के रूप में एक देवी के समान स्वीकार किया जाने वाला किसी भी जीव का इस धरती का सत्य है। जिसे परमात्मा अपनी विभूति कह रहे है।

धनादि का नाश करने वाला और प्राणों का नाश करने वाला ऐसे दो प्रकार का मृत्यु सर्वहर कहलाता है, वह सर्वहर मृत्यु मैं हूँ अथवा परम ईश्वर प्रलयकाल में सब का नाश करने वाला होने से सर्वहर है। मृत्यु में हरण करने की ऐसी विलक्षण सामर्थ्य है कि मृत्यु के बाद यहाँ की स्मृति तक नहीं रहती, सब कुछ अपहृत हो जाता है। वास्तव में यह सामर्थ्य मृत्यु की नहीं है, प्रत्युत परमात्मा की है। अगर सम्पूर्ण का हरण करने की, विस्मृत करने की भगवत्प्रदत्त सामर्थ्य मृत्यु में न होती तो अपनेपन के सम्बन्ध को लेकर जैसी चिन्ता इस जन्म में मनुष्य को होती है, वैसी ही चिन्ता पिछले जन्म के सम्बन्ध को ले कर भी होती। मनुष्य न जाने कितने जन्म ले चुका है। अगर उन जन्मों की याद रहती तो मनुष्य की चिन्ताओं का, उस के मोह का कभी अन्त आता ही नहीं। परन्तु मृत्यु के द्वारा विस्मृति होने से पूर्वजन्मों के कुटुम्ब, सम्पत्ति आदि की चिन्ता नहीं होती। इस तरह मृत्यु में जो चिन्ता, मोह मिटाने की सामर्थ्य है, वह सब भगवान् की है। मैं सर्वभक्षक मृत्यु हूँ। मैं ही शिव हूँ।

शिव मृत्यु के देवता के रूप में संहारक माने जाते है। इसलिए कहा जाता है कि प्रलय काल में शिव तांडव नृत्य करना शुरू कर देते है। इसलिए सृष्टि का सौदर्य और संचालन का  आधार उस का संहार और उद्भव में ही निहित है।

समानता की समर्थक मृत्यु, शासक के राजदण्ड और मुकुट को भी भिक्षु के भिक्षापात्र और दण्ड के स्तर तक ले आती है। प्रत्येक प्राणी केवल अपने जीवन काल में अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों के संबंधों के द्वारा अपना एक भिन्न अस्तित्व बनाये रखता है। मृत्यु के पश्चात् विद्वान और मूढ़, पुण्यात्मा और पापात्मा, बलवान और दुर्बल, शासक और शासित ये सब धूलि में मिल जाते हैं, एक समान रूप बन जाते हैं जिन में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता।

मृत्यु यहां जड़ एवम चेतन्य के अलग अलग होने को कहा गया है जो इस प्रकृति का अटल सत्य है, किन्तु इस का समय और कारण का निर्धारण परमात्मा ही करता है।

कोई भी जीव जन्म, वृद्धि, स्थान या स्थिरता, सन्तानोपत्ति , क्षय और मृत्यु, यह छह परिवर्तनों से गुजरना पड़ता है। इसलिये जैसे मृत्यु अटल है, वैसे ही सृष्टि को चलायमान रखने के लिये जन्म में अटल है। भविष्य में होने वालों का मैं उत्पत्ति कारण हूँ परमात्मा केवल सर्वभक्षक ही नहीं, सृष्टिकर्ता भी है। हम देख चुके हैं कि वस्तुत एक अवस्था के नाश के बिना अन्य अवस्था का जन्म नहीं हो सकता है। किसी पक्ष को ही देखना माने जीवन का एकांगी दर्शन करना ही हैं। वस्तु के नाश से शून्यता नहीं शेष रहती वरन् अन्य वस्तु की उत्पत्ति होती है।

समुद्र में उठती लहरों को अलग अलग देंखे तो सदा नाश ही होता दिखाई देगा, परन्तु एक के लय के साथ ही समुद्र में कितनी ही लहरें उत्पन्न होती रहती हैं, जिसका हमे ध्यान भी नहीं रहता है। इस सम्पूर्ण विवेचन का बल इसी पर है कि अनन्त परमात्मा अपने में ही रचना और संहार की क्रीड़ा निरन्तर कर रहा है जिस क्रीड़ा को हम विश्व कहते हैं। सब उत्पन्न होनेवालों की उत्पत्ति का हेतु भी मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाला मैं ही हूँ। अतः मृत्यु से अमृत तक परमात्मा की ही विभूति है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे भविष्य में उत्पन्न होने वाले सभी प्राणियों के प्रजनन सिद्धान्त हैं। स्त्रियों के व्यक्तित्त्व में कुछ गुण अलंकारों के रूप में देखे जाते हैं जबकि पुरुषों में अन्य गुणों को विशेषतः प्रशंसनीय रूप में देखा जाता है। आदर्श रूप से बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व वह है जो दोनों प्रकार के गुणों से सम्पन्न हो। यहाँ श्रीकृष्ण ने कीर्ति, समृद्धि, मृदुवाणी, स्मृति, बुद्धि, साहस और क्षमा आदि गुणों का उल्लेख किया है जो स्त्रियों को गौरवशाली बनाते हैं। इनमें प्रथम तीन बाह्य रूप से और अगले चार आंतरिक रूप में प्रकट होते हैं।

इन में से कीर्ति, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा – ये पाँच प्रजापति दक्ष की कन्याएँ हैं। श्री – महर्षि भृगु की कन्या है और वाक् ब्रह्माजी की कन्या है। कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा – ये सातों स्त्रीवाचक नाम वाले गुण भी संसार में प्रसिद्ध हैं। सद्गुणों को लेकर संसार में जो प्रसिद्धि है, प्रतिष्ठा है, उसे कीर्ति कहते हैं।

कीर्ति, मेधा और क्षमा का विवाह धर्म से हुआ, स्मृति अंगिरा जी से, क्षमा पुलह ऋषि से और श्री विष्णु से हुआ। श्री कीर्ति की पुत्री है।

जन सामान्य की भाषा मे – स्थावर और जङ्गम – यह दो प्रकार का ऐश्वर्य होता है। जमीन, मकान, धन, सम्पत्ति आदि स्थावर ऐश्वर्य है और नकद, बैंक बैलेंस, आभूषण, गाड़ी आदि जङ्गम ऐश्वर्य हैं। इन दोनों ऐश्वर्यों को श्री कहते हैं। जिस वाणी को धारण करने से संसार में यश प्रतिष्ठा होती है और जिस से मनुष्य पण्डित, विद्वान् कहलाता है, उसे वाक् कहते हैं। पुरानी सुनी समझी बात की फिर याद आने का नाम स्मृति है। बुद्धि की जो स्थायीरूप से धारण करने की शक्ति है अर्थात् जिस शक्ति से विद्या ठीक तरह से याद रहती है, उस शक्ति का नाम मेधा है। मनुष्य को अपने सिद्धान्त, मान्यता आदि पर डटे रखने तथा उन से विचलित न होने देने की शक्ति का नाम धृति है। दूसरा कोई बिना कारण अपराध कर दे, तो अपने में दण्ड देने की शक्ति होने पर भी उसे दण्ड न देना और उसे लोक परलोक में कहीं भी उस अपराध का दण्ड न मिले – इस तरह का भाव रखते हुए उसे माफ कर देनेका नाम क्षमा है। कीर्ति, श्री और वाक् – ये तीन प्राणियों के बाहर प्रकट होनेवाली विशेषताएँ हैं तथा स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा – ये चार प्राणियों के भीतर प्रकट होने वाली विशेषताएँ हैं। इन सातों विशेषताओँ को भगवान् ने अपनी विभूति बताया है। जिस किसी व्यक्ति में एवम स्वयं ये गुण दिखायी दें तो उसे  भगवान् की ही विशेषता माननी चाहिये। कारण कि यह दैवी (भगवान् की) सम्पत्ति है। इन गुणों को अपना मान लेने से अभिमान पैदा होता है और अभिमान सम्पूर्ण आसुरी सम्पत्ति का जनक है।

प्रकृति को नारी स्वरूप माना गया है और जीव पुरुष। इसलिये देह पिंड नारी या पुरुष के अंतर को त्याग कर  इन सात गुणवान स्त्रियों की बात की गई है जो हर जीव का लक्ष्य होना चाहिए। स्त्रियोचित गुणों में स्त्री प्रकृति की सुंदरतम रचना है तो उस का कारण उस का सौंदर्य, कोमल एवम ममतामयी स्वभाव, धारण और जन्म देने की क्षमता है। इसलिये किसी के संसार मे रहने के श्रेष्ठतम गुणों को भी स्त्रियोचित गुण बताया गया। उस के निष्काम कर्म में कर्तव्य पालन के लक्ष्य इन सात स्त्रियों को वरण करना है, इन के पीछे नही भागना। अर्जुन महान योद्धा हो कर अपनी कीर्ति  एवम श्री तो त्यागने को तैयार हो गया। उस की वाक, स्मृति, मेधा एवम घृति मोह, भय एवम अहम से नष्ट हो गए एवम वो शास्त्रों की आड़ ले कर युद्ध से पलायन करने को तैयार था। ऐसे में निष्काम भाव से कर्तव्य का पालन क्यों आवश्यक है यह पुरुष द्वारा जिन स्त्रियों का वरण करना चाहिए, उस के हिसाब से इस श्लोक को समझना चाहिए।

वरण का अर्थ, हमारी स्वयं की मनोदशा है, जब अनियंत्रित मन द्वारा जिस स्त्री के दर्शन से चित्त का, स्पर्श से बल का एवम संभोग से वीर्य का नाश हो, वह स्त्री वरण पुरुष के लिये व्यभिचारिणी -राक्षसी स्वभाव का होता है, उस से सावधान रहने की आवश्यकता है। हिन्दू धर्म मे कर्म की प्रधानता एवम मोक्ष की प्राप्ति को अत्यधिक बल दिया गया है, अतः गृहस्थ आश्रम भी सामाजिक एवम नैतिक सृष्टि यज्ञ चक्र का हिस्सा माना गया है। सन्तानोपत्ति के कामदेव को अपना स्वरूप कहते हुए, परमात्मा ने वासना युक्त काम से सावधान रहने को कहा है क्योंकि जब वासना का मन मे वास होता है तो वह सब से पहले चित्त अर्थात विवेक का हरण कर लेती है और विवेक के हरण से जीव अपनी कार्य क्षमता एवम बल और बुद्धि का नाश कर देता है और आसुरी वृति के गर्त में चला जाता है। इसलिये मनुष्य को नारी को पराभक्ति स्वरूप में धारण या वरण करना  चाहिए। पराभक्ति स्वरूप में नारी का रूप एवम लावण्य माया रूपी नारी के समान उस के मन, बुद्धि और विवेक का हरण नही करता। हिन्दू संस्कृति में नारी के विभिन्न रूपो में पूजा पराभक्ति स्वरूप नारी का वरण है, जिस से नारी के रूप में वासना का त्याग हो कर कीर्ति, श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा स्वरूपी नारी का वरण किया जा सके। अतः इन का वरण वही कर सकता है जो निष्काम कर्मयोगी हो कर ज्ञान एवम धर्म द्वारा इन्द्रिय, मन, बुद्धि के संयम को प्राप्त कर चुका है। भावार्थ में कीर्ति, श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा गुण के प्रति लोभ या वासना हो तो यह प्राप्त नहीं हो सकती।

इस ब्रह्मांड में प्रत्येक ग्रह, नक्षत्र, सौर मंडल और आकाश गंगा अपने नियम में कार्य कर रहा है। सूर्य अपनी धुरी पर घूम रहा है और पृथ्वी अपनी धुरी और सूर्य के चारो ओर घूम रही है। इसलिए सभी अपने अपने कार्य को नियमित गति में कर रहे है।

इसी प्रकार हमारा प्रत्येक अंग अनेक कानूनों द्वारा संचालित होता है;  गड़गड़ाहट, बिजली, गुरुत्वाकर्षण;  आप जो कुछ भी उल्लेख करते हैं;  सृष्टि के भीतर कुछ भी भगवान के कठोर कानूनों द्वारा शासित होना चाहिए और यदि वे कानून कार्य कर रहे हैं, तो यह केवल उन कानूनों को नियंत्रित करने वाले एक खुफिया सिद्धांत के कारण है।  क्योंकि कोई भी कानून तभी पूर्ण रूप से कार्य कर सकता है जब उसके पास एक शासकीय सिद्धांत हो और इसीलिए जब भी सरकार कोई कानून लाती है तो उसकी देखभाल के लिए एक अधिकारी की आवश्यकता होती है।  एक बार यातायात कानून बन जाने पर, आपको यातायात पुलिस की आवश्यकता होती है;  तभी कानून कायम रहेगा.  कोई भी कानून तभी अस्तित्व में रह सकता है, जब खुफिया सिद्धांत को नियंत्रित करने वाला कोई कानून हो।  और इसलिए सृष्टि में कोई भी वस्तु कानूनों द्वारा शासित होती है और कोई भी कानून एक बुद्धिमान सिद्धांत द्वारा शासित होता है और इन दोनों को एक साथ जोड़ने पर, हमें प्रत्येक वस्तु की अध्यक्षता करने के लिए एक बुद्धिमान सिद्धांत की आवश्यकता होती है।

इसलिए जीवन में कुछ पाना है तो हम उस सिद्धांत के बाहर जा कर वही प्राप्त करेंगे, जो उस अनियमित कार्य के लिए लिखा है। बुरे कर्म का फल भी वही होगा, जिसके लिए कर्म किया है।

कर्म प्रधान विश्व करि राखा तुलसीकृत यह कथन इस बात का प्रतीक है कि इस सृष्टि की रचना का आधार या उत्पति रूप में कर्म की प्रधानता है। इसलिये भगवान युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा देते हुए कहते है कि त्यागने की चीज कर्म के फल की आसक्ति है, कर्म की नही। कर्म का त्याग तो परमात्मा के त्याग के समान होगा।

मृत्यु, जन्म परमात्मा के हाथ मे है तो जीव को निष्काम भाव से कर्म करते हुए इस प्रकार से कर्म करे जिस से इन सात स्त्रियों वरण करे। कर्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य आदि में इन गुणों को देखा जा सकता है जिस के कारण लोग उन्हें आज भी महान कहते है।

।। हरि ॐ तत सत। 10.34।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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