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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.29 II

।। अध्याय      10.29 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 10.29

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्‌ ।

पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्‌॥

“anantaś cāsmi nāgānāḿ,

varuṇo yādasām aham..।

pitṝṇām aryamā cāsmi,

yamaḥ saḿyamatām aham”..।।

भावार्थ: 

मैं सभी नागों (फ़न वाले सर्पों) में शेषनाग हूँ, मैं समस्त जलचरों में वरुणदेव हूँ, मैं सभी पितरों में अर्यमा हूँ, और मैं ही सभी नियमों को पालन करने वालों में यमराज हूँ। (२९)

Meaning:

Among the water snakes I am Ananta and among the marine beings I am Varuna. Among the Pitrs I am Aryamaa and among the controllers I am Yama.

Explanation:

In the previous shloka, Shri Krishna spoke about Ishvara’s expressions among snakes that live on land. Here, he says nagaḥ also means snake; and how to differentiate sar̥pa and nāgāḥ; both mean snakes only. Rememeber; by Nāgās refers to non- poisonous snake; so saviṣa and nirviṣa. So among those Nāgās, I am Ananthaḥ. Also known as Aadishesha, he is depicted with a thousand heads, each head singing the glory of Lord Vishnu, who rests on Aadishesha’s coils. His name comes from the Sanskrit root “sis” meaning “that which remains”, because Aadishesha remains unaffected after the dissolution of the universe.

So anantha, it is a snake asosciated with Lord Viṣṇu; Lord Viṣṇu is called ananthaśayana. So, he uses the coiled anantha as the bed; and it is like a foam- like bed only and also cool; because snake are supposed to be cool blooded ones; soft to touch and Dayananda swami says, it is the first spring coat in the creation; Bhagavān started it; coil means spring; So therefore ananthaśayana; of course philosophically speaking, anantha means nirguṇa brahma. So Viṣṇu the saguṇa īśvara is located in his svarūpam of anantha, which is the nirgūṇa brahman; otherwise, it is also called ādiśeṣaḥ; śeṣaḥ means what; that which remains everything is destroyed. In food also śeṣam; after you eat everything; what is left out is śeṣaḥ; in the creation during pralaya; after everything is destoryed; what is left behind is Brahman; and therefore Bhagavān śeṣasāyi; he remains in his svarūpam called śeṣa, which is the brahman, which is the ultimate remainder; therefore anantha śeṣasāyi; śeṣasāyi; that anantha among the Nāgās.

Next, we encounter the world of marine dwelling beings or “Yaadas”. Among these, Shri Krishna says that Ishvara is Lord Varuna, the king of the ocean. He is mentioned as part of the daily prayer ritual known as Sandhyavandanam. Symbolically, “yaadas” refers the to divinity prevalent in any seemingly inert object. Recognizing the divinity in everything, the Indian tradition encourages worship of the Tulsi leaf, of trees, of the earth and so on.

Pitra loka is the realm of the manes or ancestor gods. The seven primary manes are Kavyavaha, Anala, Soma, Yama, Aryama, Agnisvatta and Barhisat. Among these, Shri Krishna says that Ishvara is Aryaman, the chief of the manes.

Ishvara is also Lord Yama among all the controllers. This is because he is also the lord of justice, using the ultimate punishment o death to maintain order and harmony in the universe.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व श्लोक में सर्प वासुकी को अपना स्वरूप बताया था, यहां शेषनाग को अपना स्वरूप बता रहे है। नाग एवम सर्प में कोई अंतर नही दिखते हुए भी यह माना जाता है,  नाग एक से ज्यादा सिर वाला होता है। परमात्मा कहते है मैं नागों में शेषनाग (अनन्त) हूँ अनेक फणों वाले सर्प नाग कहलाते हैं। उन नागों में सहस्र फनों वाले शेषनाग को भगवान् विष्णु की शय्या कहा गया है जिस पर वे अपनी योगनिद्रा में विश्राम या शयन करते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि, अनेक फणों वाले नागों में, वे सर्वाधिक शक्तिशाली और दिव्य नाग हैं, क्योंकि वे एकमात्र अधिष्ठान है जिस पर सृष्टकर्ता ब्रह्मा और पालनकर्ता विष्णु विश्राम और कार्य करते हैं। शेषनाग विष्णु के ही अवतार माने जाते है एवम पृथ्वी का भार उठाये है। अवतारों में भी इन्होंने परमात्मा के साथ अवतार लिए।

शेषनाग या अदिशेष,ऋषि कश्यप और कद्रू के सबसे बड़े पुत्र हैं। वह नागराज भी थे। परंतु ये राजपाट छोड़कर विष्णु की सेवा में लग गए क्योंकि उनकी माता कद्रू ने अरुण और गरुड़ की माता तथा अपनी बहिन और उनकी विमाता विनता के साथ छल किया था। वह विष्णु भगवान के परम भक्त हैं और उनको शैया के रूप में आराम देते हैं। वह भगवान विष्णु के साथ क्षीरसागर में ही रहते हैं मान्यताओं के अनुसार शेष ने अपने पाश्चात वासुकी और वासुकी ने अपने पश्चात् तक्षक को नागों का राजा बनाया वह सारे ग्रहों को अपनी कुंडली पर धरे हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि जब शेषनाग सीधे चलते हैं कब ब्रह्मांड में समय रहता है और जब शेषनाग कुंडली के आकार में आ जाते हैं तो प्रलय आती है। वह भगवान विष्णु के भक्त होने के साथ-साथ उनके अवतारों में भी उनका सहयोग करते हैं। जैसे कि त्रेता युग के राम अवतार में शेषनाग ने लक्ष्मण भगवान का रूप धरा था। वैसे ही द्वापर युग के कृष्ण अवतार में शेषनाग जी ने बलराम जी का अवतार लिया था। जब वसुदेव जी भगवान कृष्ण भगवान को टोकरी में डालकर नंद जी के यहां ले जा रहे थे तब शेषनाग जी उनकी छतरी की तरह उनको बारिश से बचा रहे थे। इनके अन्य छोटे भाई वासुकी , तक्षक , पद्म , महापद्म , कालिया , धनञ्जय , शन्ख आदि नाग थे।

वैज्ञानिक इसे अंतरिक्ष मे ईथर मानते है जो नाग की भांति एक आकर्षण शक्ति की भांति ब्रह्मांड में फैली हुई है जिस के कारण समस्त ग्रह शून्य में भार रहित हो कर अपनी अपनी धुरी पर टिके हुए है। यह शेषनाग ने पृथ्वी का भार उठाया है, का समर्थन करता है। शेषनाग को ब्रह्म के स्वरूप भी कहते है, प्रलय के बाद जो बचता है, उसे ही शेष कहते है।  शेषनाग का अर्थ है ब्रह्म का स्वरूप जिस पर परमात्मा विराजमान है।

वरुण सम्पूर्ण जलजन्तुओं के तथा जलदेवताओं के अधिपति हैं और भगवान् के भक्त हैं।पंच महाभूतों में चौथे तत्त्व जल का अधिष्ठाता देवता वरुण है। वैदिक काल में दृश्य जगत् की प्राकृतिक शक्तियों को दैवी आकृति प्रदान कर उनकी पूजा और उपासना की जाती थी। इसलिये भगवान् ने  इनको अपनी विभूति बताया है और कहा है, मैं जल देवताओं में वरुण हूँ 

मैं पितरों में अर्यमा हूँ हिन्दू धर्म में, मृत्यु भी, जीवन का ही एक अनुभव है। इसमें सूक्ष्म शरीर सदैव के लिए अपने वर्तमान निवास स्थान रूपी स्थूल देह को त्याग कर चला जाता है। इस सूक्ष्म शरीर (या जीव) का अपना अलग अस्तित्व बना रहता है, जिसे पितर कहते हैं।ये पितर (अथवा प्रेतात्माएं) एक साथ किसी लोक विशेष में रहते हैं, जिसे पितृलोक कहा जाता है। इसके पूर्व हम बारह आदित्यों के संबंध में वैदिक सिद्धांत को देख चुके हैं, जो बारह महीनों के अधिष्ठाता हैं। उनमें से एक अर्यमा नामक आदित्य को इस पितृलोक का शासक कहा गया है। हिन्दू धर्म तर्पण एवम श्राद्ध इन पितर लोक में रहने वाले पितरों की सेवा एवम सम्मान का प्रतीक है।

प्राणियों पर शासन करनेवाले राजा आदि जितने भी अधिकारी हैं, उन में यमराज मुख्य हैं। ये प्राणियों को उनके पापपुण्यों का फल भुगता कर शुद्ध करते हैं। इनका शासन न्याय और धर्मपूर्वक होता है। ये भगवान् के भक्त और लोकपाल भी हैं। मैं नियामकों में यम हूँ यमराज मृत्यु के देवता हैं। भारत में, हम भयंकरता उदासी और दुखान्त को भी पूजते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि ईश्वर शुभ और अशुभ आनन्दप्रद और दुखप्रद सभी वस्तुओं का अधिष्ठान है। हम समझौते के किसी ऐसे सिद्धांत से सन्तुष्ट नहीं होते, जिसमें हम ईश्वर का उन वस्तुओं से कोई संबंध स्वीकार नहीं करते, जो हमें अप्रिय हों।हमें प्रिय प्रतीत हो या न हो, मृत्यु तत्त्व ही हमारे जीवन का नियन्त्रक और नियामक है। मृत्यु ही, प्रत्येक क्षण, रचनात्मक विकास के लिए प्रगतिशील क्षेत्र तैयार करती है। युवावस्था की अभिव्यक्ति के लिए बाल्यावस्था का अन्त होना आवश्यक है।  प्रगति अपने आप में जीवन का मात्र आंशिक चित्र और जीवन की सम्पूर्ण गति का एकांगी दर्शन है। प्रत्येक विकास के पूर्व नाश अवश्य होता है। इस प्रकार, नाश का रचनात्मक प्रगति में योगदान मृत्यु की सृजनात्मक कला कहलाती है।

किसी भौतिक वस्तु की वर्तमान अवस्था का नाश किये बिना नवीन वस्तु की निर्मिति नहीं की जा सकती। भौतिक जगत् के इस नियम को समझने से ही हम इस युक्तिसंगत निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। निरीक्षित नियम यह है कि कोई दो वस्तुएँ एक ही समय एक ही स्थान पर साथसाथ नहीं रह सकती हैं। जब एक चित्रकार पट पर फूल का चित्र बना रहा होता है, तब वह न केवल विभिन्न रंगों का प्रयोग ही करता है, वरन् उसकी रचनात्मक कला निरन्तर उस पट के सतह की पूर्वावस्था को नष्ट भी करती जाती है। इस प्रकार, जब जीवन को उसकी सम्पूर्णता में देखा जाता है, तब ज्ञात होता है कि मृत्यु के देवता का भी उतना ही महत्व है, जितना कि सृष्टि के देवता का।सृष्टि के साथ साथ उसी गति से यदि मृत्यु बुद्धिमत्तापूर्वक कार्य नहीं कर रही होती, तो जगत् में वस्तुओं की असीम और अनियन्त्रित बाढ़ आ गई होती। उस स्थिति में मात्र वस्तुओं की संख्या एवं परिमाण के कारण ही जीवन असंभव हो गया होता। यदि मृत्यु नहीं होती, तो हमारे पूर्व के असंख्य पीढ़ियों के प्रपितामह आदि अभी भी हमारे दो कमरों वाले घरों में रह रहे होते जब कुछ ही मात्रा में जनसंख्या में वृद्धि होने पर प्रकृति का सन्तुलन और जगत् की राजनीतिक शान्ति अस्तव्यस्त हो जाती है, यदि सृष्टिकर्ता के समान मृत्यु देवता भी कार्य नहीं कर रहे होते, तो जगत् की क्या स्थिति होती निश्चय ही, सभी नियामकों में यमराज प्रमुख् हैं।

इस प्रकार सृष्टि यज्ञ चक्र के संचालन में कर्तव्यनिष्ठ को कार्य करने तेज, प्रतापी,  न्याय एवम अन्याय की समझने वाले, नियमो का पालन करवाने वाले एवम जीवन का सत्यता की परिचय देने वाले प्रशासनिक समस्त स्वरूप विभूतियो में परमात्मा ही मौजूद है।

।। हरि ॐ तत सत।।10.29।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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