Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6121
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.27 II

।। अध्याय      10.27 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 10.27

उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम्‌ ।

एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्‌॥

“uccaiḥśravasam aśvānāḿ,

viddhi mām amṛtodbhavam..।

airāvataḿ gajendrāṇāḿ,

narāṇāḿ ca narādhipam”..।।

भावार्थ: 

समस्त घोड़ों में समुद्र मंथन से अमृत के साथ उत्पन्न उच्चैःश्रवा घोड़ा मुझे ही समझ, मैं सभी हाथियों में ऐरावत हूँ, और मैं ही सभी मनुष्यों में राजा हूँ। (२७)

Meaning:

Among the horses, know me as Ucchaihshrava born of nectar. Among the elephants I am Airaavata, and among the humans I am the leader.

Explanation:

We continue to learn about Ishvara’s expressions in this shloka. The Puranaas describe the story of deities and demons churning the ocean for gaining the nectar of immortality. Before the nectar came out, several other divine entities emerged and Ucchaihshrava, the divine horse, was one of them. “Uchhai” means great and shravas means prosperity. Symbolically, Ucchaihshrava stands for the prosperity we attain when we put in focused effort and renounce our material desires. Shri Krishna says that among all the horses, the divine Ucchaihshrava is Ishvara’s expression.

Airaavata is a four- tusked white elephant who is the mount of Indra, king of the deities. He is credited with showering rain. His mother is Iravati, granddaughter of sage Kashyapa. Given his status, Shri Krishna says that among all the elephants, Airaavata is Ishvara’s expression.

Next, Shri Krishna turns to more familiar grounds by referencing humans. Among human beings, he says that Ishvara expresses in the leader. But this is not just any ordinary leader. Ishvara expresses himself in leaders whose accomplishments are a product of their hard work and effort, and whose leadership is in line with dharma or righteousness. It is easy to get name and fame by virtue of association or by performing unrighteous acts. This is not the leader that is referenced here.

And peculiarly enough, both these stories are teaching one fundamental lesson to us and that is, in life perseverance is the most important value; if you have to be successful in life, you should take everything as a challenge; failure should not deter you; failure should not make you fatalistic; failure should not make you pessimistic; failure should only trigger further energy; story No.1; Bhagīratha prayathana, story No.2; Dēva asura prayathnaḥ.

So, whenever we see the result of hard work, a humanitarian leader, or the cooling rain that parches a dry land, we should remember that all these are Ishvara’s expressions.

।। हिंदी समीक्षा ।।

मंगलाष्टक में कालिदास रचित  यह श्लोक सभी ने सुना होगा।

लक्ष्मी: कौस्तुभ पारिजातक सुरा धन्वंतरिश्चंद्रमा: । गाव: कामदुधाः सुरेश्वर गजो, रंभादिदेवांगनाः ।। अश्वः सप्त मुखोविषम हरिधनुं, शंखोमृतम चांबुधे । रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदीनम, कुर्वंतु वोमंगलम ।।

यह समुंद्र मंथन से निकले 14 रत्न है। गंगा अवतरण और समुद्र मंथन दो पुराणिक कथाएं हमे यह बताती है कि सहकार्य, अथक प्रयास और उच्च श्रेणी की मानसिकता से असंभव कार्य भी संभव हो जाता है।

उच्चै:श्रवा उस घोड़े का नाम है जो अमृत मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक है। हिंदू धर्म में , उच्चैःश्रवस ( संस्कृत : उच्चैःश्रवस , आईएएसटी : उच्चैःश्रवा ) या ( संस्कृत : उच्चैःश्रवा , आईएएसटी : उच्चैःश्रवा ), ( शाब्दिक रूप से  ‘लंबे कान’ या ‘जोर से हिनहिनाना”) एक सात सिर वाला उड़ने वाला घोड़ा है, क्षीर सागर के मंथन के दौरान उत्पन्न हुआ । इसे घोड़ों में सर्वश्रेष्ठ, घोड़ों का प्रोटोटाइप और राजा माना जाता है।  उच्चैःश्रवा को अक्सर इंद्र (देवताओं के राजा) के वाहन (“वाहन”) के रूप में वर्णित किया जाता है, लेकिन इसे असुरों (राक्षसों) के राजा बाली का घोड़ा भी कहा जाता है । कहा जाता है कि उच्चैःश्रवा का रंग बर्फ जैसा सफेद होता है।  यह घोड़ा सामान्य घोड़ो की तरह जन्म न लेकर अपने विशिष्ट गुणों के कारण अद्वितीय माना जाता है। इसलिये इस को अश्वो का राजा भी कहा गया है। यह कभी थकता नही है, इस को भोजन की भी आवश्यकता नही एवम यह किसी भी जगह चल सकता है। इस की गति नियमित है इसलिये सूर्य के रथ का संचालन करता है। अश्व अपनी गति, बल एवम न थकने के गुणों से श्रेष्ठ होता है, इसलिये भगवान ने अर्जुन के रथ से जुटे बेजोड़ घोड़ो से ज्यादा बेजोड़ इस घोड़े को अपना स्वरूप माना है। प्राचीन काल मे घोड़े वाहन, शक्ति एवम युद्ध मे अत्यधिक महत्व रखते थे इसलिये भी गति एवम बल के स्वरूप में उच्चै:श्रवा को परमात्मा ने अपनी विभूति कहते हुए कहा कि यह मैं हूँ।

ऐरावत इंद्र का हाथी, समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में ऐरावत भी था। इसे शुक्लवर्ण और चार दाँतोवाला बताया गया है। रत्नों के बॅटवारे के समय इंद्र ने उक्त दिव्यगुणयुक्त हाथी को अपनी सवारी के लिए ले लिया था। इसलिए इस का इंद्रहस्ति अथवा इंद्रकुंजर नाम पड़ा। इस के अन्य नाम अभ्रमातंग, ऐरावण, अभ्रभूवल्लभ, श्वेतहस्ति, मल्लनाग, हस्तिमल्ल, सदादान, सुदामा, श्वेतकुंजर, गजाग्रणी तथा नागमल्ल हैं।

धृतराष्ट्र नामक नाग का पैतृक नाम भी ऐरावत था। कद्रुपुत्र नागों को भी ऐरावत नाम से पुकारा गया है। ‘इरा’ का अर्थ जल है, अत: इरावत (समुद्र) से उत्पन्न हाथी को ऐरावत नाम दिया गया है और परवर्ती भारतीय वाङ्मय में ऐरावत नाग (नाग के सर्प और हाथी दोनों अर्थ होते हैं) का संबंध इंद्र के हाथी ऐरावत से जोड़ लिया गया होगा। महाभारत, भीष्म पर्व के अष्ट्म अध्याय में भारत वर्ष से उत्तर के भू-भाग को उत्तर कुरु के बदले ‘ऐरावत’ कहा गया है। जैन साहित्य में भी यही नाम आया है।

यह भी अपने बल, बुद्धि एवम किसी भी स्थान में इच्छा के अनुसार चल सकने के गुण के कारण अद्वितीय है। इस को गजेंद्र भी कहा जाता है। कहते है इस कि चार सूँड है जिस से यह वर्षा कर सकता है। इसलिये परमात्मा ने इस को भी अपनी विभूति बताते हुए कहा कि यह ऐरावत मै ही हूँ।

राजामनु के राजनीतिक विचारों का केन्द्र-बिन्दु है। मनु ने अनेक देवताओं के सारभूत नित्य अंश को लेकर राजा की सृष्टि करने का जो उल्लेख किया है उस से राज की दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त में विश्वास प्रकट होता है। चूंकि राजा में दैवी अंश व्याप्त है, अतः यह अपेक्षित है कि प्रजा उस का कभी अपमान न करें। राजा से द्वेष करने का अर्थ स्वयं का विनाश करना है। मनुस्मृति में यह भी लिखा गया है कि विभिन्न देवता राजा के शरीर में प्रविष्ट होते हैं। इस प्रकार राजा स्वयं महान् देवता बन जाता है।

मनुस्मृति” में राजा के गतिशील जीवन की चर्चा की गई है। इस में राजा को सदैव सजग और सावधान रहने की आशा की जाती है। मनुस्मृति में युद्ध के समय राजा के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। इस में स्पष्ट किया गया है कि युद्ध के समय राजा को भयभीत नहीं होना चाहिए और पूरी तैयारी और मनोबल के साथ शत्रु का संहार करना चाहिए।

मनुस्मृति वैसे तो कई गुणों के बारे में बताया गया है पर उनमें से मुख्य गुण… कोई भी व्यक्ति राजा या राजसभा का सभासद तब ही बन सकता है जब वह तीनों विद्याओं का ज्ञाता हो, यानी चारों वेद, कर्म, उपासना और ज्ञान का पंडित हो। तीनों विद्या, सनातन, दंडनीति, न्यायप्रिय और प्रजा से बात करने की कला आदि गुणों में पारंगत होना चाहिए।

इंद्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चंद्रमा और कुबेर के सभी सारभूत गुणों को निकाल कर इन की स्वाभाविक मात्राओं यानी अंशों का सार लेकर इन दिव्य गुणों से राजा का निर्माण किया।

राजा के लिए सृष्टि के आरंभ में ही ईश्वर ने सभी प्राणियों की रक्षा करने वाले ब्रह्मतेजोमय, शिक्षाप्रद और अपराधनाशक गुण वाला होना चाहिए।

मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राजधर्म का प्रतिपादन करते हुए राज्य की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था बड़ी भयंकर थी, उस समय न राज्य था और न ही राजा था और इनके अभाव में दण्ड- व्यवस्था का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। राज्य के अभाव में सर्वत्र अन्याय, अराजकता, असंतोष, अव्यवस्था का वातावरण बना हुआ था। अर्थात् मत्स्य न्याय की स्थिति व्याप्त थी।

राजा की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त को प्रामाणिक रूप देने के लिए मनु ने यहां तक कहा है कि राजा आठ लोकपालों के अन्न तत्त्वों से निर्मित हुआ है। जिसके फलस्वरूप उस में देवीय गुण एवं शक्ति का समावेश हुआ है। ईश्वर ने समस्त संसार की रक्षा के लिए निर्मित वायु, यम, वरुण, सूर्य, अग्नि, इन्द्र तथा कुबेर के सर्वोत्तम अंशों के संयोग से राजा का निर्माण किया है अर्थात् इन्द्र से प्रभुत्व, सूर्य से प्रताप, यम से क्रोध, कुबेर से धन और चन्द्रमा से आनन्द प्रदान करने का गुण लेकर राजा के शरीर का निर्माण हुआ है।

वेदों के अनुसार भी राजा को स्वयं इन्द्र समझना चाहिए और उसका इन्द्र के ही समान आदर करना चाहिए।

प्राचीन भारत में राजा को देवांश माना जाता था, अर्थात् राजा की उत्पत्ति विभिन्न देवों के अंश से हुई है। इस सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद और यजुर्वेद आदि वैदिक साहित्य, ब्राह्मण ग्रन्थों, स्मृति साहित्य, महाभारत और प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है।

मत्स्य पुराण में उल्लेख है कि ब्रह्मा ने राजा की सृष्टि की जिससे कि वह सभी प्राणियों की रक्षा कर सके।

इसी प्रकार प्रजा की रक्षा करने वाला शासक राजा होता है, वो प्रजा की खुशहाली के लिये नियम बनाता है एवम प्रजा में धर्म के अनुसार कार्य हो, इस का नियमन करता है। इसलिये प्रजा के प्रति प्रतिबद्ध होता है। कहते है राजा हरिश्चन्द्र की परीक्षा के बाद जब उन्हें स्वर्ग चलने को कहा तो उन्होंने कहा जब तक मेरी पूरी प्रजा नहीं जाती, मै नही जा सकता। इस प्रकार वो प्रजा सहित ही स्वर्ग गए। इसलिये अपनी प्रजा के कल्याण को समर्पित राजा को परमात्मा ने कहा कि वो मैं ही हूँ।

क्योंकि राजा में देव का अंश माना जाता है। इसलिये प्रजा का शोषण करने वाले अधिपति आज के युग मे नेता कभी राजा नहीं कहे जा सकते, यह लोग स्वार्थी, व्यभिचारी ही है क्योंकि परमात्मा ने दमन या अत्याचार के बल पर राजा बने रावण या कंस को अपना स्वरूप नही कहा। राजा कर्तव्यनिष्ठ दैवीय गुण का प्रतीक है, किसी आसुरी वृति के षटयन्त्र का नही।

परमात्मा ने श्रेष्ठ तीन उदाहरण अद्वितीय, बल, गति, नियमित, दैवीय गुण एवम प्रतिबद्धता तो सामने रख कर उस के स्वरूप को अपना बताया। अश्व एवम हाथी दोनों में स्वामी के प्रति निष्ठा रहती है एवम राजा की अपनी प्रजा के प्रति। यह दृढ़ निष्ठा जो प्राणों से अधिक प्रिय हो परमात्मा ही है।

विभूति जीव के आकार या योनि पर निर्धारित न करते हुए परमात्मा उस के उच्चतम गुणों को अपना स्वरूप बता रहे है। किसी भी विषय मे श्रेष्ठता को प्राप्त करना ही परमात्मा है। निर्गुणकार को सगुणाकार हम उस के श्रेष्ठ स्वरूप में ही देख सकते है।

विभिन्न विभूतियों माध्यम से भगवान श्री कृष्ण अपने  निर्गुणाकार स्वरूप को अर्जुन के समक्ष सगुणाकार स्वरूप में प्रकट कर रहे है, यह आनंद एवम ज्ञान तभी प्राप्त हो सकता है, जब इसे अत्यंत श्रद्धा, विश्वास, प्रेम के साथ समर्पित भाव से पढ़ा जाए। जब शंका और अहम हो तो प्रेम नही हो सकता। जब तक प्रेम नही हो, हृदय में परमात्मा का स्वरूप समझ मे ही आ सकता, क्योंकि प्रेम से भरे हृदय में ही परमात्मा बसता है।

धर्म, लक्षण और अवस्था यह तीन परिणाम समझ मे आने के लिये धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा मन के विकारों को हटा के, एकत्त्व को प्राप्त किया जाता है, जिस से मनुष्य कालातीत हो कर भूत, भविष्य एवम वर्तमान को देखने लायक हो जाता है। यही वह संयम की अवस्था है जहां शब्द, अर्थ और ज्ञान का अभ्यास होता है। शब्द -अर्थ और ज्ञान का अर्थ यही है कि यदि गौ शब्द कहा जाए तो उस का अर्थ दूध के प्राप्य गौ होना है और ज्ञान यही है कि दूध की आवश्यकता शरीर के लिये आवश्यक है। इसी प्रकार विभूतियों के शब्दों से उस का अर्थ और परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान तभी होगा, जब श्रद्धा, प्रेम और विश्वास से विभूतियों के अर्थ , शब्द और ज्ञान को समझा जाये अन्यथा शब्द, अर्थ और ज्ञान तीनो पृथक पृथक हो कर रह जाते है, हम बस बार बार गीता पढ़ते रहते है।

व्यवहार में आधुनिक युग के राजाओं अर्थात उन श्रेष्ठ लोग उच्च उद्योगपति, नेता और उच्चतम पद पर बैठे अधिकारी को यदि हम देखे तो उन की तुलना हमे उन के लोक कल्याण के लिए किए कार्य से करनी चाहिए। वंश से राजा की पद्धति कभी भी सनातन संस्कृति का हिस्सा नहीं रही। अतः जाति, धर्म और लोभ स्वार्थ पर आधारित जो लोग नेता गिरी कर रहे है वे राज करने योग्य लोग या व्यक्ति नही है। लोकतंत्र में अपने राजा का चयन यदि प्रजा को है तो प्रजा में चयन की क्षमता होना आवश्यक है। अन्यथा सांसारिक मोह, लोभ और स्वार्थ में हम लोग उन्हे राजा चुन लेते है जो सर्वथा अयोग्य होते है।

आगे और विभूतियों में परमात्मा के स्वरूप को पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।।10.27।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

Leave a Reply