।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.21 II
।। अध्याय 10.21 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.21॥
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥
“ādityānām ahaḿ viṣṇur,
jyotiṣāḿ ravir aḿśumān..।
marīcir marutām asmi,
nakṣatrāṇām ahaḿ śaśī”..।।
भावार्थ:
मैं सभी आदित्यों में विष्णु हूँ, मैं सभी ज्योतियों में प्रकाशमान सूर्य हूँ, मैं सभी मरुतों में मरीचि नामक वायु हूँ, और मैं ही सभी नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ। (२१)
Meaning:
Among the Aadityaas I am Vishnu, among the bright objects I am the radiant sun, among the Marutas I am Mareechi, among the stars I am the moon.
Explanation:
Shri Krishna begins enumerating Ishvara’s expressions in this shloka. He begins by saying that among the Aadityaas or the sons of Aditi, he is Vishnu. From the Puranas we learn that Sage Kashyap had two wives— Aditi and Diti. From his first wife, Aditi, he fathered twelve celestial personalities—Dhata, Mitra, Aryama, Shakra, Varun, Amsha, Bhaga, Vivasvan, Pusha, Savita, Twashta, and Vaman. Amongst these, Vaman was the Avatar of the Supreme Lord Vishnu. Thus, Shree Krishna states that amongst the Adityas (twelve sons of Aditi), Vishnu (in the form of Vaman) reveals his opulence.
Next, Shri Krishna says that Ishvara is “Ravi”, the sun, among all the bright objects in the universe. He uses the word “anshumaan” meaning radiant to describe the sun. So, whenever we see the brilliance of the sun, our mind should immediately go towards the might of Ishvara that is shining through the sun.
Then, he comes to the night sky. There is the well- known saying, “One moon is better than a thousand stars.” Shree Krishna says that amongst all the constellations and stars in the night sky, he is the moon because it best reveals his opulence.
There is an episode in the Sunder Kand of the Tulsi Ramayana where Lord Hanumaan was captured bound with ropes in Lanka. Ravan by given punishment, fire the tail of Hanumaan. Since Hanuman is son of Vayu, he untied himself and fired the whole Lanka with the help of mareechi means the one of the airs. The Puranas further relate that Sage Kashyap fathered daityas (demons) from his second wife Diti. However, apart from the daityas, Diti desired to have a son more powerful than Indra (the king of the celestial gods). So, she kept her baby in her womb for a year. Indra then used a thunderbolt and split her fetus into many pieces, but it turned into many fetuses. These became the maruts, or the 49 kinds of winds that flow in the universe, doing tremendous good. The major ones amongst them are Avaha, Pravaha, Nivaha, Purvaha, Udvaha, Samvaha, and Parivaha. The chief wind, known as Parivaha, also bears the name Marichi. Shree Krishna states that his vibhūti (opulence) manifests in the wind called “Marichi.”
Marichi is the dēvathā; who presides over that beautiful breeze which will make us feel very pleasant. Marichi meansstorm:tender beautiful breeze; not the cyclonic storm; that cool breeze which you get in Courtalam and all that places; that cool, gentle pleasant air- conditioning breeze is presided over by Marichi dēvathā; Therefore, Krishna says I am the Marichihi; among the marut ganāḥ.
With these expressions in our mind, we will never be disconnected from Ishvara. In the day, we can look at the sun – it is Ishvara. When the winds blow, it is Ishvara. In the night, the moon is Ishvara.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में आत्मा अर्थात सभी प्ररा प्रकृति के चेतन स्वरूप विभूति में परमात्मा को किस प्रकार देखना चाहिए, इस का अध्ययन किया। अब विभूतियों को जानना शुरू करते है।
फिर उसका वो भाग जो तमस है, हे पवित्र ज्ञान के विद्यार्थियों (ब्रह्मचारी), रूद्र है।
उसका वो भाग जो रजस है, हे पवित्र ज्ञान के विद्यार्थियों, ब्रह्मा है।
उसका वो भाग जो सत्त्व है, हे पवित्र ज्ञान के विद्यार्थियों, विष्णु है।
वास्तव में वो एक था, वो तीन बन गया, आठ, ग्यारह, बारह और असंख्य बन गया।
यह सबके भीतर आ गया, वो सबका अधिपति बन गया।
यही आत्मा है, भीतर और बाहर, हाँ भीतर और बाहर।
—मैत्री उपनिषद का यह श्लोक बतलाता है कि किस प्रकार परमात्मा ने इस जगत का विकास किया। इस के अब हमें अदिति पुराण एवम विष्णु पुराण को भी समझना होगा।व्यवहारिक दृषिकोंण से अणु का विघटन होते होते ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई।
अदिति एक प्रतिष्ठित हिन्दू देवी है। पुराणों के आधार पर वे महर्षि कश्यप की पहली पत्नी थीं। अदिति अपने शाब्दिक अर्थ में बंधनहीनता और स्वतंत्रता की द्योतक है।
कश्यप की पत्नी अदिति के बारह पुत्र धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा एवम विष्णु अर्थात वामन अदिति के पुत्र होने से आदित्य कहलाए। इन सब में विष्णु ने अपने पद एवम ज्ञान की गरिमा को त्याग कर राजा बालि से वामन अवतार अदिति के पुत्र के रूप में ले कर दान के रूप तीन पग में पूरी सृष्टि को नाप कर, उस की सत्ता को ले ली जिसे जन हित मे देवताओ को बांट दिया। अपने अहम एवम कर्तापन को त्याग कर छोटा बन कर भी जनहित में करने के कारण अदिति के पुत्रों में विभूति स्वरूप में परमात्मा ने विष्णु (वामन अवतार) मै (परमात्मा) हूँ, कहा है।
इसी प्रकार स्वर्गलोक की सत्ता के लोभ में दैत्यों और देवों में शत्रुता हो गई। दैत्यों और देवों के परस्पर युद्ध आरम्भ हो गये। एक समय दोनों पक्षों में भयङ्कर युद्ध हुआ। अनेक वर्षों तक वो युद्ध चला। उस युद्ध में देवों का दैत्यों से पराजय हो गया। सभी देव वनो में विचरण करने लगे। उनकी दुर्दशा को देखकर अदिति और कश्यप भी दुःखी हुए। पश्चात् नारद मुनि के द्वारा सूर्योपासना का उपाय बताया गया। अदिति ने अनेक वर्षों पर्यन्त सूर्य की घोर तपस्या की। सूर्य देव अदिति के तप से प्रसन्न हुए। उन्होंने साक्षात् दर्शन दिये और वरदान माँगने को कहा। अदिति ने सूर्य की स्तुति करते हुए वरदान माँगा कि – “आप मेरे पुत्र रूप में जन्म लेवें”। कालान्तर में सूर्य का तेज अदिति के गर्भ में प्रतिष्ठित हुआ । किन्तु एक बार क्रोध में कश्यप अदिति के गर्भस्थ शिशु को “मृत” शब्द से सम्बोधित कर बैठे। उसी समय अदिति के गर्भ से एक प्रकाशपुञ्ज बाहर आया। उस प्रकाशपुञ्ज को देखकर कश्यप भयभीत हो गये। कश्यप ने सूर्य से क्षमा याचना की। तब ही आकाशवाणी हुई कि – “आप दोनों इस पुञ्ज का प्रतिदिन पूजन करें। उचित समय होते ही उस पुञ्ज से एक पुत्ररत्न जन्म लेगा। वो आप दोनों की इच्छा को पूर्ण करके ब्रह्माण्ड में स्थित होगा। समयान्तर में उस पुञ्ज से तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ। वही “आदित्य” या “मार्तण्ड” नाम से विख्यात है। आदित्य का तेज असहनीय था। अतः युद्ध में दैत्य आदित्य के तेज को देखकर ही पलायन कर गये। सर्वे दैत्य पाताललोक में चले गये। अन्त में आदित्य सूर्यदेव स्वरूप में ब्रह्माण्ड के मध्यभाग में स्थित हुए और ब्रह्माण्ड का सञ्चालन करते हैं।
ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं में सूर्य सबसे अधिक दीप्तिमान होता है। रामचरित्मानस में वर्णन है “राकापति शोरस उनहिं तारागन समुदाइ। सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ।।“ “रात्रिकाल में आकाश के सभी तारों और चन्द्रमा सहित सभी दीपक मिलकर भी अंधकार को मिटाने के लिए पर्याप्त नहीं होते। लेकिन जिस क्षण सूर्योदय होता है उसी क्षण रात्रि समाप्त हो जाती है।” सूर्य, चंद्रमा, तारे, बिजली और अग्नि आदि जितने भी प्रकाशवान प्रधान है उस मे सूर्य का प्रकाश सब से तेज एवम बिना भेदभाव का है और जीवन के लिये उपयोगी भी। इसलिये परमात्मा कहना है, वह सूर्य मै हूँ।
तब फिर वे आगे रात्रि के आकाश का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं-“एक चन्द्रमा हजारों तारों से श्रेष्ठ है।” श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे रात्रि के आकाश में सभी नक्षत्रों और तारों के बीच चन्द्रमा हैं क्योंकि चन्द्रमा उनके वैभव को सर्वोत्तम ढंग से प्रकट करता है। अश्विनी, भरणी एवम कृतिका आदि 27 नक्षत्र होते है, चंद्रमा इस नक्षत्र मंडल का अधिपति है। इस को शशि इसलिये कहा गया कि अमृत वितरण में यह समय पर नही पहुँचे और अमृत वितरण हो गया। वही चंद बूंदे अमृत की पड़ी थी जिसे खग अर्थात खरगोश या शशि ने चाट ली। शशि को अमृत चाटते देख चंद्रमा ने शशि को ही निगल लिया, इसलिये चंद्र को शशी कहते है और इस के मध्य में शशि द्वारा अमृत चाटने से शशि भी अमर हो कर दिखता है। यह समय पर सही तरीके से काम नही करने को बताता है, बिना विचार समझे भोजन नही ग्रहण करने को भी दर्शाता है। वह नक्षत्र पति शशी मै हूँ।
मरीचि अर्थात वायु के प्रचंड वेग एवम प्रभाव को ले कर इस में दो कथाएं है दक्ष कन्या मरुतवती (दिति) के 49 पुत्र मरुत कहलाये। इन सब के तेज को सम्मलित नाम मरीचि माना गया। यह समस्त नाम विभिन्न प्रकार की वायु के वेग के है। अतः जो सभी में सामूहिक वायु का वेग या तेज होता है वो मरीचि मै हूँ।
अन्य कथा में कश्यप की द्वितीय पत्नी दिति के पुत्रों को जब अदिति पुत्रो ने मार डाला तो दिति ने कश्यप की सेवा से इंद्र का वध कर सके ऐसा पुत्र का वरदान मांगा। इस को गर्भ में 100 साल रखना था किंतु इंद्र ने इसे गर्भ में ही नष्ट करने हेतु 7*7 टुकड़े कर दिए। किन्तु गर्भ फिर भी नही नष्ट हुआ। क्योंकि गर्भ में टुकड़े करते समय इंद्र “मत रो” बोल रहे थे इसलिये वेगवान देवता मरुत पैदा हुए। वे सब 59 मरूत अर्थात ब्रह्मांड में प्रवाहित होने वाली वायु बन गये। इन में से सब से मुख्य- अवाह, प्रवाह, निवाह, पूर्वाह, उद्वाह, संवाह, परिवाह हैं। सबसे प्रमुख वायु को ‘परिवाह’ के नाम से जाना जाता है और इसे ‘मरीचि’ भी कहा जाता है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनका वैभव ‘मरीचि’ नामक वायु में प्रकट होता है। मरुत अर्थात मरीचि अर्थात वायु वो वेगवान देवता, जो भगवद ध्यान रूप व्रत के तेज से उत्पन्न है, जिस को कोई नष्ट नही कर सकता वो शक्तिशाली पवन के वेग परमात्मा ही है अर्थात मै हूँ। मरीचि मंद मंद सुगंधित बहने और मन को शांति प्रदान करने वाली वायु को भी कहते है।
एक शङ् का हो सकती है कि भगवान् ने गीता में जगह- जगह कामना का निषेध किया है, फिर वे स्वयं अपने में कामना क्यों रखते हैं? इसका समाधान यह है कि वास्तव में अपने लिये भोग, सुख, आराम आदि चाहना ही ‘कामना‘ है। दूसरों के हित की कामना ‘कामना‘ है ही नहीं। दूसरोंके हित की कामना तो त्याग है और अपनी कामना को मिटाने का मुख्य साधन है। इसलिये भगवान् सब को धारण करने के लिये आदर्श रूप से कह रहे हैं कि जैसे मैं हित की कामना से कहता हूँ, ऐसे ही मनुष्य मात्र को चाहिये कि वह प्राणि मात्र के हित की कामना से ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करे। इससे अपनी कामना मिट जायगी और कामना मिटने पर मेरी प्राप्ति सुगमता से हो जायगी। प्राणिमात्र के हित की कामना रखने वाले को मेरे सगुण स्वरूप की प्राप्ति भी हो जाती है और निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति भी हो जाती है।
हमारे पुराणों में भगवान के संकल्प के रूप में विस्तृति होती ब्रह्माड की अनेक कथाएं है, जिस से हमे ज्ञात होता है वह एक से अनेक किस प्रकार सत-रज-तम गुणों के साथ अनेक होता है। क्योंकि परमात्मा सत-रज-तम गुणों से परे है और सत गुण ही परमात्मा के निकट है, जिस विभूति में सात्विक गुण की अधिकता लोककल्याण हेतु अधिक होगी उस मे परमात्मा की विभूति को समझने से हम भी उस सात्विक गुणों की बढ़ते है। ज्ञान, दान और आश्रय सामर्थ्यवान से प्राप्त होने से ही विकास सम्भव है। इसलिये समस्त विभूतियों में अपने को पूर्व श्लोक में बतलाने के बाद अब श्रेष्ठतम विभूति में उस को बतलाने की बात कहते है।
इस प्रकार त्याग, नम्रता, तेज, बल एवम विवेक के स्वरूप विभूतियों को परमात्मा बताया गया है। यहां वामन अवतार विष्णु, सूर्य, वायुदेवता मरीचि एवम चन्द्र को विभूति में हम परमात्मा के स्वरूप का चिंतन कर रहे है, विभूति के व्यक्तिगत स्वरूप का नहीं, इसलिये जब भी विभूति में कोई भी सात्विक गुण दिखे तो उस मे परमात्मा को ही देखना चाहिए।
।। हरि ॐ तत सत।। 10.21।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)