।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.20 II
।। अध्याय 10.20 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.20॥
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥
“aham ātmā guḍākeśa,
sarva- bhūtāśaya- sthitaḥ..।
aham ādiś ca madhyaḿ ca,
bhūtānām anta eva ca”..।।
भावार्थ:
हे अर्जुन! मैं समस्त प्राणीयों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ और मैं ही सभी प्राणीयों की उत्पत्ति का, मैं ही सभी प्राणीयों के जीवन का और मैं ही सभी प्राणीयों की मृत्यु का कारण हूँ। (२०)
Meaning:
I am the self, established in the hearts of all beings, O Gudakesha. I am the beginning, middle and also the end of all beings.
Explanation:
Addressing Arjuna as Gudaakesha, the conqueror of sleep, Shri Krishna begins to describe the 82 expressions of vibhootis of Ishvara from this shloka onwards. He lists the two most important ones first.
caitanyam is the fundamental glory and nature of God; because that caitanyam alone makes the entire living beings, species alive; If a plant is alive; animal is alive, if a human being is alive; and capable of discussing this topic, it is only because of caitanyam; Every organ is an organ only because of sentiency; and that sentiency is my gift because I am caitanya svarūpaḥ; chidrūpaḥ.
Shree Krishna declares that he is not far from the soul—in fact he is closer than the closest. The ātmā or eternal soul is enthroned in the etheric heart of all living beings. The Vedas state: ya ātmani tiṣhṭhati “God is seated within our soul.” Seated inside, he grants the power of consciousness and eternality to the soul. If he were to subtract his power, our soul itself would become insentient and perish. We souls are thus eternal and sentient, not by our own power, but because the supremely sentient and eternal God is seated within and is granting his powers to us. Hence, Shree Krishna declares that he is situated in the heart of all living beings.
He says that Ishvara is the self, the “I” that is in the hearts of every being in the universe. Ishvara is also the start, middle and end of all beings in the universe.
So, what exactly does “self” mean? Let us try to understand its opposite meaning first. When we treat a thing or a person as something different from us, something external to us, then we are creating a subject- object relationship where the subject is our “I” and the object is “him” or “her”.
For instance, if we take an acquaintance out to dinner, for example, we may ask him to pay his bill separately. There is a sense of separateness between us and the acquaintance. Separating, externalizing, objectifying – all this is the opposite of self- hood.
But if we take our spouse or our child to dinner, we don’t even think twice to pay for their dinner. This is because we do not consider a spouse or a child different or external to us. The sense of self- hood is greater here than with a stranger or with an acquaintance. Shri Krishna says that when this sense of selfhood expresses itself in our hearts, we should know that it is Ishvara’s primary expression. If we can remember this constantly, if we can treat everything and everyone as no different than ourselves, we do not have to remember any other expression of Ishvara. We are done.
So, what is the practical implication of understanding Ishvara in this manner? Our sense of I- ness and my- ness automatically drops. There will be nothing in us that asserts “my will”, “my plan”, “my thinking”, “I am going to do this” and so on. It will all become Ishvara’s will, Ishvara’s plan, Ishvara’s thinking, Ishvara’s doing. All worries and anxieties will disappear because the “I” who worries is no longer present.
If we are not able to comprehend Ishvara as our own self, then Shri Krishna provides another expression of Ishvara. He says that we should think of Ishvara as the one who creates, sustains, and dissolves all the names and forms in the universe, just like the ocean creates, sustains and dissolves all waves. If we can think in this manner, Ishvara becomes all-pervading, ever present at all times.
Shree Krishna further states that he is the beginning, middle, and end of all living beings. They have emanated from him, and so he is their beginning. All life that exists in creation is sustained by his energy, and so he is the middle. And those who attain liberation go to his divine abode to live eternally with him. Hence, God is also the end of all living beings.
Now, thinking Ishvara as the self, or as the beginning, middle and end of all beings, is difficult when we are beginners. For most of us, it is easier to see Ishvara in tangible people and objects. We will see those types of expressions in the following shlokas.
।। हिंदी समीक्षा ।।
वैज्ञानिक विचारपद्धति से शोधकार्य करने का एक सुप्रशिक्षित प्राध्यापक, अनुसंधान के अपने प्रिय विषय की चर्चा का प्रारम्भ एक संक्षिप्त व सारपूर्ण कथन के साथ करता है। तत्पश्चात् वह उस विषय का विस्तार से विचार कर के युक्तियुक्त विवेचन के द्वारा अन्त में उसी प्रारम्भिक कथन के निष्कर्ष पर पहुँचता है। परमात्मा अपनी विभूतियों को बताने से पहले उस को समझने की विधि बताते है। वार्तालाप का सब से बड़ा सिंद्धान्त यही है कि वक्ता एवम श्रोता की मानसिक स्थिति एक सी हो एवम वह उस को उसी प्रकार समझे जैसे बोला जा रहा है। भगवान श्री कृष्ण कुशल प्रवक्ता है एवम अर्जुन श्रद्धानत श्रोता, इसलिये यह स्पष्टीकरण आवश्यक भी है। अतः किसी भी प्रकार का संशय न हो, विभूतियों का वर्णन अपने जगत की उत्पत्ति के सिंद्धान्त संकल्प -विकल्प से करते है। इसलिये पूरे ब्रह्मांड में समस्त भूतो में आत्मतत्व रूप में परमात्मा ही उपस्थित है।
विभूतियों के वर्णन में प्रथम विभूति यही चेतन अर्थात आत्मा है, जो हमे हमारे होने का बोध कराती है, जिस के माध्यम से हम संसार मे रह कर संसार मे विभिन्न प्राणियों से व्यवहार करते है। इस संसार मे जन्म, मृत्यु, वृद्धि, क्षय आदि से हर प्राणी को गुजरना पड़ता है। यह चेतन अवस्था जिस से हम ज्ञान भी प्राप्त करते है, परमात्मा की सर्वाधिक व्याप्त महत्वपूर्ण विभूति है। जिसे आत्मा भी कहा जाता है।
भगवान् का चिन्तन दो तरह से होता है (1) साधक अपना जो इष्ट मानता है, उसके सिवाय दूसरा कोई भी चिन्तन न हो। कभी हो भी जाय तो मन को वहाँ से हटाकर अपने इष्टदेव के चिन्तन में ही लगा दे और (2) मन में सांसारिक विशेषता को लेकर चिन्तन हो, तो उस विशेषता को भगवान् की ही विशेषता समझे। इस दूसरे चिन्तन के लिये ही यहाँ विभूतियों का वर्णन है। तात्पर्य है कि किसी विशेषतो को लेकर जहाँ कहीं वृत्ति जाय, वहाँ भगवान् का ही चिन्तन होना चाहिये, उस वस्तु व्यक्ति का नहीं। इसी के लिये भगवान् विभूतियों का वर्णन कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि वे आत्मा से दूर नहीं हैं बल्कि वास्तव में वे आत्मा के निकट से निकटस्थ हैं। आत्मा या शाश्वत आत्मा सभी जीवों के ईश्वरीय हृदय में स्थित है। वेदों में वर्णन है-“य आत्मनि तिष्ठति” अर्थात “भगवान हम सभी जीवों की आत्मा में स्थित हैं।” वे भीतर बैठकर आत्मा को चेतना शक्ति और अमरता प्रदान करते हैं। यदि वे अपनी शक्तियों को कम कर दें, तब हम आत्माएँ जड़वत् और नष्ट हो जाएगी। इसलिए हम जीवात्माएँ अपनी स्वयं की शक्ति से अविनाशी और चेतन नहीं होती अपितु परम चेतन और अविनाशी भगवान की कृपा से चेतन रहती हैं इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सभी जीवों के हृदय में रहते हैं। हमारी आत्मा भगवान का शरीर है जो सब आत्माओं की आत्मा अर्थात परमात्मा हैं। श्रीमद्भागवतम् में भी ऐसा वर्णन किया गया है हरिर्हि साक्षाद्भगवान् शरीरिणा। मात्मा झषाणामिव तोयमीप्सितम्।।(श्रीमद्भागवतम्-5.18.13) “भगवान सभी जीवों की आत्मा की आत्मा है।”
यहाँ भगवान् ने अपनी सम्पूर्ण विभूतियों का सार कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में मैं ही हूँ। यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्ति विनाशशील होती है, उसके आरम्भ और अन्त में जो तत्त्व रहता है, वही तत्त्व उस के मध्य में भी रहता है (चाहे वह दीखे या न दीखे) अर्थात् जो वस्तु जिस तत्त्व से उत्पन्न होती है और जिस में लीन होती है, उस वस्तु के आदि, मध्य और अन्त में (सब समय में) वही तत्त्व रहता है। जैसे, सोने से बने गहने पहले सोना रूप होते हैं और अन्त में (गहनों के सोने में लीन होने पर) सोनारूप ही रहते हैं तथा बीच में भी सोना रूप ही रहते हैं। केवल नाम, आकृति, उपयोग, माप, तौल आदि अलग अलग होते हैं और इन के अलग अलग होते हुए भी गहने सोना ही रहते हैं।
वेदों में प्रदत्त भगवान की विभिन्न परिभाषाओं में से एक वर्णन इस प्रकार है।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति ।यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। (तैत्तरीयोपनिषद-3.1.1) “भगवान वह है जिससे सभी जीवों की उत्पत्ति हुई है। भगवान वह है जिसमें सभी जीव स्थित हैं। भगवान वह हैं, जिसमें सभी जीव लीन हो जाएंगे।”
ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी आदि में भी परमात्मस्वरूप थे और अन्त में लीन होने पर भी परमात्मस्वरूप रहेंगे तथा मध्य में नाम, रूप, आकृति, क्रिया, स्वभाव आदि अलग अलग होने पर भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप ही हैं। यह बताने के लिये ही यहाँ भगवान् ने अपने को सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य और अन्त में कहा है।भगवान् ने विभूतियों के इस प्रकरण में आदि, मध्य और अन्त में , तीन जगह साररूप से अपनी विभूतियों का वर्णन किया है।
इसी विभूति को बार बार कहा गया, क्योंकि यह परमात्मा और जीव के विषय की बीज विभूति है। पहले इस बीसवें श्लोक में भगवान् ने कहा कि सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य और अन्त में मैं ही हूँ बीच के बत्तीसवें श्लोक में कहा कि सम्पूर्ण सर्गों के आदि, मध्य और अन्त में मैं ही हूँ और अन्त के उनतालीसवें श्लोक में कहा कि सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ क्योंकि मेरे बिना कोई भी चरअचर प्राणी नहीं है। चिन्तन करने के लिये यही विभूतियों का सार है। तात्पर्य यह है कि किसी विशेषता आदि को ले कर जो विभूतियाँ कही गयी हैं, उन विभूतियों के अतिरिक्त भी जो कुछ दिखायी दे, वह भी भगवान् की ही विभूति है। यह बताने के लिये भगवान् ने अपने को सम्पूर्ण चराचर प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में विद्यमान कहा है। क्योंकि मैं ही सब भूतों का आदि, मध्य और अन्त हूँ अर्थात् उनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप मैं ही हूँ। तत्त्व से सब कुछ परमात्मा ही है। इस लक्ष्यको बतानेके लिये ही विभूतियाँ कही गयी हैं।
जो तत्त्व आदि और अन्त में होता है, वही तत्त्व बीच में होता है। अन्त में उन्तालीसवें श्लोक में भगवान् ने बीज (कारण) रूप से अपनी विभूति बतायी कि मैं ही सब का बीज हूँ, मेरे बिना कोई भी प्राणी नहीं है। इस प्रकार इन तीन जगह -तीन श्लोकों में मुख्य विभूतियाँ बतायी गयी हैं और अन्य श्लोकों में जो समुदाय में मुख्य हैं, जिन का समुदाय पर आधिपत्य है जिन में कोई विशेषता है, उन को ले कर विभूतियाँ बतायी गयी हैं। परन्तु साधक को चाहिये कि वह इन विभूतियों की महत्ता, विशेषता, सुन्दरता, आधिपत्य आदि की तरफ खयाल न करे।
प्रत्युत ये सब विभूतियाँ भगवान् से ही प्रकट होती हैं, इन में जो महत्ता आदि है, वह केवल भगवान् की है ये विभूतियाँ भगवत्स्वरूप ही हैं, इस तरफ खयाल रखे। कारण कि अर्जुन का प्रश्न भगवान् के चिन्तन के विषय में है, किसी वस्तु, व्यक्ति के चिन्तन के विषय में नहीं। साधक इन विभूतियों का उपयोग कैसे करे इसे बताते हैं कि जब साधक की दृष्टि प्राणियों की तरफ चली जाय, तब वह सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मारूप से भगवान् ही हैं, इस तरह भगवान् का चिन्तन करे। जब किसी विचारक साधक की दृष्टि सृष्टि की तरफ चली जाय तब वह,उत्पत्ति विनाशशील और हरदम परिवर्तनशील सृष्टि के आदि, मध्य तथा अन्त में एक भगवान् ही हैं इस तरह भगवान् का चिन्तन करे। कभी प्राणियों के मूल की तरफ उस की दृष्टि चली जाय, तब वह बीजरूप से भगवान् ही हैं, भगवान् के बिना कोई भी चरअचर प्राणी नहीं है और हो सकता भी नहीं, इस तरह भगवान् का चिन्तन करे।
परमात्मा को सभी विभूतियों में वही देख सकता है, जो समभाव हो, जिस का कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव नष्ट हो गया हो। अष्टावक्र जी भी राजा जनक से यही कहते हैं कि संकल्प- विकल्प के कारण सृष्टि है, लेकिन आत्मज्ञानी योगी का मन इन संकल्प- विकल्पों से रहित होकर पूर्णतया शान्त हो जाता है, जिससे मन के सभी विक्षेप समाप्त हो जाते हैं। वह सदा एक ही आत्मा का सर्वत्र अनुभव करता हुआ नित्य आत्मानन्द में ही मग्न रहता है , इसलिए उसे बोध- अज्ञान, सुख-दुख आदि का कोई अनुभव नहीं होता है ।।
आत्मतत्व की विभूति के बाद अन्य विभूतियों को पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 10.20।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)