।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.16 II Additional II
।। अध्याय 10.16 II विशेष II
।। चौदह लोक – भुवन ।।विशेष – गीता 10. 16 ।।
वेद, ग्रंथो एवम पुराणों में हमारे ब्रह्मांड के अतिरिक्त 14 लोक ऐसे है, जिन में अन्य लोग रहते है। यह कुछ वैज्ञानिक अन्वेषण के समान भी समझना चाहिए कि जीवन पृथ्वी और सौर मंडल के अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है और उन से संपर्क का माध्यम मानसिक तरंगों को माना गया है। यह ईथर मीडिया का शक्तिशाली स्वरूप है, जिस पर भौतिक यंत्रो से भी अनुसंधान चल रहा है। चौदह भुवन अर्थात लोक, उनके देवी देवताओं के रचयिता एवम उन से परे परब्रह्म के बारे में हम ने पढ़ा। परमात्मा ने यह भी कहा कि कुछ ज्ञानी अज्ञान के कारण कामना करते हुए स्वर्ग आदि के सुख भोग के लिये उन की आराधना करते है, उन की कामना की पूर्ति भी मेरे द्वारा निमित देवताओ से मैं ही करता हूँ। अतः यह चौदह लोक को भी हम जानने का प्रयास करते है जिस में पृथ्वी सातवे नम्बर पर है।
आधुनिक विज्ञान जैसे जैसे आकाशगंगा और ब्रह्मांड की विभिन्न परतों को प्राप्त कर रहा है तो उसे विभिन्न आकाशगंगा, ब्लैक होल और सौरमंडल के विषय में पता चल रहा है। यह विभिन्न स्थान की दूरी सनातन धर्म के विभिन्न लोकों की दूरी से भी मिलती है, जो यह सिद्ध करता है कि विभिन्न लोक कोरी कल्पना नहीं हो कर, उस काल के ब्रह्मांड का अध्ययन ही है।
विष्णु पुराण के अनुसार लोकों या भुवनों की संख्या 14 है। इनमें से सात लोकों को ऊर्ध्वलोक व सात को अधोलोक कहा गया है। सात ऊर्ध्वलोकों का विवरण निम्न है।
(1) सत्यलोक (ब्रह्म लोक) – यह लोक तपलोक से बारह करोड़ योजन ऊपर है। यहाँ ब्रह्मा जी निवास करते हैं अतः इसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं। सर्वोच्च श्रेणी के ऋषि मुनि यहीं निवास करते हैं जिन्होंने बहुत तप एवम सत कर्म से यहाँ स्थान बनाया है।इस कि आयु मानवीय गणना में सर्वाधिक है।
(2) तपलोक– यह लोक सत्य लोक से 12 करोड़ योजन पर स्थित है। इस लोक में ब्रह्मा के मानस पुत्र सनथ, सनक, सनन्दन एवम सनातन निवास करते है, जिन की शारीरिक अवस्था 5 वर्ष के बालक की है। ये प्रवचन, भजन और तप में लीन रहते है और अपने तप से विभिन्न लोको में विचरण करते रहते है। इन्हें भगवान विष्णु का अवतार भी माना जाता है, इसलिये वैकुंठ तक यह लोक आते जाते रहते है। यह अनीश्वर है अर्थात मृत्यु से परे है। वैकुंठ भगवान विष्णु का निवास माना गया है।
(3) जनकलोक – यह लोक तप से आठ करोड़ योजन दूर है। यहाँ वैराज नाम के देवता निवास करते हैं।
(4) महर्लोक- यह लोक जनक लोक से दो करोड़ योजन दूर है। यहाँ भृगु आदि सिद्धगण निवास करते हैं। यहां के ऋषिगण भी किसी भी लोक में आ-जा सकते है। तप, कर्म एवम ज्ञान के आधार पर ऋषि- मुनि को कौन सा लोक मिलेगा, यह तय होता है।
(5) स्वर्लोक (स्वर्ग लोक) सूर्य से लेकर ध्रुवमण्डल तक जो प्रदेश है उसे स्वर्लोक कहा गया है। इस क्षेत्र में इन्द्र आदि स्वर्गवासी देवता निवास करते हैं। यहाँ में रहने वाले मुख्य 33 देवता है जिन के प्रमुख इंद्र है, यह लोग गंधर्व, अप्सरा, मारुस, वासस, देवदत्त और अन्य दिव्य शक्तियों के साथ रहते है। यहां पर अकल्पनीय धन, इच्छा की पूर्ति करने वाले पेड़, ब्रह्मांड में घूमने के जहाज, विभिन्न आयामो में यात्रा करने की क्षमता, लम्बा निरोगी जीवन उपलब्ध है। यहां की राजधानी अमरावती है। कामधेनु गाय, सफेद हाथी ऐरावत और उड़ने वाला घोड़ा उच्चरेवा – समुन्दर मंथन के बाद जो देवताओ को मिला था, वह यही है।
(6) भुवर्लोक- पृथ्वी से लेकर सूर्य तक अन्तरिक्ष में जो क्षेत्र है वह भुवर्लोक कहा गया है। उसमें अन्तरिक्षवासी देवता निवास करते हैं। इन मे रहने वाले देवी देवता, ऋषि-मुनि स्वर्ग और पृथ्वी दोनो जगह विचरण करते है। अपने पूण्य खत्म होने से पृथ्वी लोक में आ जाते है। भुवरलोक में आठ लोक माने जाते है।
* ध्रुव लोक – यह आकाश गंगा के मध्य का भाग है।
* सप्तऋषि लोक
* नक्षत्र लोक
* शोर मंडल
* सूर्यलोक
* चन्द्रलोक
* राहुकेतु लोक
* अंतरिक्ष लोक – यह आकाश लोक पृथ्वी के कुछ ही ऊपर है, यहां यक्ष – भूत- पिचास का निवास होता है।
(7) भूलोक– वह लोक जहाँ मनुष्य पैरों से या जहाज, नौका आदि से जा सकता है। अर्थात हमारी पूरी पृथ्वी भूलोक के अन्तर्गत है। जन्म-मरण, कर्म एवम कर्मफल, पाप-पुण्य एवम मुक्ति के तप आदि का अधिकार इसी लोक में है। अर्थात अन्य सभी लोक कर्मो के भोग के लिये है, किन्तु कर्म करने का अधिकार इसी लोक में रहनेवालो को है। इस मे प्रकृति योगमाया से अपने सत-रज-तम गुण से जीवात्मा के कार्य-कारण के नियम से क्रिया करती है। आदि आदि।
जिस तरह से ऊर्ध्वलोक हैं उसी तरह से सात अधोलोक भी हैं जिन्हें पाताल कहा गया है। इन सात पाताल लोकों के नाम निम्न हैं।
(8) अताल- यह हमारी पृथ्वी से दस हजार योजन की गहराई पर है। इसकी भूमि शुक्ल यानी सफेद है। यहां का राजा बालासुर है जो माया का पुत्र है और 96 तरह की माया रच कर रहता है।
(9) विताल- यह अतल से भी दस हजार योजन नीचे है। इसकी भूमि कृष्ण यानी काली है। यहां भगवान शिव के रूप स्वरूप में हटकेश्वर अपने पार्षद भूतो के साथ रहते है। यहां हटकी नाम की सोने की नदी बहती है। रहने वाले स्वर्ण से सजे सँवरे रहते है।
(10) सुताल- यह विताल से भी दस हजार योजन नीचे है। इसकी भूमि अरुण यानी प्रातःकालीन सूर्य के रङ्ग की है। यहां प्रह्लाद के पौत्र बलि का राज है। सुताल का निर्माण विश्कर्मा ने किया है, एवम बलि सब से पवित्र राक्षस माने गए थे, जिन्हें भगवान विष्णु ने वामन अवतार में दान में तीन पग जमीन मांग कर सुताल भेज दिया था। राजा बलि को विष्णु से वर्ष में एक दिन समस्त लोक के राजा भी होने का वरदान है।
(11) तलताल – यह सुताल से भी दस हजार योजन नीचे है। इसकी भूमि पीत यानी पीली है। यहां असुर माया का राज है। ये असुरो के वास्तुकार भी माने जाते है, इन को जादूगरी का गहन ज्ञान है, इस लिये इन के ज्ञान को मायाजाल भी कहते है।
(12) महाताल- तलताल से यह दस हजार योजन नीचे है। इसकी भूमि शर्करामयी यानी कँकरीली है। कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उत्पन्न अनेक सर वाले सर्प यहाँ निवास करते है, उन में खुक, तक्षक, कालिया, सुसील आदि नाग प्रसिद्ध है।
(13) रसताल- यह महताल से दस हजार योजन नीचे है। इसकी भूमि शैली अर्थात पथरीली बतायी गयी है। यह राक्षसों का मुख्य घर माना गया है, यहां से शक्तिशाली दानव और दैत्य देवताओ से दुश्मन ही हुए और उन का देवताओ से युद्ध होता ही रहता है।
(14) पाताल- यह रसताल से भी दस हजार योजन नीचे है। इसकी भूमि सुवर्णमयी यानी स्वर्ण निर्मित है। यहां पर सैन्य, कुलिक, महासेनया, सोहित, धनंजय, धृतराष्ट्र, संगसूर, कंपल, अख्तर और देवदत्त आदि अति क्रोधित स्वभाव वाले बड़े बड़े फन्न वाले नाग रहते है, जिन के राजा वासुखि है और यहां की राजधानी का नाम भोगवती है। इस मे मस्तक में मणिया होने से सूरज की रोशनी न होने पर भी खूब प्रकाश रहता है। ऐसा माना गया है कि पाताल लोक स्वर्ग से भी सुंदर , नदियों से भरपूर, सरोवर आदि से भरापूरा है।
इस सब के अतिरिक्त दो और लोक माने गए है
1 – पितृ लोक – जिस में मनुष्य के पूर्वज रहते है। जो आत्माये पवित्र होती है, उन्हें पितृ कहते है।
2. नर्क लोग (यमलोक) यहाँ जीव को उस के पापो की सजा देने का कार्य होता है, सूर्य पुत्र यम यहां का कार्यभार चित्रगुप्त की मदद से संभालते है। प्रत्येक जीव के कर्मो का लेखा जोखा चित्रगुप्त जी रखते है। जीवात्मा अपने पापों को भोग कर या तो पूण्य के अनुसार अन्य लोक जाती है या पृथ्वी में पुनः जन्म लेती है।
गीता अध्ययन में समस्त लोको की जानकारी विभूतियों को समझने में मदद करती है, क्योंकि प्रत्येक लोक में निवास जीव के कर्मो के फल के अनुसार है, और अपने पाप या पूण्य के फलों को भोगने के बाद जीव को मोक्ष की प्राप्ति के लिये पृथ्वी पर वापस आना ही पड़ता है। क्योंकि मोक्ष का मार्ग पृथ्वी से ही प्राप्त होता है, इसलिये मनुष्य जन्म दुर्लभ है और समस्त देवी देवता इस के लिये तरसते है। किंतु दुर्भाग्य से मनुष्य इस बात को नही समझता और कर्तृत्त्व और भोक्तत्व भाव मे फस कर पुनः कर्मफलों को भोगने के लिये तैयार होता है, जब कि उस को निष्काम भाव से कर्म करते हुए, ज्ञान द्वारा मोक्ष को प्राप्त करना चाहिये।
विचारणीय बात यह भी है हजारो साल पहले वैदिक संस्कृति को पूर्ण ब्रह्मांड एवम उससे पर का ज्ञान कोरी कल्पना नही था। आज जब भौतिक विज्ञान इन तथ्यों को खोज भी पा रहा है तो उस मे हमारे वैदिक ग्रंथो के अध्ययन से उन्हें पूरी जानकारी और मदद भी मिलती है। जिसे हम भूलते और भौतिकवाद में अविश्वनीय मान रहे है।
।। हरि ॐ तत सत।। विशेष गीता 10.16 ।।
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