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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.16 II

।। अध्याय      10.16 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 10.16

स्वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।

याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥

“vaktum arhasy aśeṣeṇa,

divyā hy ātma-vibhūtayaḥ..।

yābhir vibhūtibhir lokān,

imāḿs tvaḿ vyāpya tiṣṭhasi”..।।

भावार्थ: 

हे कृष्ण! कृपा करके आप अपने उन अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण स्वरूपों को विस्तार से कहिये जिसे कहने में केवल आप ही समर्थ हैं, जिन ऎश्वर्यों द्वारा आप इन सभी लोकों में व्याप्त होकर स्थित हैं। (१६)

Meaning:

Only you are capable of describing your divine expressions in totality. You are established in the universes by pervading them with these expressions.

Explanation:

Here, Yog refers to Yogmaya (God’s divine power), and yogi refers to the Master of Yogmaya. Arjun has understood that Shree Krishna is Bhagavān. He now wishes to know in what other ways, yet untold, is Shree Krishna’s vibhūti (transcendental majestic opulence) displayed throughout creation. He wishes to hear about Shree Krishna’s eminence and paramount position as the Supreme Controller of all creation.

Arjuna, eager to know the true nature of Ishvara, now understood that Ishvara is not some third party that creates and sustains the universe by standing outside of it. To that end, he acknowledges that Ishvara is part and parcel of the universe by saying that Ishvara has established himself by pervading the entire universe with his manifestations and expressions. It is like saying that the Internet, by pervading our every activity, has established itself in our life.

With this realization, Arjuna begins to request Shri Krishna to give him a detailed understanding of Ishvara’s expressions. Since Ishvara is the origin, the first cause, only Ishvara in the form of Shri Krishna is capable or competent to reveal his true nature to Arjuna.

For example, only a really old person who was alive during the Indian freedom struggle can reveal details to us that we may never hear about or read about anywhere else. Similarly, only Ishvara can reveal his divine opulence and glories. It is said that the Vedas, also known as “shruti”, are the mouthpiece of Ishvara. The Gita has been derived from the Vedas.

Arjuna, having praised Ishvara, now begins asking his question in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

राजपुत्र अर्जुन को इस बात का निश्चय हो गया है कि भगवान् ही विश्व के अधिष्ठान हैं, जिन के बिना विश्व का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। परन्तु जब वह अपने उपलब्ध और परिचित प्रमाणों इन्द्रियों, मन और बुद्धि के द्वारा बाह्य जगत् को देखता है, तब उसे केवल विषयों भावनाओं और विचारों का ही अनुभव होता है जिन्हें किसी भी दृष्टि से दिव्य नहीं कहा जा सकता। विराट् ईश्वर के रूप में भगवान् ही इस नामरूपमय संसार की समष्टि सृष्टि (विभूति) और व्यष्टि सृष्टि (योग) बने हुए हैं। यद्यपि श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय के द्वारा इसे अनुभव किया जा सकता है, परन्तु बुद्धि के तीक्ष्ण होने पर भी उसके द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसलिए, स्वाभाविक ही, अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से उन विभूतियों का वर्णन करने का अनुरोध करता है, जिन के द्वारा वे इस जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं। कर्मशील होने के कारण अर्जुन अत्यन्त व्यावहारिक बुद्धि का पुरुष था इसलिए वह और अधिक पर्याप्त तथ्यों को एकत्र करना चाहता था, जिन पर वह विचार करके और उनका वर्गीकरण कर के उन्हें समझ सके।

अर्जुन परमात्मा की स्तुति करते हुए कहते है कि समस्त लोको में जो तेज, बल, विद्या , ऐष्वर्य, गुण एवम शक्ति आदि जितने भी दिव्य गुण है वो सब आप के स्वरूप या विभूतियां है। इसलिये आप के सिवा दूसरा कोई इन सब को या आप को जानता ही नही, वो इन सब का वर्णन भी नही कर सकता। अतः आप अपने समस्त लोको की उन अद्वितीय विभिन्न विभूतियों का वर्णन मुझे बताए, क्योंकि उन का वर्णन आप ही कर सकते है।

व्यवहार में जो मुफ्त है, उस की कीमत हम नही करते अन्यथा ईश्वर की विभूति में स्वयं मानव के प्रत्येक अंग की कीमत लाखो है किंतु सांसारिक और सामाजिक जीवन में यदि वह अपने शरीर , मन और बुद्धि का सही उपयोग नहीं करता तो गरीब रहता है। ऐसे ही पानी, रोशनी, हवा और भोजन जो प्रकृति देती है उसे हम दिव्य और अदभुत नही समझ पाते, किंतु कोरोना काल में ऑक्सीजन के कारण मरते लोगो ने हवा का महत्व भी समझ लिया होगा। अर्जुन भी भगवान को और अधिक समझने की चेष्टा करना चाहता है, वह प्रकृति, और माया से संग योगी अर्थात उस को नियंत्रित करते भगवान  को देख कर भी, अपनी इच्छा से कुछ ओर समझना चाहता है जिसे वह यहां व्यक्त करता है कि भगवान उसे अपने दिव्य विभूतियों से अवगत करवाएं।

व्यवहार में हम परमात्मा को तब तक समझ नही पाते जब तक वह अभाव के पश्चात ही सीमित रूप में उपलब्ध हो। सीमित का अर्थ है, असाधारण और असामान्य स्वरूप में। अन्यथा परमात्मा तो कण कण में है। अर्जुन भी विशिष्ट विभूति के स्वरूप में परमात्मा को समझना चाहता है, जिस से असामान्य रूप से उपलब्ध परमात्मा अपने अलौकिक स्वरूप में कैसे होंगे। ऐसी विभूतियों से गुणों को जोड़ कर, उन्हे आधार बना कर वह निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और नित्य परमात्मा के स्वरूप को सगुण कर के समझने की चेष्टा करना चाहता है।

भगवान राम जन जन के हृदय में उपलब्ध है किंतु रामलला की प्राण प्रतिष्ठा द्वारा उन के भव्य मंदिर की स्थापना से जो आध्यात्मिक और आत्मिक संतोष मिलता है वह अलौकिक और दिव्य है। ऐसे ही घर में या कहीं भी भगवान के सगुण स्वरूप का दर्शन हम तस्वीर या मूर्ति में कर सकते है किंतु संतुष्टि एवम आत्मिक और आध्यात्मिक संतोष उस के दर्शन विशिष्ट दिन या विशिष्ट स्थान अर्थात तीर्थ या मंदिर में जा कर ही मिलता है।

यजुर्वेद में कहा है कि जो कुछ संसार के अंदर है उस में ईश्वर व्यापक हो कर रहता है। जगत व्याप्य वस्तु है जिस में भगवान व्यापक है। जैसे दूध के बिना मक्खन, तिल के बिना तेल, सेवक के बिना स्वामी एवम धन के बिना धनी नही हो सकता वैसे ही व्यापक के बिना व्याप्य नही हो सकता।

निर्गुण परमात्मा की उपासना फिर भी की जा सकती है किंतु सगुण परमात्मा को बिना जाने भ्रम की स्थिति होती है। अर्जुन इतने वर्षों तक कृष्ण के साथ थे किन्तु वो उसे परमात्मा के रूप में तब तक पहचान न सके जब तक परमात्मा से स्वयं अपने को प्रकट नही किया। अतः जो भक्त परमात्मा के भजन में लीन रहते है वो परमात्मा के स्वरूप अर्थात विभूति को कैसे पहचाने। जब तक परमात्मा का पूर्ण ज्ञान न हो तो कोई भी भक्त को भ्रामित कर सकता है। कोई किसी को और कोई किसी देवी देवताओं को पूजने लग जाता है क्योंकि वो परमात्मा को नही जानता वो अपनी कामना में रहता है इसलिये अपनी आवश्यकता के अनुसार देवी देवता चुन लेता है।

अर्जुन का यह कथन हमे इंकित करता है बिना पूरे विषय को जाने यदि हम कुछ कार्य करते है वो भ्रामित कर सकता है। खाद्य पदार्थ जीवन को ऊर्जा एवम संचालन के लिये होते है। प्रत्येक खाद्य पदार्थ का शरीर की ऊर्जा एवम संचालन में उपयोगिता का ज्ञान एवम उपयोग न मालूम होने से मात्र खाने या स्वाद से जीवन मे सही ऊर्जा एवम संचालन नही होगा एवम आप को लक्ष्य भी नही होगा। परमात्मा की भक्ति करने वाले को परमात्मा की समस्त विभूतियों का ज्ञान हो तो उस की भक्ति अटूट रहेगी। अर्जुन कुशाग्र बुद्धि का था, इसलिये जैसे ही उस का यह भ्रम टूटा की जिसे वो सखा, मित्र मान रहा था वो स्वयं परमात्मा है उस मे परमात्मा से ही उस के दिव्य स्वरूप की समस्त लोको में व्याप्त विभूतियो को बताने की प्रार्थना की। ज्ञानी के सत्संग में जो बातें साधारण तौर पर मिल सकती है, उन पर चर्चा करना, सत्संग का दुरुपयोग है। वास्तविकता में अर्जुन जैसा शिष्य जानता है कि उसे वह ज्ञान प्राप्त करना है, जो अन्य कोई बतलाने में असमर्थ हो।

परमात्मा की सृष्टि सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है, यहाँ तक समस्त देवता, इष्ट और लोक इस सृष्टि का हिस्सा है, इसलिये भक्ति मार्ग में सगुण उपासक के रूप में निर्गुण परमात्मा की आराधना किस प्रकार करनी चाहिये, हमे परमात्मा के सगुणात्मक स्वरूप का वास्तविक ज्ञान होना आवश्यक है। व्यवहार में केमिस्ट्री को पढ़ने वाले छात्र किसी वस्तु की कैमिकल रचना और फिर रचना के केमिकल की रचना द्वारा मूलतत्व को पहचान करना, और उस से उस तत्व की सही उपयोगिता को प्राप्त करना, ज्ञान प्राप्ति का वास्तविक मार्ग है।

अर्जुन की यह केवल बौद्धिक जिज्ञासा ही है, जिसके कारण वह ऐसा प्रश्न करता है वह स्वयं स्पष्ट करते हुए आगे क्या कहता है, इसे आगे पढ़ते है।

।।हरि ॐ तत सत।। 10.16।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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