।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.15 II
।। अध्याय 10.15 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.15॥
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥
“svayam evātmanātmānaḿ,
vettha tvaḿ puruṣottama..।
bhūta-bhāvana bhūteśa,
deva-deva jagat-pate”..।।
भावार्थ:
हे पुरूषोत्तम! हे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे समस्त देवताओं के देव! हे समस्त प्राणीयों को उत्पन्न करने वाले! हे सभी प्राणीयों के ईश्वर! एकमात्र आप ही अपने आपको जानते हैं या फ़िर वह ही जान पाता है जिसकी अन्तर-आत्मा में प्रकट होकर आप अपना ज्ञान कराते हैं। (१५)
Meaning:
Only you yourself know of your true nature, O foremost among all, creator of all beings, lord of all beings and nourisher of this universe.
Explanation:
Previously, Arjuna said that Ishvara cannot be completely understood through our eyes and ears. But being eager to still know Ishvara, he began using several words to describe Ishvara in this shloka. He also acknowledges that only Ishvara can know Ishvara, since there was nothing prior to Ishvara. Ishvara is self- evident, just like we do not need another source of light to see the sun.
wherein Krishna divides the entire universe into three; kṣara puruṣa; akṣara puruṣa and uttama puruṣa; kṣara puruṣa means manifest matter; or matter, Akṣara puruṣa is unmanifest matter or energy, and Uttama puruṣa is the consciousness principle; Thus, the whole universe consists of only three; matter in tangible form; matter in intangible form, and the consciousness which is different from both tangible and intangible matter. Tangible matter is called kṣara puruṣa; intangible matter; Energy is intangible matter only, is Akṣara Puruṣa; and the consciousness is called Uttama Puruṣa; And Uttama Puruṣa reversed is what? Puruṣottama; Puruṣottama means the pure consciousness which is beyond matter.
Arjuna addressed Ishvara as “purushottama”, the foremost and eminent person, beyond all cause and effect. He is “bhootabhaavana”, the origin of all beings, the absolute reality that has taken maaya as an upaadhi or qualifier to create this world of names and forms. He is also “bhootesha”, the master and lord of all beings. He also controller of the world.
Even though he is the controller, he is not someone who is a cruel master. He is “devadeva”, the lord of all deities including Indra and Varuna, someone who is revered and adored. Also, Ishvara does not quit once the world is created. He is also “jagatpate”, the protector and nourisher of the universe. However, we need to understand that, like a magician, Ishvara is never affected by the magic show. He is the cause, and the magic show of the universe is the effect.
So, if Ishvara can alone know Ishvara, only Ishvara can reveal his glories. Arjuna takes this up next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अर्जुन अपनी जिज्ञासा को प्रस्तुत करने के पहले श्री कृष्ण को पांच प्रकार से संबोधित करता है।
1) पुरुषोत्तम अर्थात जो क्षर, अक्षर और उत्तम पुरुष से भी उत्तम है वो ही पुरुषोत्तम है।
2) भूत भावन अर्थात यह समस्त प्रकृति, ब्रह्मांड के जन्म दाता या कर्ता है, जिस के आदेश से योगमाया और प्रकृति कार्य करती है।
3) भूतेश अर्थात समस्त प्राणियों के पालक एवम रक्षक है और समस्त संसार को नियंत्रित करता है।
4) देवदेव अर्थात समस्त देवो देवताओ के भी देव है, यहां परमात्मा को समस्त 33 कोटि देवी देवताओं से ऊपर बताया गया।
5) जगतपते अर्थात इस समस्त जगत के अधिपति है। जो जगत को नष्ट करने का प्रयास करते है, उन से जगत की रक्षा करते है।
यह जानने योग्य बात है कि जगत परमात्मा के संकल्प का कारण है अतः इस को असत्य, मिथ्या या अप्रतिष्ठ कहना सही नही होगा। जगत ईश्वर की रचना है अतः अनित्य है किंतु असत्य नही। जिस का पालक स्वयं परमात्मा हो वो जगत मिथ्या नही हो सकता, अनित्य हो सकता है क्योंकि कोई भी प्राणी या कारण नित्य नही होता।
इस प्रकार परमात्मा के पांच स्वरूप पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अचार्वतार से अर्जुन परमात्मा की स्तुति करता है। अर्जुन द्वारा शास्त्रों, गुरु और श्रेष्ठ ऋषियों और मुनियों द्वारा परब्रह्म के लिए जो भी उपाधियों को सुना गया था, वह आज उस के द्वारा भगवान श्री कृष्ण के स्वरूप में अपने समक्ष परब्रह्म को साक्षात देखने से स्वत: ही स्तुति के रूप में उस के मुख से प्रकट हो रही थी।
भगवान् अपने आप को अपने आप से ही जानते हैं। अपने आप को जानने में उन्हें किसी प्राकृत साधन की आवश्यकता नहीं होती। अपने आप को जानने में उन की अपनी कोई वृत्ति पैदा नहीं होती, कोई जिज्ञासा भी नहीं होती, किसी करण (अन्तःकरण और बहिःकरण) की आवश्यकता भी नहीं होती। उन में शरीर शरीरी का भाव भी नहीं है। वे तो स्वतःस्वाभाविक अपने आप से ही अपने आप को जानते हैं। उन का यह ज्ञान करणनिरपेक्ष है, करणसापेक्ष नहीं। इस श्लोक का भाव यह है कि जैसे भगवान् अपने आप को अपने आप से ही जानते हैं, ऐसे ही भगवान् के अंश जीव को भी अपने आप से ही अपने आप को अर्थात् अपने स्वरूप को जानना चाहिये। अपने आप को अपने स्वरूप का जो ज्ञान होता है, वह सर्वथा करण निरपेक्ष होता है। इसलिये इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि से अपने स्वरूप को नहीं जान सकते। भगवान् का अंश होने से भगवान् की तरह जीव का अपना ज्ञान भी करणनिरपेक्ष है। किन्तु जब परमात्मा का ज्ञान मन, बुद्धि या किसी भी साधन से किया जाए तो वो उस साधन की योग्यता पर निर्भर होगा।
यह श्लोक दर्शाता है कि किस प्रकार श्रीकृष्ण उस परम सत्य का वर्णन करने में सक्षम हैं, जिसे न स्वर्ग के देवता जान सकते हैं और न दानवगण। जैसे आकाश के विस्तार का एकदम सही पता स्वयं आकाश को ही होता है या पृथ्वी का घनत्व पृथ्वी ही सही नाप सकती है, वैसे ही परमात्मा को सही विभूतियों एवम वर्णन में परमात्मा ही व्यक्त कर सकता है। परब्रह्म को किसी से ज्ञान नही प्राप्त हुआ, उस का कोई गुरु नही, वही एकमेव के जो अपने आप की जानता है, इसलिये आत्मवेत्ता है। शेष वेद, उपनिषद और शास्त्र जिस आत्मा-परमात्मा और परब्रह्म का वर्णन करते है, वह उन का चिंतन, अनुभव और दर्शन हो सकता है किंतु वास्तविकता या सत्य हो, यह तो स्वयं परब्रह्म ही जानता है। आत्मा को कभी प्रमाणों (इन्द्रियों) के द्वारा दृश्य पदार्थ के रूप में नहीं जाना जा सकता है और न वह हमारी शुभ अशुभ प्रवृत्तियों के द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। परन्तु आत्मा चैतन्य स्वरूप होने से स्वयं ज्ञानमय है और ज्ञान को जानने के लिए किसी अन्य प्रमाण (ज्ञान का साधन) की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए अर्जुन यहाँ कहता है, आप स्वयं अपने से अपने आप को जानते हैं। सांख्यदर्शन के अनुसार प्रतिदेह में स्थित चैतन्य, पुरुष कहलाता है। यहाँ श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम नाम से सम्बोधित किया गया है, जिसका अर्थ है, वह एकमेव अद्वितीय तत्त्व जो भूतमात्र की आत्मा है। पुरुषोत्तम शब्द का लौकिक अर्थ है पुरुषों में उत्तम तथा अध्यात्मशास्त्र के अनुसार अर्थ है परमात्मा। अब अर्जुन, भगवान् श्रीकृष्ण के शुद्ध ब्रह्म के रूप में स्वीकार करके उनका गौरव गान करते हुए उन्हें इन नामों से सम्बोधित करता है, हे भूतभावन (भूतों की उत्पत्ति करने वाले) हे भूतेश हे देवों के देव हे जगत् के शासक स्वामी किसी भी वस्तु का सारतत्त्व उस वस्तु के गुणों का शासक और धारक होता है। स्वर्ण आभूषणों के आकार, आभा आदि गुणों का शासक होता है। परन्तु चैतन्य की नियमन एवं शासन की शक्ति अन्य की अपेक्षा अधिक है, क्योंकि उसके बिना हम न कुछ जान सकते हैं और न कुछ कर्म ही कर सकते हैं। वस्तुओं और घटनाओं का भान या ज्ञान तभी संभव होता है जब इनके द्वारा अन्तकरण में उत्पन्न वृत्तियाँ इस शुद्ध चैतन्यरूप आत्मा से प्रकाशित होती हैं।
विचारणीय बात यह भी है ज्ञान उपयुक्त पात्र से लिया गया ही सही है, जो भ्रमित होगा वो ज्ञान भी भ्रमित ही देगा। द्वितीय जब ज्ञान का ज्ञाता मिल जाये तो किसी अन्य के द्वारा यदि उस को समझे तो वो भी ज्ञान के सम्पूर्ण ज्ञाता के अनुसार नही समझा सकता क्योंकि हम सब लोग जानते है बातचीत जब माध्यम से प्राप्त होती है तो वो माध्यम की सोच एवम समझ के कारण बदल जाती है। ज्ञान का ज्ञाता होना अथवा उस का प्रवक्ता होना, दोनों में ज्ञान के विश्लेषण में अंतर होना स्वाभविक है। आज के युग मे शास्त्रो, वेदों और हमारे ग्रंथो को ले कर सोशल मीडिया में कभी कभी अनेक ज्ञान की बाते प्रचारित हो जाती है, जिसे फारवर्ड करने वाले बिना प्रमाणिक किये प्रसारित भी कर देते है। इस प्रकार से ज्ञान को बांटने वाले स्वयं तो भ्रमित होते ही है, दुसरो को भी भ्रमित कर देते है। अतः जब तक ज्ञान वास्तविक ज्ञान को जानने वाले से नही प्राप्त हो, उसे अपूर्ण शास्त्री से ग्रहण नही करना चाहिये।
व्यवहार में जब हम किसी को अनुसूए समझ कर अपने मन की बात और अपने को वास्तविक रूप में कहते है तो उस के द्वारा प्रशंसा में लिए हुए शब्द भी महत्वपूर्ण होते है। परंतु यही बात अपात्र को कहे तो वह आप का मजाक उड़ाने या आप को नीचा दिखाने की कोशिश करेगा।
अपने आश्चर्य, आदर और भक्ति को व्यक्त करने वाले इस कथन के बाद, अब अर्जुन सीधे ही भगवान् के समक्ष अपनी बौद्धिक जिज्ञासा को प्रकट करते हुए क्या कहता है, इसे हम अगले श्लोक में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 10.15।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)