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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  10.13 II Additional II

।। अध्याय      10.13 II विशेष II

।। नारद, असिता, देवल और व्यास – संक्षिप्त परिचय ।।गीता विशेष 10.13 ।।

अर्जुन ने चार विद्वानों के मुख से परब्रह्म के बारे में सुना था, कहा है। यह चार कौन लोग है जिन का इस मे जिक्र हुआ है। क्योंकि इन मे एक महृषि व्यास जी भी है जिन्होंने महाभारत और उस मे गीता की रचना भी की है। किंतु यह सब नाम ही नही पद भी है, इसलिये जब विभूतियों को हम पढ़ेंगे, तब यह जानना और आवश्यक होगा कि जब कण कण में परमात्मा है तो विशिष्ट विभूतियों से वह अपने को क्यों प्रकट कर रहे है। इस का कारण यही है कि संसार मे करोड़ो लोग जन्म लेते है और मर जाते है। प्रत्येक व्यक्ति का एक औरा या व्यक्तित्व होता है। जो उस व्यक्ति से ले कर पर संसार मे विस्तृत होता है। जिस का व्यक्तित्व जितना महान होगा उस का औरा भी उतना ही बढ़ा होगा। अभी हम  उन चार ज्ञानियो के बारे में जानने की चेष्टा करते है, जिन से अर्जुन ने परब्रह्म के बारे में सुना था।

महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महर्षि पराशर और सत्यवती के पुत्र थे| महाभारत ग्रंथ का लेखन भगवान् गणेश ने महर्षि वेदव्यास से सुन सुनकर किया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उन से विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। ऐसा माना जाता है कि “वेद व्यास” नाम वास्तविक नाम के बजाय एक शीर्षक है क्योंकि कृष्ण द्वैपायन ने चार वेदों को संकलित किया था।

देवर्षि ( संस्कृत : देवर्षि) का अर्थ है – ‘दिव्य ऋषि’; यह ऋषियों की तीन श्रेणियों में से एक है , अन्य दो हैं – ब्रह्मऋषि (ब्रह्मर्षि) और राजर्षि (राजर्षि)। राजर्षि वे क्षत्रिय राजा थे जिन्होंने ऋषि का दर्जा प्राप्त किया; एक ऋषि और एक ब्रह्मर्षि के बीच का अंतर तप और सिद्धि की डिग्री और उन के जीवन काल का था। 

वायु पुराण हमें बताता है कि मूल – ऋष, जिस से ऋषि ( ऋषि ) शब्द निकला है, का उपयोग गति (ज्ञान), सत्य और तपस्या सुनने के अर्थ में किया जाता है और एक के निशान देता है देवर्षि । देवऋषि को भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान होता है एवम सभी प्रकार से ये सत्य ही बोलते है। इस के अतिरिक्त यह अपने बल पर संसार से सम्बन्ध रख सकते है और सिद्धियों से सब लोको में बिना किसी बाधा के विचरण कर सकते है। 

वायु पुराण में कहा गया है कि आकाशीय क्षेत्रों में रहने वाले संतों को धन्य देवर्षियों के रूप में जाना जाना चाहिए , और वे भी जो अतीत, वर्तमान और भविष्य के अपने ज्ञान और सत्य के सख्त पालन से प्रतिष्ठित हैं; वे मंत्र के प्रकटकर्ता हैं और उन की सिद्धियों (‘अलौकिक शक्तियों’) के आधार पर हर जगह अप्रतिबंधित पहुंच है। 

धर्म के दो पुत्रनर और नारायण ; क्रतु के पुत्र, सामूहिक रूप से वलाखिल्य के रूप में जाने जाते हैंपुलहा का पुत्र कर्दम; पर्वत, नारद और कश्यप के दो पुत्र , असित और वत्सर, देवर्षि कहलाते हैं क्योंकि वे आकाशीय अर्थात देवताओ पर भी नियंत्रण कर सकते हैं।

हिन्‍दू मान्‍यताओं के अनुसार नारद मुनि का जन्‍म सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी की गोद से हुआ था। ब्रह्मवैवर्तपुराण के मतानुसार ये ब्रह्मा के कंठ से उत्पन्न हुए थे।

देवर्षि नारद को महर्षि व्यास, महर्षि वाल्मीकि और महाज्ञानी शुकदेव का गुरु माना जाता है। कहते हैं कि दक्ष प्रजापति के 10 हजार पुत्रों को नारदजी ने संसार से निवृत्ति की शिक्षा दी। देवताओं के ऋषि होने के कारण नारद मुनि को देवर्षि कहा जाता है। प्रसिद्ध मैत्रायणी संहिता में नारद को आचार्य के रूप में सम्मानित किया गया है। कुछ स्थानों पर नारद का वर्णन बृहस्पति के शिष्य के रूप में भी मिलता है। अथर्ववेद में भी अनेक बार नारद नाम के ऋषि का उल्लेख है। भगवान सत्यनारायण की कथा में भी उनका उल्लेख है।

नारद मुनि ने भृगु कन्या लक्ष्मी का विवाह विष्णु के साथ करवाया। इन्द्र को समझा बुझाकर उर्वशी का पुरुरवा के साथ परिणय सूत्र कराया। महादेव द्वारा जलंधर का विनाश करवाया। कंस को आकाशवाणी का अर्थ समझाया। वाल्मीकि को रामायण की रचना करने की प्रेरणा दी। व्यासजी से भागवत की रचना करवाई। इन्द्र, चन्द्र, विष्णु, शंकर, युधिष्ठिर, राम, कृष्ण आदि को उपदेश देकर कर्तव्याभिमुख किया।

कहते हैं कि ब्रह्मा से ही इन्होंने संगीत की शिक्षा ली थी। भगवान विष्णु ने नारद को माया के विविध रूप समझाए थे। नारद अनेक कलाओं और विद्याओं में में निपुण हैं। कई शास्त्र इन्हें विष्णु का अवतार भी मानते हैं और इस नाते नारदजी त्रिकालदर्शी हैं। ये वेदांतप्रिय, योगनिष्ठ, संगीत शास्त्री, औषधि ज्ञाता, शास्त्रों के आचार्य और भक्ति रस के प्रमुख माने जाते हैं। देवर्षि नारद को श्रुति-स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष और योग जैसे कई शास्‍त्रों का प्रकांड विद्वान माना जाता है।

नारद मुनि भागवत मार्ग प्रशस्त करने वाले देवर्षि हैं और ‘पांचरात्र’ इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ है। वैसे 25 हजार श्लोकों वाला प्रसिद्ध नारद पुराण भी इन्हीं द्वारा रचा गया है। इसके अलावा ‘नारद संहिता’ संगीत का एक उत्कृष्ट ग्रंथ है। ‘नारद के भक्ति सूत्र’ में वे भगवत भक्ति की महिमा का वर्णन करते हैं। इसके अलावा बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता- (स्मृतिग्रंथ), नारद-परिव्राज कोपनिषद और नारदीय-शिक्षा के साथ ही अनेक स्तोत्र भी उपलब्ध होते हैं।

नारद विष्णु के भक्त माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से ये सभी युगों और तीनों लोकों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। यह भी माना जाता है कि लघिमा शक्ति के बल पर वे आकाश में गमन किया करते थे। लघिमा अर्थात लघु और लघु अर्थात हलकी रुई जैसे पदार्थ की धारणा से आकाश में गमन करना। एक थ्योरी टाइम ट्रेवल की भी है। प्राचीनकाल में सनतकुमार, नारद, अश्‍विन कुमार आदि कई हिन्दू देवता टाइम ट्रैवल करते थे। वेद और पुराणों में ऐसी कई घटनाओं का जिक्र है।

देवर्षि नारद को दुनिया का प्रथम पत्रकार या पहले संवाददाता होने के गौरव प्राप्त हैं, क्योंकि देवर्षि नारद ने इस लोक से उस लोक में परिक्रमा करते हुए संवादों के आदान- प्रदान द्वारा पत्रकारिता का प्रारंभ किया था। इस प्रकार देवर्षि नारद पत्रकारिता के प्रथम पुरुष/पुरोधा पुरुष/पितृ पुरुष हैं। वे इधर से उधर भटकते या भ्रमण करते ही रहते हैं।

नारद हमेशा अपनी वीणा की मधुर तान से विष्‍णुजी का गुणगान करते रहते हैं। वे अपने मुख से हमेशा नारायण- नारायण का जप करते हुए विचरण करते रहते हैं। नारद हमेशा अपने आराध्‍य विष्‍णु के भक्‍तों की मदद भी करते हैं। मान्‍यता है कि नारद ने ही भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष और ध्रुव जैसे भक्तों को उपदेश देकर भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया था।

असित एक सिद्ध महात्मा जो भीष्म की मृत्यु के समय उन से मिलने गये थे। असित युधिष्ठिर के यज्ञ में भी निमंत्रित थे। स्यमंतपंचक में यह श्रीकृष्ण से मिले थे। द्वारका छोड़ पिंडारक जानेवाले ऋषियों में से यह भी एक थे।श्रीकृष्ण के कुरुक्षेत्र वाले यज्ञ में यह पुरोहित थे। असित को सरस्वती नदी का एक स्थान अति प्रिय था। कश्यप के पुत्र एक गोत्रकार ऋषि जिनका विवाह हिमवान की पुत्री एकपर्णा से हुआ था। ये ब्रह्मवादी तथा मंत्रद्रष्टा थे। यह देवल के पिता थे जो एकपर्णा के मानसपुत्र थे। एक पहाड़ जहाँ असित ऋषि का आश्रम था। यहाँ श्राद्ध करने का अनंत फल कहा गया है।

आसिता उस ऋषि का नाम जिस से पृथ्वी ने संसार के राजाओं के अज्ञानता का रहस्य कहा था और ऋषि ने यह संवाद राजा जनक से कहा था।

ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र कश्यप ऋषि हुए। कश्यप जी के पुत्र असित के पुत्र देवल ऋषि थे। ये वेदों के मंत्रद्रष्टा माने गये हैं।

देवल नाम के दो ऋषि प्रसिद्ध हुए हैं। हरिवंश पुराण के अनुसार एक देवल प्रत्यूषवसु के पुत्र हुए और दूसरे असित के पुत्र थे। ये दूसरे देवल अप्सरा रंभा के शाप से ‘अष्टावक्र’ हो गए थे। ‘गीता’ के अनुसार यही देवल धर्मशास्त्र के प्रवक्ता थे।

आज भी देवल स्मृति उपलब्ध है, पर इसका निर्माणकाल बहुत बाद का है।

देवल वेदव्यास के शिष्य थे। धार्मिक अथवा देवता की पूजा कर के जीविका अर्जित करने वाले व्यक्ति को भी ‘देवल’ कहते हैं। ‘र’ और ‘ल’ में अभेद होने से देवर को भी देवल कहते हैं।

देवल ऋषि ने देवल स्मृति की रचना की है। यह स्मृति सिन्ध पर मुसलमानी आक्रमण के कारण उत्पन्न धर्म परिवर्तन की समस्या के निवार्णार्थ लिखी गई थी। इस का रचनाकाल ७वीं शताब्दी से लेकर १०वीं शताब्दी के बीच होने का अनुमान है। कुछ इतिहासकारों द्वारा इसे प्रतिहार शासक मिहिर भोज के कालखंड का बताया है। इसमें केवल ९६ श्लोक हैं। अनुमान है की सिंध प्रदेश के मुसलमानों के हाथ में चले जाने के बाद जब पश्चिमोतर भारत की जनता धड़ल्ले से मुस्लमान बनायीं जाने लगी, तब उसे हिन्दू समाज में वापस आने की सुविधा देने के लिए इस स्मृति की रचना की गई।

मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म-भ्रष्ट मनुष्य को पुनः लेने के कोई प्रवंध न था।याज्ञवल्क्य पर लिखी गई ‘मिताक्षरा’, ‘अपरार्क’, ‘स्मृतिचन्द्रिका’ आदि ग्रंथों में देवल का उल्लेख किया गया है। उसी प्रकार देवल स्मृति के काफी उद्धरण ‘मिताक्षरा’ में लिये गये हैं। ‘स्मृतिचन्द्रिका’ में देवल स्मृति से ब्रह्मचारी के कर्तव्य, ४८ वर्षो तक पाला जानेवाला ब्रह्मचर्य, पत्नी के कर्तव्य आदि के संबंध मे उद्धरण लिये गये हैं।

‘देवल स्मृति’ नामक ९० श्लोकों का ग्रंथ आनंदाश्रम में छपा है। उस ग्रंथ में केवल प्रायश्चित्तविधि बताया गया है। किंतु वह ग्रंथ मूल स्वरुप में अन्य स्मृतियों से लिये गये श्लोकों का संग्रह माना जाता है। इसका रचनाकाल भी काफी अर्वाचीन होगा क्योंकि इस स्मृति के १७-२२ श्लोक तथा ३०-३१ श्लोक विष्णु के हैं, ऐसा अपरार्क में बताया गया है। अपरार्क तथा स्मृतिचन्द्रिका में ‘देव स्मृति’ से दायविभाग, स्त्रीधन पर रहनेवाली स्त्री की सत्ता आदि के बारे में उद्धरण लिये गये हैं। इससे प्रतीत होता है कि, स्मृतिकार देवल, बृहस्पति, कात्यायन आदि स्मृतिकारों का समकालीन रहे होंगे।

देवल, असित, देवऋषि नारद और व्यास अपने काल मे परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले परमज्ञानी महृर्षि थे, जिन्हें देवऋषि भी कह सकते है। इसलिये अर्जुन ने उन का उदाहरण दिया। जो उत्तम में सर्वोत्तम है, उस से ज्ञान प्राप्त अर्जुन को परमात्मा की विभूतियों की अनुभूति युद्ध मे स्वयं परमात्मा से उसी ज्ञान से हुई, जिसे उस ने पहले भी सुना था। यही परमात्मा की भाव की प्रधानता की विभूति का महत्व है।

।। हरि ॐ तत सत ।। गीता विशेष 10.13 ।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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