।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.07 II
।। अध्याय 10.07 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.7॥
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥
“etāḿ vibhūtiḿ yogaḿ ca,
mama yo vetti tattvataḥ..।
so ‘vikalpena yogena,
yujyate nātra saḿśayaḥ”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य मेरी इस विभूतिको और योगको तत्त्वसे जानता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानता है एवम इस विशेष ऎश्वर्य-पूर्ण योग-शक्ति को तत्त्व सहित जानता है, वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है; इसमें कुछ भी संशय नहीं है। (७)
Meaning:
He who understands this, my manifestation and yoga in its essence; he becomes engaged with unperturbed yoga, without a doubt.
Explanation:
What is the result of hearing about Ishvara’s expressions? Shri Krishna says that one who is able to perceive Ishvara as manifesting through expressions becomes established in “avikampena yoga” or a constant, unshakeable connection with Ishvara.
The word vibhūti refers to the great śhaktis (powers) of God manifesting in the universe. The word yogam refers to God’s connection with these wonderful powers. In this verse, Shree Krishna explains that when we become aware of the magnificence of the Supreme Lord and become convinced about his glory, we naturally become inclined to engage in his devotion.
Vibhooti refers to the multiple or pluralistic manifestation of Ishvara, the presence of Ishvara in all forms present in the universe. Yoga, also known as yoga- maaya, is the power that makes this pluralistic manifestation possible. Shri Krishna says that one who knows this vibhooti and yoga as arising from Ishvara is constantly united with Ishvara.
Knowledge of the greatness of God nourishes the love of the devotees and enhances their devotion. There is a direct relationship between knowledge and love.
When we meet a person, as formal introduction we say “Hello!”. But as soon as we come to know that the person, we meet is great personalty, say Narendra Modi and we know his quality with respect, our expression and heart change with joy, respect and happiness and immediately we welcome him or vice versa. Hence, knowledge increase the connection and helps in devotion and love means unperturbed bhakti yog.
The key here is to develop a vision that goes into the essence of any object or person or situation instead of getting distracted by the form, just like a scrap metal dealer’s vision goes straight into the metal, and not the shape.
How do we develop this vision? Let us bring back the concept of material cause and intelligent cause that we saw earlier. A pot is created by two aspects: the material cause which is clay, and the intelligent cause which is the potter. So, for instance, when Shri Krishna said that the seven sages were created by Ishvara, it means that Ishvara is both the “stuff” and the “sculptor”. He is both the material and intelligent cause of those sages. The Mundaka Upanishad illustrates this concept with the example of a spider who creates a web from his own body, using no other external raw material. The spider becomes the material cause and the intelligent cause of the web.
So, if our thoughts are made of Ishvara, objects are made of Ishvara, situations are made of Ishvara, if we develop this vision, what will happen to us? We will get established in an unshakeable, unwavering connection with Ishvara. In other words, if we know that Ishvara is present in everything, we will never be disconnected from Ishvara, just like our cell phones are never disconnected from their network no matter which part of the country we visit. We will be able to encounter every situation in life with poise and equanimity, without being shaken up, because everything is ultimately Ishvara.
This state of unwavering yoga is elaborated upon in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व के अध्याय में हम ने निष्काम कर्मयोग, सांख्ययोग, ध्यान योग एवम कर्मसन्यास योग पढ़ा। उस के पश्चात राजगुह्य ज्ञान को समझने के लिये हमें श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और पूर्ण समर्पण के साथ अनुसुवये होने को कहा गया। यह सब ज्ञान हमारे मन-बुद्धि के अज्ञान के विकार को समाप्त करने के लिये आवश्यक प्रथम कदम है। किसी भक्त के क्या गुण होने चाहिए, यह हम आगे भी पढ़ेंगे। किन्तु परमात्मा को समझनेवाला वही है, जिस का अज्ञान मिट गया हो। ज्ञान स्वयं में प्रकाशवान है, गीता या किसी धर्मग्रंथ का अध्ययन ज्ञान की प्राप्ति के लिये नही किया जाता वरन अपने अज्ञान को मिटाने के लिये किया जाता है। परमात्मा का यही कहना है, जिस का अज्ञान मिट गया है, वही उन की विभूतियों को समझ सकता है, उस के भाव परमात्मा के भाव होते है, उस के कर्म परमात्मा के कर्म होते है। वह जीव सृष्टि यज्ञ चक्र में सूर्य की भांति उदय हो कर इस संसार को प्रकाशित करता है और अस्त हो जाता है।
जीव योग से परमात्मा से जुड़ता है किंतु इस प्रकृति कि योगमाया में वह किस प्रकार परमात्मा को पाए, देखे, सुने, विश्वास करे, प्रेम करे और श्रद्धा रखे। क्योंकि जब हम अनजान व्यक्ति से मिलते है तो हमारे विचार और भावनाएं अलग अलग होती है। किंतु जैसे जैसे हमे उस के बारे में जानकारी मिलती है, हमारी श्रद्धा, विश्वास और प्रेम में परिवर्तन होता है।
यदि आपका मित्र आपको चमकते काले पत्थर की गोली दिखाता है तब तुम्हें इसके महत्त्व की जानकारी नहीं होती और इसलिए आप के भीतर उस काले पत्थर के प्रति किसी प्रकार का लगाव उत्पन्न नहीं होता। लेकिन जब आपका मित्र आप को बताता है कि यह ‘शालीग्राम’ है तथा इसे किसी सिद्ध संत ने उसे उपहार के रूप में दिया है। ‘शालीग्राम’ एक विशेष प्रकार का प्राचीन पत्थर है जो भगवान विष्णु का प्रतिरूप है जब आप को उस काले पत्थर की विशेषता का ज्ञान हो जाता है तब आप के लिए उस काले पत्थर का महत्त्व बढ़ जाता है। यदि फिर आप का मित्र आप को यह कहता है कि क्या आप जानते हैं कि पांच सौ वर्ष पूर्व महान संत स्वामी रामानन्द इस पत्थर का प्रयोग उपासना के लिए करते थे? जैसे ही आप को यह विशेष जानकारी प्राप्त होती है तब आप का उस काले पत्थर के प्रति श्रद्धा भाव और अधिक बढ़ जाता है। प्रत्येक समय पत्थर के संबंध में प्राप्त हो रही जानकारी से आपके भीतर उस काले पत्थर के प्रति श्रद्धा में निरन्तर वृद्धि होती रहती है। इसी प्रकार से भगवान का वास्तविक ज्ञान उनके प्रति हमारी श्रद्धा भक्ति बढ़ाता है। इस प्रकार भगवान की अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त अद्भुत शक्तियों का वर्णन करने के पश्चात श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे भक्त और पुण्य आत्माएँ जो इस ज्ञान में स्थित हो जाती हैं, वे आत्माएँ वास्तव में अविचल भक्ति के माध्यम से भगवान में एकनिष्ठ हो जाते हैं।’
श्रद्धा और विश्वास का आधार ज्ञान है, उपरोक्त उदाहरण में यदि हम पत्थर को शालिग्राम समझ कर श्रद्धा और भक्ति से तभी भर सकते है, जब हमे शालिग्राम के विष्णु स्वरूप और उन के गुण की जान कारी अर्थात विभूति का पता हो और यदि हमे रामानंद स्वामी के विषय में ज्ञान हो तो उन से पूजित शालिग्राम के प्रति और भी नत मस्तक हो जाएंगे।
प्रेम, श्रद्धा और विश्वास में स्मरण और समर्पण यदि मात्र श्रद्धा और विश्वास का हो तो वह बिखर भी सकता है किंतु यदि ज्ञान से युक्त हो तो वह अविचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है।
इसलिए भगवान कहते है एक वही व्यक्ति योग में स्थित हो कर दृढ़ता से उन के प्रति आस्था और विश्वास के साथ श्रद्धा, प्रेम और समर्पण कर सकता है, जो उन को उन की विभूतियों के स्वरूप में उन्हें जानता हो।
कोई रंग काला है या लाल है, इसे वही बालक समझ सकता है, जिस को बताया और समझाया गया हो। जिस ने उस ज्ञान को आत्मसात कर लिया हो। जिस ने रंग को पहचानना शुरू कर दिया हो अर्थात ज्ञान का होना, ज्ञान को उपयोग में लाना और ज्ञान से कार्य करना ही योग है।
विभूति नाम भगवान् के ऐश्वर्य का है और योग नाम भगवान् की अलौकिक विलक्षण शक्ति, अनन्त सामर्थ्य का है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् की शक्ति का नाम योग है और उस योग से प्रकट होने वाली विशेषताओं का नाम विभूति है। चौथे से छठे श्लोक तक कही हुई भाव और व्यक्ति के रूप में जितनी विभूतियाँ हैं, वे तो भगवान् के सामर्थ्य से, प्रभाव से प्रकट हुई विशेषताएँ हैं।
जब मनुष्य भोगबुद्धि से भोग भोगता है, भोगों से सुख लेता है, तब अपनी शक्ति का ह्रास और भोग्य वस्तु का विनाश होता है। इस प्रकार दोनों तरफ से हानि होती है। परन्तु जब वह भोगों को भोगबुद्धि से नहीं भोगता अर्थात् उस के भीतर भोग भोगने की किञ्चिन्मात्र भी लालसा उत्पन्न नहीं होती, तब उसकी शक्ति का ह्रास नहीं होता। उसकी शक्ति, सामर्थ्य निरन्तर बनी रहती है। वास्तव में भोगों के भोगने में सुख नहीं है। सुख है,भोगों के संयम में।यह संयम दो तरह का होता है (1) दूसरों पर शासन रूप संयम और (2) अपने पर शासन रूप संयम। दूसरों पर शासन रूप संयम का तात्पर्य है, दूसरों का दुःख मिट जाय और वे सुखी हो जायँ। इस भाव से दूसरों को उन्मार्ग से बचा कर सन्मार्ग पर लगाना। अपने पर शासनरूप संयम का तात्पर्य है,अपने स्वार्थ तथा अभिमान का त्याग करना और स्वयं किञ्चिन्मात्र भी सुख न भोगना। इन्हीं दोनों संयमों का नाम योग अथवा प्रभाव है। ऐसा योग अथवा प्रभाव सर्वोपरि परमात्मा में स्वतःस्वाभाविक होता है। दूसरों में यह साधन साध्य होता है।
जो मनुष्य परमात्मा के योग स्वरूप को तत्व से जान लेता है कि ‘ सब कुछ परमात्मा द्वारा ही सिद्ध होता है परमात्मा में कुछ नही होता। ‘ वह तत्ववेत्ता पुरुष परमात्मा में अचल योग प्राप्त कर लेता है। वास्तव में योग तो नित्य एवम सिद्ध है, अज्ञान जन्य भेद दृष्टि कर के जो वियोगाभास हो रहा है, ज्ञान द्वारा केवल उस की निवृत्ति हो जाती है, जिस से नित्य सिद्ध योग में अचल स्थिति होती है। इसे हम दीपक की लौ के समान मान सकते है जो हवा के रुकने पर स्थिर एवम एकनिष्ठ हो जाती है।
परमात्मा पर अचल विश्वास प्रह्लाद के समान होता है जो उस को अपने पिता भी द्वारा दिये गए कष्टों में भी विचलित नही करता एवम न ही पिता को दोषी मानता है, उस की परमात्मा के प्रति भक्ति अविचल थी।
इसलिये परमात्मा ने जो श्लोक 4 से 6 तक भाव से भौतिक संसार की उत्पत्ति तक विभूतियां बताई है वो सब ब्रह्मांड की उत्पत्ति, स्थिति और प्रवृति ही विभूति स्वरूप है, यह ही परमात्मा का निरंकुश ऐष्वर्य एवम स्वतंत्रता की विभूतियां है एवम जो परमात्मा के सौकुमार्य, सौशीलय, वात्सल्य आदि गुणों से भक्ति द्वारा योग करता है वो ही योग युक्त है, ब्रज की गोपियां इस योग को जानती थी, इस लिये परमात्मा भी उन के भक्ति एवम प्रेम में चुल्लू भर छाछ के लिये नृत्य करते थे।
यहाँ जो विभूतियों का वर्णन किया गया है, इसका तात्पर्य इन में परिपूर्णरूप से व्यापक परमात्मा के ऐश्वर्य से है। विभूतियों के रूप में प्रकट होने वाला मात्र ऐश्वर्य परमात्मा का है। वह ऐश्वर्य प्रकट हुआ है परमात्मा की योगशक्ति से। संसार में क्रिया और पदार्थ निरन्तर परिवर्तनशील हैं। इन में जो कुछ विशेषता दीखती है, वह स्थायीरूप से व्यापक परमात्मा की ही है। इसलिये इस जगत में जो भी वस्तु शक्ति सम्पन्न प्रतीत हो, जिस किसी में जहाँ कहीं विलक्षणता दिखायी दे, वह सम्पूर्ण जगत या विलक्षणता भगवान् की योगशक्ति से प्रकट हुए ऐश्वर्य (विभूति) की ही है, न कि उस वस्तु की। इस प्रकार योग और विभूति परमात्मा की हुई तथा उस योग और विभूति को तत्त्व से जानने का तात्पर्य यह हुआ कि उस में विलक्षणता परमात्मा की है। अतः द्रष्टा की दृष्टि केवल उस परमात्मा की तरफ ही जानी चाहिये। यही इन को तत्त्व से जानना अर्थात् मानना है। संसार मे होने वाला हर कार्य परमात्मा की लीला है। परमात्मा ही जगत के कर्ता हर्ता, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, सर्वाधार, पराम दयालु, सब के सुहॄदय एवम सर्वांतयामि मानना- यही भगवान की विभूति एवम योग को जानना है।
यहाँ जानने का अर्थ बौद्धिक ज्ञान से नही है। जिज्ञासु भक्त भी परमात्मा को जानने का प्रयत्न करता है। जानना का अर्थ है, एकमेव की परमात्मा ही इस जगत का मूल है, उसी से सम्पूर्ण सृष्टि की रचना हुई है, वह ही हर प्राणी और जड़-चेतन में विद्यमान है, इस को हृदय से मानना और अनुभव करना। वाचिक ज्ञान तो व्हाट्सएप्प पर नित्य ही आता है किंतु आचरण में किसी किसी के होता है। यह बुद्धि का विकार है कि जब हम गीता या धार्मिक ग्रन्थ पढ़ते है तो उस के ज्ञान को बुद्धि में धारण कर लेते है, किन्तु मन एवम ह्रदय में नही उतारते। इसी प्रकार अर्थार्थी एवम आप्त भक्त भी परमात्मा को अपनी कामना एवम सांसारिक सुखों एवं दुखो के लिए भजते है। जब तक हम पूर्ण श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के साथ परमात्मा को समर्पित नही होते, हमारा अहम, कामना और आसक्ति भी बना कर रखते है। तबतक परमात्मा का ज्ञान जो हमे प्राप्त होता है, वह पुस्तकीय ज्ञान मात्र होता है, इसलिये अविचल भक्तियोग से युक्त नही होता। इस के सूरदास, तुलसी, रविदास, मीरा, गुरु तेगबहादुर जी और हनुमान आदि द्वारा अविचल भक्ति को समझने की जरूरत है।
गीता में अध्याय 7 से भक्तियोग का वर्णन है, भक्ति का अर्थ के परमात्मा के स्वरूप में ही कामना और आसक्ति रखना और सांसारिक कामना एवम आसक्ति का त्याग कर देना। इस से हृदय की सरलता आती है, किन्तु कर्मो के त्याग की बात नही की गई है। जब कामना और आसक्ति परमात्मा की तरफ हो जाये और राग का अभाव होगा तो सारे कार्य स्वयमेव ही निष्काम हो जाते है।
विभूति और योग को तत्त्व से जानने वाला अविचल भक्ति से युक्त हो जाता है। अतः विभूति और योगको तत्त्व से जानना क्या है इसका विवेचन आगे के श्लोक मे पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।।10.07।।
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