।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.06 II Additional II
।। अध्याय 10.06 II विशेष II
।। अविभक्तम – विभकेत्तषु ।। विशेष – गीता 10.06 ।।
गीता के अठाहरवें अध्याय के 20वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कहते है “सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ।। 18. 20।।” अर्थात जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्-पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्म- भाव को विभाग रहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तो तू सात्त्विक जान।
अतिभौतिकवाद के सिद्धान्त के अनुसार केवल एक अव्यक्त प्रकृति से ही सारे व्यक्त पदार्थ गुणोत्कर्ष के अनुसार क्रम क्रम से निर्मित होते गए, जिसे हम आधुनिक काल मे डार्विन के मानव विकास वाद के सिंद्धांत के रूप में भी पढ़ते है। यही बात GOD Partical के विषय में कही गई है। सब क्षर- अक्षर या चर- अचर सृष्टि के संहार और उत्पति का विचार करने पर सांख्य मत के अनुसार पुरुष और प्रकृति दो ही स्वतन्त्र और अनादि मूल तत्व रह जाते है और पुरुष को अपने सारे क्लेशो की निवृत्ति कर लेने तथा मोक्षानन्द प्राप्त कर लेने के लिये प्रकृति से अपना भिन्नत्व अर्थात कैवल्य जान कर त्रिगुणातीत होना चाहिये। किंतु जहां प्रकृति को एक बताया गया है, वहां सांख्य के अनुसार प्रत्येक जीव अर्थात पुरुष असंख्य है। फिर मुक्ति का आशय क्या कहा जा सकता है?
किन्तु वेदान्त इस के आगे यह मानता है कि प्रकृति और पुरुष दोनों पिंड ब्रह्मांड की जड़ में ऐसा कोई मूल श्रेष्ठ तत्व है, जिस से मिलने के बाद कुछ और नही रहता। अतः प्रकृति के विकास का अतिभौतिकवाद का सिंद्धान्त इस मूलतत्व के अन्वेषण का विषय नही रह जाता।
क्योंकि सांख्य पुरुष असंख्य एवम प्रकृति को मूल तत्व मानता है, तो प्रश्न यही है पुरुष और प्रकृति का आपस का सम्बंध भी क्या है। सांख्य के अनुसार पुरुष निर्गुण भले ही हो किन्तु असंख्य होने से यह भी नही माना जा सकता कि असंख्य पुरुषों का लाभ जिस बात में है, उसे जान कर प्रत्येक पुरुष के साथ तदनुसार वर्ताव करने की क्षमता प्रकृति में होगी। अतः सात्विक ज्ञान दृष्टि से यही युक्तिसंगत होगा कि उस एकीकरण की ज्ञान क्रिया का अंत तक निरपवाद उपयोग किया जावे और प्रकृति और असंख्य पुरुषो का एक ही परम् तत्व में अविभक्त रूप से समावेश किया जावे। इसलिए एक ही अविभक्त तत्त्व से सम्पूर्ण सृष्टि में जीव और जगत उत्पन्न हुए है।
हैकल का मानना है कि मूल प्रकृति के गुणों में वृद्धि होते होते उसी प्रकृति में अपने आप को देखने की और स्वयम अपने विषय मे विचार करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, अतः दृष्टा और दृश्य एक ही प्रकृति है। किंतु कोई अपने ही कंधे की सवारी नही लर्सकता, इसलिए सांख्य वादी दृष्टा और दृश्य जो अलग अलग तत्व मानते है। उन का मत है प्रकृति का विज्ञान अतिभौतिकवाद और विज्ञान के अनुसार प्रमाणिक भी है किंतु दृष्टा का विषय विज्ञान का न हो कर ज्ञान का है, जिसे तर्क से सिद्ध न करते हुए, अनुभव से एवम शुद्ध एवम शांत बुद्धि में जो स्फूर्ति मिलती है, उसी से जाना जा सकता है। अतः परब्रह्म के विषय मे जो कुछ भी गीता में है वह वेद एवम उपनिषद से है और वेद और उपनिषद में जो कुछ है वह हमारे ऋषि मुनियों के इन्द्रियातीत, एकाग्र मन और शुद्ध और शांत बुद्धि की तीव्रता से प्राप्त अनुभव के आधार पर है।
यह अव्यक्त एवम अभिन्न परब्रह्म में प्रकृति के व्यक्त विभिन्न स्वरूप का मूल अहंकार माना गया है। प्रकृति और पुरुष भी भिन्न भिन्न होने के बावजूद एक ही अव्यक्त परब्रह्म तत्व का अंश होने से एक-दूसरे के फायदे और विकास के लिये कार्य करते रहते है।
अतः परब्रह्म का गीता का ज्ञान अर्थात विभूति के मूल में अतिभौतिकवाद के विकास का सिंद्धान्त वैज्ञानिक एवम आध्यात्मिक कारणों से व्यक्त ब्रह्माड के विकास के सिंद्धान्त को ही बतलाता है। वैदिक धर्म के नियम सत्यता की कसौटी में प्रमाणिक एवम किसी भी नई विचारधारा को अंगीकृत करने में कोई परहेज न रखने के कारण सम्पूर्ण जगत में अनुसंधान का भी विषय भी है, जो किसी अन्य मत या धर्म मे उस की कट्टरता या मतान्धनता के कारण संभव नही।
विकास के सिंद्धात को हम कुछ आगे भी पढ़ेंगे, किन्तु विभूति के इस श्लोक में परब्रह्म जहां हर भाव में उपलब्ध है, वहाँ वह अव्यक्त से ले कर व्यक्त ब्रह्मांड के मूल से भी परे का है। अर्थात जो भी आज व्यक्त स्वरूप संसार या ब्रह्मांड हम देखते है, उस के मूल में यही परब्रह्म है, इस विभूति को समझना होगा।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 10.6 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)