।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 10.03 II
।। अध्याय 10.03 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 10.3॥
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
“yo mām ajam anādiḿ ca,
vetti loka- maheśvaram..।
asammūḍhaḥ sa martyeṣu,
sarva-pāpaiḥ pramucyate”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य मुझे जन्म-मृत्यु रहित, आदि-अंत रहित और सभी लोकों का महान ईश्वरीय रूप को जान जाता है, वह मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य मोह से मुक्त होकर सभी पापों से मुक्त हो जाता है। (३)
Meaning:
One who knows me as birthless, causeless and lord of the universe, he is wise among all humans and is freed from all sins.
Explanation:
In this shloka, Shri Krishna says that one whose devotion in Ishvara has reached its pinnacle, one who understands Ishvara as the eternal lord of the universe, automatically develops this capacity of discrimination and becomes wise. Also, he is freed from all his sins. This is the end result of devotion.
Having said that no one can know him, Shree Krishna now states that some people do know him. Is he contradicting himself? No, he means that by self- efforts no one can know God, but if God himself bestows his grace upon someone, that fortunate soul gets to know him. Hence, all those who come to know God do so by virtue of his divine grace. As he mentions in verse 10 of this chapter: “To those whose minds are always united with me in loving devotion, I give the divine knowledge by which they can attain me.” Here, Shree Krishna says that those who know him as the Supreme Lord of all lords are not deluded. Such blessed souls become free from all reactions to their past and present actions and develop loving devotion toward him.
The Gita places special emphasis on the quality of viveka or discrimination. It is the ability to differentiate between what is real and what is unreal. For some people, this comes easily but for most of us, it does not. Devotion is the solution. When we begin to hear about Ishvara’s glories, our vision and understanding about his true nature increases. We begin to realize that while everything in the world has a beginning and end, Ishvara is beyond time. We begin to see that he is everywhere, he is not confined to a certain space or location.
So, when we see that Ishvara is present everywhere and everytime, beyond the realm of time and space, we automatically begin to understand that everything else is finite and transient. Our reactions to situations become calmer. If we come across a tough situation, we know that the timeless ever-present Ishvara is in there, and so therefore the situation will be temporary and will not bother us anymore. We become “assammodaha” or wise, beyond all delusion.
Also, by hearing these glories, we realize that Ishvara is the one who is running the universe. When we identify ourselves with the controller of the universe, our ego, sense of doership and enjoyership automatically drops because we know that we are doing nothing, it is all Ishvara’s doing. When the sinner, which is nothing the sense of doership and enjoyership, is dropped, all our sins are destroyed in an instant.
Shri Krishna now beings to speak of Ishvara’s expressions, which is the main theme of this chapter. He first speaks about Ishvara’s inner, subtle expressions in the next few shlokas. He later speaks about his external, more visible expressions.
।। हिंदी समीक्षा ।।
यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो मुझे सभी ईश्वरों के परमेश्वर के रूप में जानते हैं, वे भ्रमित नहीं होते। ऐसी भाग्यशाली और पुण्य आत्माएँ अपने वर्तमान और पूर्वजन्मों के कर्म फलों के बंधनों से मुक्त हो जाती हैं और भगवान की प्रेममयी भक्ति को पुष्ट करती हैं। वे अपने और जीवात्मा के बीच के भेद को स्पष्ट करते हुए घोषित करते हैं कि वे ‘लोकमहेश्वरम्’ सभी लोकों के परमस्वामी हैं। इसी प्रकार की उद्घोषणा ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’ में भी की गयी है।
तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्।
पति पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.7)
“परमात्मा सभी नियन्ताओं का नियामक है, वह सभी मानवों और ब्रह्माण्ड में विधित पदार्थों का परमेश्वर है। वह सभी प्रियों का प्रियतम है। वह संसार का नियामक और प्राकृत शक्ति से परे है।”
क्योंकि मैं महर्षियों का और देवों का आदि कारण हूँ, मेरा आदि दूसरा कोई नहीं है, उन कालातीत भगवान् में काल का भी आदि और अन्त हो जाता है। इसलिये मैं अजन्मा और अनादि हूँ। अनादित्व ही जन्मरहित होने में कारण है। इस प्रकार जो मुझे जन्मरहित अनादि और लोकों का महान् ईश्वर अर्थात् अज्ञान और उस के कार्य से रहित जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन तीनों अवस्थाओं से अतीत चतुर्थ अवस्थायुक्त जानता है और जो यह भी जानता है कि यह संसार क्षणभङ्गुर है, जिस का प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है और जिस को जिस क्षण में जिस रूप में देखा है, उस को दुबारा दूसरे क्षण में उस रूप में कोई भी देख नहीं सकता क्योंकि वह दूसरे क्षण में वैसा रहता ही नहीं – जिसे इस प्रकार संसार को यथार्थरूप का ज्ञान है। वह मनुष्यों में ज्ञानी है अर्थात् मोह से रहित श्रेष्ठ पुरुष है और वह जान बूझकर किये हुए या बिना जाने किये हुए सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। हम यदि यह समझते रहे कि गंगा में डुबकी लगाने से पाप धुल जाते तो ध्यान रहे कि वहां के मल्लाह एवम मछली आदि जलचर को परमगति निश्चित थी।
जो मुझे जानता है यह जानना केवल भावना के प्रवाह में अथवा बुद्धि के विचारों से जानना नहीं है, वरन् यह पूर्ण और वास्तविक आत्मानुभूति है, जो आत्मा के साथ घनिष्ठ तादात्म्य के क्षणों में होती है। आत्मा को किसी दृश्य के समान नहीं किन्तु स्वस्वरूप से इस प्रकार जानना है कि वह अजन्मा, अनादि और सर्वलोकमहेश्वर है। जो लोग वेदान्त दर्शन की प्राचीन परम्परा से कुछ परिचित हैं, उनके लिए उपर्युक्त ये तीन विशेषण अत्यन्त सारगर्भित हैं, जबकि उस से अनभिज्ञ लोगों को ये विशेषण निरर्थक ही प्रतीत होंगे। अनात्म जड़ जगत् परिच्छिन्न है, जहाँ कि प्रत्येक वस्तु, प्राणी या अनुभव अनित्य हैं, अर्थात् समस्त वस्तुएं आदि (जन्म) और अन्त (मृत्यु) से युक्त हैं।असीम अनन्त परमात्मा का कभी जन्म नहीं हो सकता, क्योंकि जो उत्पन्न हुआ है, वह परिच्छिन्न है और किसी भी परिच्छिन्न वस्तु में अनन्त तत्त्व कभी अपने अनन्त स्वरूप में व्यक्त नहीं हो सकता। स्थाणु (स्तम्भ) में जब भ्रान्ति से पुरुष (या प्रेत) की प्रतीति होती है, तब पुरुष का नाश (अप्रतीति) हो सकता है, क्योंकि वह उत्पन्न हुआ था। परन्तु, वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि स्थाणु ने प्रेत को जन्म दिया, अथवा स्तम्भ से प्रेत की उत्पत्ति हुई। स्थाणु तो वहाँ पहले भी था, है और रहेगा। आत्मा नित्य सनातन है, इसलिए वह जन्मरहित है। अन्य वस्तुओं का जन्म, स्थिति और नाश इस आत्मा में ही होता है।
इस श्लोक में आत्मा को अनादि विशेषण दिया गया है।लोकमहेश्वर लोक शब्द का अर्थ जगत् करने से इस संस्कृत शब्द के व्यापक आशय की उपेक्षा हो जाती है। लोक शब्द जिस धातु से बनता है उसका अर्थ है देखना, अनुभव करना। अत इसका सम्पूर्ण अर्थ होगा अनुभव का क्षेत्र। हमारे दैनिक जीवन में भी इसी अर्थ में लोक शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे धनवानों का लोक, अपराधियों का लोक, विद्यार्थी लोक, कवियों का लोक आदि। इसलिए, उसके व्यापक अर्थ में लोक शब्द से मात्र भौतिक जगत् ही नहीं, बल्कि भावनाओं एवं विचारों के जगत् का भी बोध होता है।इस प्रकार, मेरा लोक वह है, जो मैं अपने शरीर, मन और बुद्धि के द्वारा अनुभव करता हूँ। यह तो स्पष्ट है कि जब तक मुझे इनका निरन्तर भान नहीं होता तब तक ये अनुभव मेरे नहीं हो सकते। यह चैतन्य तत्त्व, जिसके कारण ही मैं जीता हूँ और जगत् का अनुभव करता हूँ, वास्तव में मेरे लोक का ईश्वर होना ही चाहिए। जो मेरे व्यष्टि के विषय में सत्य है, वही जगत् के समस्त प्राणियों के विषय में भी सत्य है, क्योंकि आत्मा सर्वत्र एक ही है। इस समष्टि लोक का शासक, महान् ईश्वर स्वयं परमात्मा ही हो सकता है। यह लोक महेश्वर शब्द का वास्तविक अर्थ है।
मनुष्य अपने पापों के लिए दण्डित नहीं, वरन् अपने पापों के द्वारा ही दण्डित होता है। पाप वह स्वअपमानजनक कर्म है, जिस का मूल कारण है मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का अज्ञान का होना। ऐसे कर्म और विचार मनुष्य को निम्न स्तर के भोगों में आसक्त कर बाँध देते हैं, जिस के कारण वह उन से ऊपर उठकर वास्तविक पूर्णत्व के शिखर तक कभी नहीं पहुँच पाता। आत्मस्वरूप को पहचान कर उसमें दृढ़ निष्ठा प्राप्त कर लेने पर वह व्यक्ति पुन कभी पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता।
तैत्तरीय उपनिषद में कहा है कि यह अनृत ब्रह्म जगत की प्रतिष्ठा अथवा आधार है, इसे और दूसरे आधार की अपेक्षा नही है एवम जिस ने इसको जान लिया वह अभय हो गया। अंत मे कहा गया कि यह सारा जगत पहले असत अर्थात ब्रह्म था, जिस से ऋग्वेद के अनुसार सत यानी नामरूपात्मक व्यक्त जगत की उत्पत्ति हुई। किन्तु बाद में असत का अर्थ बदल गया और असत को विनाशी, न टिकने वाला, मिथ्या मानते हुए जगत कहा गया और सत को ब्रह्म माना गया। ब्रह्म की परिभाषा में अंतर होने से भगवद्गीता में “ॐ तत सत” कह कर ब्रह्म को सत अर्थात सदैव रहने वाला और जगत को असत अर्थात विनाशी मानते हुए, प्रणव अक्षर के साथ तत और सत को जोड़ दिया गया। अर्थात अविनाशी और विनाशी दोनो ही मिल कर ब्रह्म है। तत यानी वह अथवा दृश्य सृष्टि स परे दूर रहनेवाला अनिर्वाच्य तत्व और सत का अर्थ आंखों के सामने वाली दृश्य सृष्टि। इसलिये परमात्मा ने अपने को “सदसच्चाहमर्जुन” अर्थात सत और असत दोनो मैं ही हूँ, कहा है। इस तत्व को जो आत्मसात कर लिया है, वह ही ब्रह्मसन्ध हो गया।
आईने के सामने खड़े हो कर यदि हम अपने को देखे तो किसे देखते है, यह शरीर जो सामने है, उस का जगत में एक नाम दिया हुआ है, जिस में महत्वाकांक्षाओं में जन्म ले रखा है, जिस का जगत में पिता, माँ, पुत्र,पुत्री, भाई, बहन, मित्र आदि आदि न जाने कितने सम्बन्ध है। किंतु कभी अपने अविनाशी ब्रह्म स्वरूप को हम ने नही देखा होगा। यही आईने के सामने धूल का पर्दा है, धूल हमारी नजरो और चेहरे पर रहती है और हम आईने को पौछते रहते है।
जिस क्षण हम अपने आत्मस्वरूप को पहचानते हैं कि वह अजन्मा और अनादि है तथा उसका विकारी और विनाशी उपाधियों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, उस समय हम वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं जो जीवन में प्राप्तव्य है, और वह सब कुछ जान लेते हैं जो ज्ञातव्य है। ऐसा सम्यक् तत्त्वदर्शी पुरुष स्वयं ही लोकमहेश्वर बन जाता है। परमतत्व को आत्मसात कर के ही परमात्मा को जाना जा सकता है, तोते की भांति सभी ग्रंथो, वेदो, पुराण, काव्य, उपनिषदों का कंठस्थ करने वाला जानने वाला नहीं हो सकता।
जो जगत का कारण है किंतु जिस का कोई कारण नहीं है। उसे कोई कैसे जान सकता है जब तक स्वयं उस की कृपा न बरसे। किंतु व्यवहार में हम अपने जन्म और मृत्यु के लिए इस शरीर को ही जानते है और हमारे समस्त प्रयास इस शरीर की सुख और समृद्धि के लिए ही होते है। कुछ विवेकशील लोग प्रकृति के कारण को सोचते है तो आइस्टीन, आर्यभट्ट, गैलेलियो या न्यूटन जैसे वैज्ञानिक बनते है किंतु वे भी प्रकृति के कारण की खोज करते है। परंतु जगत के कारण की खोज के बुद्ध, नानक, महावीर या शंकराचार्य जैसे कुछ ही विरले महापुरुष होते है।
परमात्मा को जाननेवाले के लक्षण क्या होंगे यह हम आगे पुनः दोहराते है।
।। हरि ॐ तत सत।।10.03।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)