।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.B II Preamble II
।। अध्याय 09.B II प्रस्तावना II
PREAMBLE – CHAPTER NINE
Yog through King of Science (The Most Confidential Knowledge) (Raj gruh yog) ।।
In the two previous chapters, the Supreme Lord Shree Krishna declared that among all, bhakti is the highest, yet the simplest path of attaining Yog, or union with the Supreme. In this chapter, He reveals His supreme glories that inspire reverence, devotion, and awe. Although Shree Krishna stands in front of Arjun in His personal form, it should not be mistaken to possess human personality.
At the beginning of creation, the Supreme Lord creates innumerable life-forms with His material energy. And at dissolution, He absorbs them back into Himself, and in the next cycle of creation, He manifests them again. Similar to the mighty winds that blow everywhere yet always stay within the sky, all living beings’ dwell within God. However, He remains ever aloof and detached from all these activities as a neutral observer by His divine Yogmaya power.
To resolve the apparent confusion of the Hindu pantheon, Shree Krishna explains that there is only one God, who is the sole object of worship. For all living beings, He is the true friend, the support, refuge, and the final goal. Therefore, those souls who engage in exclusive devotion towards the Supreme Lord go to His abode and remain there. Those influenced by the ritualistic ceremonies described in the Vedas also attain the celestial abodes. However, when their merits are exhausted, they must return to earth.
Saying this, Shree Krishna exalts the superiority of pure bhakti solely directed toward Him. Such a devotee lives in complete union with God’s will, doing everything for Him and offering everything to Him. Their pure devotion helps devotees attain the mystic union with God and releases them from the bondage of Karmas.
Shree Krishna asserts that He is impartial towards all creatures; He neither favors nor rejects anyone. Even if despicable sinners come to His shelter, He accepts them willingly and very quickly makes them pure and virtuous. Shree Krishna then says that He is seated within His devotees and will not let them perish. He preserves what they possess and provides them what they lack. Hence, we should dedicate our mind and body to Him, worship Him, always think of Him, and make Him our supreme goal.
(Preamble Courtesy – The Songs of GOD – Swami Mukandananda)
।। प्रस्तावना – अध्याय – नवम राज ।। राजगुह्ययोग II
सातवें अध्याय के आरंभ में भगवान ने विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी, उस के अनुसार उस विषय का वर्णन करते हुए अंत मे ब्रह्म, कर्म, अधिभूत, अधिदेव और अधियज्ञ के सहित भगवान को जानने की एवम अंत काल मे भगवान के चिंतन की बात कही। इस पर आठवे अध्याय में अर्जुन ने उन तत्वों को और अंतकाल की उपासना के विषय को समझने के लिये सात प्रश्न कर दिए। उन में से छह प्रश्नों का उत्तर तो भगवान ने संक्षेप में तीसरे एवम चौथे श्लोक में दे दिया किन्तु सातवें प्रश्न के उत्तर में उन्होंने जिस उपदेश का आरंभ किया उस से सारा का सारा आठवां अध्याय पूरा हो गया। इस प्रकार सातवें अध्याय में प्रारम्भ किये हुए विज्ञान सहित ज्ञान का सांगोपांग वर्णन न होने के कारण उसी विषय को भली भांति समझाने के उद्देश्य से भगवान इस नवम अध्याय का प्रारम्भ करते है तथा सातवें अध्याय में वर्णित उपदेश के साथ इस का घनिष्ट सबन्ध दिखाने के लिये पहले श्लोक में पुनः उसी विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा से इस अध्याय का प्रारम्भ करते है।
निर्गुणकार स्वरूप का अभ्यास एक जन मानस के लिये दुष्कर है। क्योंकि सब से परमात्मा के अव्यक्त भाव को जानना, फिर अक्षर ब्रह्म ॐ का ज्ञान होना एवम फिर समाधि लगा कर मन को नियंत्रित करना। अतः सदाहरण मनुष्य के लिये जो सरल सुलभ है उस अत्यंत गुह्य राज ज्ञान को नवम अध्याय से बारहवे अध्याय तक परमात्मा के व्यक्त स्वरूप प्रेमगम्य विस्तृत वर्णन पढेंगे, जिसे गीता का भक्ति मार्ग भी कहते है। यह मार्ग कर्मयोग का ही एक भाग है जिसे अनन्य भक्ति भाव से परमात्मा का स्मरण भी कह सकते है।
नवें अध्याय को राजगुह्ययोग कहा गया है, अर्थात् यह अध्यात्म विद्या विद्याराज्ञी है और यह गुह्य ज्ञान सब में श्रेष्ठ है। राजा शब्द का एक अर्थ मन भी था अतएव मन की दिव्य शक्तिमयों को किस प्रकार ब्रह्ममय बनाया जाय, इस की युक्ति ही राजविद्या है। इसे 34 श्लोक द्वारा वर्णित किया गया है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है, उसी से व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सब का पर्यवसान ब्रह्म में है। लोक में जो अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, वह भी अपने अपने स्थान में ठीक है, समन्वय की यह दृष्टि भागवत आचार्यों को मान्य थी, वस्तुत: यह उनकी बड़ी शक्ति थी।
इस अघ्याय में संसार की रचना, प्रलय, भजन करने वालो के गुण एवम विधि, संसार की कार्य-कारण को भगवान का स्वरूप बतलाते हुए, किसी व्यक्ति को सम्पूर्ण क्रियाओं के कारण का यदि ज्ञान हो तो उसे समझना चाहिये कि वह अपने को कर्ता समझने की भूल करता है। गीता उन लोगो के उत्थान की घोषणा करती है, जो मानसिक एवम बौद्धिक स्थिति में उन्नत नही है, वह भी उसी ब्रह्मसन्ध होने का अधिकारी है, जो उच्च ज्ञानी को है, यह सामाजिक भेदभाव की भ्रमित नीति पर कुठाराघात है।
सरल और शांतिपूर्ण जीवन का आधार क्लेश का न होना है। बाहरी, आन्तरिक, शारीरिक, मानसिक एवम प्राकृतिक प्रवृति के क्लेश यदि न हो तो जीवन आनंदमय हो जाता है। क्लेश के ज्ञानयोग का मार्ग या समाधि सभी के लिये सम्भव नही, तो इस का सरल आधार भक्ति मार्ग है, जो श्रद्धा, विश्वास और समपर्ण के मार्ग से निकलता है। यह भक्ति एवम भक्त के गुणों को हम इस अध्याय में पढ़ेंगे।
ज्ञान और ब्रह्म की प्राप्ति में मन, बुद्धि और इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण की आवश्यकता होती है। अतः जो श्रेष्ठ लोग जिन का इंद्रियों, मन और बुद्धि पर पूर्ण नियंत्रण होता है, वे वेद, उपनिषदों, पुराणों, गीता या अन्य शास्त्रों का अध्ययन करते है और श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा उस को आत्मसात भी करते है। इस के लिए आत्मशुद्धि या चित्त शुद्धि की आवश्यकता है। आत्म शुद्धि या चित्त शुद्धि के तीन प्रमुख मार्ग सन्यास, कर्म और भक्ति बताए गए है। चित्त शुद्धि के पश्चात ही ज्ञान का मार्ग है, जो सभी के लिए एक समान है। यह ज्ञान का मार्ग चित्तशुद्धि के बिना सांसारिक और व्यवसायिक है।
जिन लोगो का अपनी इंद्रियों, मन और बुद्धि पर पूरा नियंत्रण हो और जो लोग चिंतन, मनन और निदिध्यासन से नए नए विचारों और अनुसंधानों को खोजता है और समाज का दिशा निर्देश करता है, उसे ब्राह्मण अर्थात ब्रह्म वृति का व्यक्ति कह सकते है। किंतु जो व्यक्ति सांसारिक सुख को भोगते हुए, समाज और देश को नियमबद्ध नियंत्रण करने की क्षमता रखते है, जो शास्त्रों का अध्ययन कर के श्रवण और मनन तो कर सकते है किंतु निदिध्यासन नही कर सकते, उन की प्रवृति को क्षत्रिय मानी गई। इस प्रकार के व्यक्तियों के निष्काम और निर्लिप्त कर्मयोग का मार्ग बताया गया है।
तृतीय श्रेणी में वे लोग जो कर्म करते हुए धन कमाने में सक्षम होते है, जो शास्त्रों का श्रवण कर सकते है किंतु मनन या निदिध्यासन नही कर सकते, वे धर्म के नाम पर समाज के लिए कर्म करते है, ये वैश्य वृति के लोग हुए।
किंतु जिन के ज्ञान अर्थात अध्ययन कठिन कार्य है। यह श्रवण या मनन भी नही कर पाते, इन का इंद्रियों,मन और बुद्धि पर कोई नियंत्रण नहीं होता, तो इन के लिए बेहतर यही होता है कि यह लोग समाज ही सेवा करे जिस से इन पर तामसी वृति हावी न हो सके तथा ब्रह्म और क्षत्रिय वृति द्वारा बनाए नियमो का पालन करे। इन की वृति शुद्र वृति मानी गई।
तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के प्राणियों को भी मोक्ष का अधिकार मिले, इसलिए इन के भक्ति का मार्ग है। भक्ति का अर्थ परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के साथ समर्पण जिस में कोई भी कामना या आसक्ति न हो। अतः जब समर्पण परमात्मा की ओर हो तो परमात्मा ऐसे लोगो का योगक्षेम का भार भी उठाता है और उन्हें ज्ञान भी प्राप्त करवाता है।
इसलिए ज्ञान को धारण करते समय यदि अपने को मोक्ष के ओर बढ़ना है तो यह ब्रह्म के लिए अर्जित ज्ञान है किंतु यदि अपना आध्यात्मिक ज्ञान देश के शासन या नियम को पालन कराने हेतु है तो इसे क्षत्रिय कहेंगे। यदि यह व्यवसाय के लिए हो तो वैश्य और इसी प्रकार किसी अन्य के लिए किया गया तो शुद्र ज्ञान होगा। एक ब्राह्मण भी यदि पूजा पाठ दक्षिणा के लिए करता है, तो उस का यह कार्य शुद्र वृति का ही होगा। अतः जब तक कामना और आसक्ति रहेगी, परमात्मा की उपासना भी सांसारिक रहेगी।
आज के समाज में अक्सर वैश्य या शुद्र वृति अधिक होने से लोग ज्ञान और आत्मशुद्धि को समझे बिना कोमल भावनाओं में बहते हुए रहते है। उन्हे अपने अज्ञान पर ही ज्ञानी होने का अहंकार रहता है। अक्सर इन्हे भ्रम भी रहता है कि ज्ञानी वही है जिस ने ब्रह्म के ज्ञान बाहरी आवरण धारण किया है जो शास्त्रों के उद्धरण व्यक्त कर सकता है। इसलिए आज समाज में दिशा ज्ञान देने वाले लोग जो आत्मशुद्ध नही भी है, अधिक है। यदि इन के समक्ष अधिक गहन विषय आ जाए तो ये अक्सर वहां से किनारा भी कर लेते है। भीड़ में महात्मा जी जब प्रवचन देते है तो मुश्किल से 5 – 10 % लोग ही ध्यान से सुनते होंगे। इसलिए आज भी गंभीर ज्ञान से युक्त अनेक ग्रंथ उपलब्ध होने के बावजूद, बहुत ही कम लोग उस का अध्ययन करते है। प्रस्तुत अध्याय से आगे के अध्याय गहन ज्ञान का विषय है, इसलिए इस को गंभीरता और मनन से अध्ययन की आवश्यकता है।
भगवद कृपा एवम भक्ति का आधार समर्पण है, जब हम अहम, कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव का त्याग कर देते है तो हमारा सम्बन्ध प्रकृति से छूट कर परब्रह्म अर्थात अपने मूल स्वरूप से हो जाता है। जीव अपने मूल स्वरूप में ज्ञानी और योगी ही है, किंतु अज्ञान के कारण वह भ्रमित हो कर अपना सम्बन्ध प्रकृति से जोड़ लेता है। ज्ञान की प्राप्ति वास्तव में अज्ञान को खत्म करना है। यह अज्ञान क्यों होता है और अज्ञान की अवस्था मे किस प्रकार हम अपने मूल स्वरूप को पहचाने, बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी को आप के ऊपर किन्ही कारणों से शक हो जाये तो उस की आप के प्रति मिथ्या धारणा को समाप्त करने के आप जो भी तर्क देंगे, वह उसे भी शक के दायरे में लेगा। कुंठित मन और बुद्धि द्वारा ग्रसित किसी के मन के शक को दूर करना, कठिन कार्य है। इसे वही दूर कर सकता है, जिस पर उस की श्रद्धा और विश्वास है। इसलिये परब्रह्म के ज्ञान के जब तक प्रेम, श्रद्धा और विश्वास न हो, गीता अध्ययन अज्ञान के ज्ञान को विकसित करता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। प्रस्तावना अध्याय 9 ।।
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