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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.33 II

।। अध्याय     09.33 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.33

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्‌॥

“kiḿ punar brāhmaṇāḥ puṇyā,

bhaktā rājarṣayas tathā..।

anityam asukhaḿ lokam,

imaḿ prāpya bhajasva mām”..।।

भावार्थ: 

तो फिर पुण्यात्मा ब्राह्मणों, भक्तों और राजर्षि क्षत्रियों का तो कहना ही क्या है, इसलिए तू क्षण में नष्ट होने वाले दुख से भरे हुए इस जीवन में निरंतर मेरा ही स्मरण कर। (३३)

Meaning:

What (to speak) again of pious brahmins and royal sages? Having obtained this impermanent world, which is devoid of happiness, you should worship me.

Explanation:

Shri Krishna concludes the topic of the glory of devotion by asserting that everyone, including brahmins or sages who have renounced the world, as well as “raajarshis” or sages who have become kings. Having described the glory of devotion, he then instructs Arjuna to worship Ishvara.

In describing the glory of devotion, Shri Krishna highlighted three types of people. The worst kind of person is a sinner, who has such a high level of attachment to the material world that he is ready to harm others. A better type of person is a sinner who has a lower level of attachment to the material world such as a businessperson. Better than that person is someone like a sage who has the lowest level of attachment, which means that highest level of detachment or vairagya. It does not matter which kind of person wants to become a devotee. Everyone is eligible.

When even the most abominable sinners are assured of success on the path of bhakti, then why should more qualified souls have any doubt? Shree Krishna thus beckons Arjun, “A saintly king like you should become situated in the knowledge that the world is temporary and a place of misery.  Engage yourself in steadfast devotion to Me, the possessor of unlimited eternal happiness.  Else the blessing of birth in a kingly and saintly family, good education, and favorable material circumstances will all be wasted, if they are not utilized in the pursuit of the supreme goal.”

Shri Krishna also explains the reason for seeking the path of devotion. He says that the world in which we live in has two main defects. It is anityam or impermanent, and it is asukham or devoid of joy. We usually rush into worldly pursuits such as money, positions, wealth, fame, titles and so on. None of those are permanent or will give long- lasting happiness. We sometimes think that others who possess these things are happier than we are, but that is not true. Impermanence and sorrow is the nature of this world.

Therefore, Shri Krishna urges us to follow a single pursuit. How do we do it? He explains this in the next and concluding shloka in this chapter.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व के श्लोक को ही आगे बढ़ाते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते कि शांति, आर्जव, अनुभव, उपलब्धि, ध्यान एवम इष्ट के निर्देशन पर कर्म करने वाले ब्राह्मण एवम ऋद्धियों- सिद्धियों का संचार, शौर्य, स्वामिभाव, कभी पीछे नही हटने का स्वभाव रखने वाले राजऋषि क्षत्रिय अपने गुण एवम कर्म से श्रेष्ठ होते है, वो भी भक्ति करते है तो वो और भी श्रेष्ठ होना चाहिए। इसलिये अर्जुन जो स्वभाव से क्षत्रिय एवम राजऋषि भाव का है, उस को भगवान कर्म करते हुए परमात्मा को भजने के लिये कहते है जिस से उस का आत्मविस्वास, चिंता एवम भय का नाश हो।

भक्तिमार्ग द्वारा मोक्ष ज्ञान योग से प्राप्त मार्ग से किसी भी प्रकार् से कम नही है, यह भक्ति मार्ग सिर्फ अर्थार्थी, आप्त या जिज्ञासु भक्तों या निम्न या पाप योनि के लिये सीमित नही है। ज्ञानयोगी एवम कर्मयोगी दोनो के लिये सोने में सुहागा जैसा है।

छांदोग्योपनिषद में वर्णित कथा में स्वेतकेतु के पिता ने यह सिद्ध करने के लिये कि अव्यक्त और सूक्ष्म परब्रह्म ही सब दृश्य जगत का मूल कारण है, श्वेतकेतु से  कहा कि बरगद का एक फल ले कर आओ और देखो उस के भीतर क्या है। श्वेतकेतु ने वैसा ही किया, उस ने फल को तोड़ कर देखा और कहा इस मे छोटे छोटे बीज और दाने है। पिता ने कहा, अब एक बीज को लो और उसे तोड़ कर देखो। श्वेतकेतु ने बीज को तोड़ कर देखा और कहा कि इस मे कुछ नही है। तब उस के पिता बोले, जिस में तुम्हे कुछ नही दिखता, वह इस विशाल बरगद के पेड़ का कारक है। ब्रह्म सारी सृष्टि का मूल तत्व अनादि, अनन्त, सर्वकर्तृ, सर्वज्ञ, स्वतंत्र और चैतन्यरूप है, इसको यथाशक्ति बुद्धिरूपी ज्ञान से समझना चाहिये किन्तु निश्चयात्मक ज्ञान से  ब्रह्म निर्गुण जानने  के बाद श्रद्धा, प्रेम, वात्सल्य, दया, कर्तव्य एवम विश्वास से ही इस ज्ञान का हृदय में प्रवेश होना संभव है, जिस से देहेन्द्रिय एवम आचरण से ब्रह्मात्मैक्य की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। संसार मे जो भावना, अपनापन, श्रद्धा, विश्वास, स्त्री को माँ के स्वरूप में देखने मे मिलता है, वह ज्ञान द्वारा कतई प्राप्त नही किया जा सकता।

अध्याय चार में ज्ञान योग के लिए कर्म की व्याख्या करते हुए चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवम शुद्र बताए गए। यह वर्णन निष्काम कर्म योग सन्यास पर आधारित था। किंतु भक्ति मार्ग ज्ञान योग की तरह विशिष्ट पद्धिति पर न होने से अनन्य स्मरण एवम समर्पण पर आधारित एवम सुगम्य है इसलिये यहां वर्ण व्यवस्था को सात भागो में विभाजित किया गया। इस मे दुराचारी, पापयोनि, स्त्री, वैश्यशुद्र, राजऋषि क्षत्रिय एवम तत्वविद ब्राह्मण में विभाजित किया गया। तत्वविद ब्राह्मण नामधारी ब्राह्णण से पृथक उस के ज्ञान योग के कारण रखा गया है। भक्ति योग  में यह विभाजन ज्ञान एवम कर्म सन्यास पर आधारित न हो कर श्रद्धा, विश्वास एवम प्रेम के कर्मस्मरण एवम समर्पण पर आधारित है। वर्ण या जाति व्यवस्था का गीता में कही पर भी जन्म से कोई ताल्लुक नही है। गीता में गुणकर्म के अनुसार जाति का विभाजन है।

गीता कर्म प्रधान होने के कारण भक्ति मार्ग में भी कर्म को प्रधानता है अतएव भक्ति का अर्थ यह नही हो सकता कि स्मरण एवम समर्पण के लिए जीव अपने कर्तव्य को भूल कर तंबूरा ले कर घूमना शुरू कर दे। जितने भी संत महात्मा भक्ति मार्ग के हुए, उन का समाज के उत्थान में  अत्यंत योगदान उन के द्वारा किये हुए कर्मो का ही फल है।

कक्षा में परीक्षा में पास होने के लिए शिक्षक का सारा ध्यान उन छात्रों पर अधिक रहेगा जो पढ़ाई में कमजोर है। इसलिए वे उन्हें अतिरिक्त समय के अभ्यास और पढ़ने के तरीके बता कर आश्वत करते है कि यदि वे छात्र उस नियम से कार्य अर्थात मेहनत करे तो अवश्य पास हो जाएंगे। यदि फिर मेघावी या औसत छात्रों की बात हो कि यदि वे भी उन्ही नियमो से यदि पढ़ाई करें तो क्या होगा। इस प्रश्न का उत्तर निश्चित ही होगा कि जब कमजोर छात्र जिस विधि से पास होने को अधिक जोर लगाएगा, तो मेघावी या औसत छात्र तो थोड़ा सा ही प्रयास करेगा तो उस की जीत भी निश्चित ही है क्योंकि मन और बुद्धि की तीव्रता, याद रखने और प्रस्तुत करने की क्षमता तो वह पूर्व जन्मों के प्रयास से पहले से ही प्राप्त कर चुका है। इसलिए उसे भी कठिन मार्ग से कर्म की अपेक्षा यदि सरल मार्ग उपलब्ध है तो ज्ञानी को सरल ही मार्ग अपना कर अपनी जीत को सुनिश्चित कर लेना चाहिए।

अतः अर्जुन को भगवान कहते है कि तुम तो राजऋषि क्षत्रिय हो, जब दुराचारी, पापयोनि सभी का मै समभाव से उद्धार करता हूँ, तो तुम तो श्रेष्ठ जीवो में हो अतः अपने कर्तव्य का पालन करो और मुझे भजते रहो। इस से तुम्हारी समस्त चिंताओं के निवारण मेरे द्वारा हो जाएगा।

इस प्रकार गीता में उपनिषदों के ब्रह्मात्मेक्य जैसे महान ज्ञान को जिसे हम श्रद्धा, दृढ़ विश्वास और प्रेम के साथ परमात्मा का स्मरण एवम समर्पण कह सकते है, वह  आबाल वृद्ध, दुराचारी, पापयोनि, स्त्री, वैश्य, नामधारी ब्राह्मण, शुद्र, क्षत्रिय एवम ब्राह्मण सभी को उपलब्ध कर दिया गया। गीता में भगवान के समभाव का विवेचन करते हुए भक्ति मार्ग एवम ज्ञान मार्ग का समन्वय कर दिया गया है। इस से पूर्व भी हम ने गीता में कर्मयोग एवम ज्ञान योग में भी समवय पढा था। इसलिये गीता समाज मे वैमस्य, ऊंच नीच, वाद विवाद को मिटाते हुए समस्त मान्यताओ के परम तत्व को हम किस प्रकार प्राप्त करे, लिखी गई है।

ज्ञान, ध्यान, कर्म एवम भक्ति सभी मार्ग अपने मे पूर्ण होते हुए भी एकमेव भाव से गुथे है, जीव अपनी मन एवम बुद्धि द्वारा जब तक परमात्मा को हृदय की गहराइयों तक नही धारण नही करता, तब तक उस का प्रकृति से सम्बन्ध कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव से जुड़ा ही रहता है। भगवान प्रेम का भूखा है, उसे कोई आडम्बर नही चाहिये, जो भी उसे ह्रदय से स्मरण करता है, वह उसी का हो जाता है। किंतु जब ज्ञानी भी भक्त की भांति उसे पूजता है, तो यह सब से उत्तम दोहरा मुक्ति का मार्ग है।

आगे भक्तिमार्ग को कर्म से युक्त करते हुए, भगवान अर्जुन को क्या कहते है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 9.33।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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