।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.32 II
।। अध्याय 09.32 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.32॥
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
“māḿ hi pārtha vyapāśritya,
ye ‘pi syuḥ pāpa-yonayaḥ..।
striyo vaiśyās tathā śūdrās,
te ‘pi yānti parāḿ gatim”..।।
भावार्थ:
हे पृथापुत्र! स्त्री, वैश्य, शूद्र अन्य किसी भी निम्न-योनि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य हों, वह भी मेरी शरण-ग्रहण करके मेरे परम-धाम को ही प्राप्त होते हैं। (३२)
Meaning:
Surely, O Paartha, even those who are born of sinful origin – women, traders, and also labourers, they attain the supreme state by taking refuge in me.
Explanation:
This is another milestone shloka that has the potential to be misinterpreted if it is quoted out of context. Here, Shree Krishna states that irrespective of birth, gender, caste, or race, whoever takes complete shelter of Him will attain the supreme goal. Such is the greatness of the path of devotion that everyone is eligible for it, whereas in other paths there are strict criteria for eligibility.
For the path of jñāna- yog, Jagadguru Shankaracharya states the eligibility: “Only those who possess the four qualifications—discrimination, detachment, disciplined mind and senses, and a deep yearning for liberation—are eligible for practicing the path of jñāna- yog.”
In the path of karm kāṇḍ (Vedic rituals), there are six conditions to be met: “Six criteria must be fulfilled for the fruition of ritualistic activities—the proper place, the correct time, the exact procedure and correct enunciation of mantras, utilization of pure materials, a qualified Brahmin who performs the yajña, and staunch faith in its efficacy.”
In the path of aṣhṭāṅg- yog as well, there are strict regulations: “Perform haṭha- yog in a pure place, while seated immovably in the proper asan.”
In contrast, bhakti-yog is such that it can be done by anyone, at any time, place, and circumstance, and with any material.
Shri Krishna also says that women, traders and labourers are born out of “paapa yoni” which literally means “sinful wombs”. He says that women, traders and labourers are also equally qualified to become liberated through the path of devotion. So, to properly understand the meaning, let us look at the historical context and the symbolism that underpins this shloka.
As we have seen so far, the Gita attempts to remove misconceptions about spirituality that were prevalent when it came out. One prevalent misconception that was present throughout history was that only the brahmin and the kshatriya communities were solely qualified for liberation. Any other community was termed as “sinful”. Therefore, Shri Krishna vehemently refutes this misconception using the language that was prevalent at that time.
Now let’s look at the symbolism by focusing on the attributes of the communities mentioned, not by focusing on their birth- given caste or gender. A “sinful origin” or “sinful womb” per this shloka symbolically refers to a low level of sattva guna, and a high level of rajas and tamas which causes such attachment to worldly matters.
How does that manifest in people? All are not concern with physical body or class of Verna, but it relates to quality of typical kind of people. The quality of being too attached to children and family is termed as “women” in this shloka. Similarly, a “trader” is too attached to money and commerce, and a “labourer” is too attached to the fruits of his own efforts. Unlike other types of spiritual practice that require a high level of detachment, bhakti or devotion does not require such a qualification.Therefore, Shri Krishna praises the path of devotion because anyone who has such deep attachments to worldly matters can attain liberation through devotion.
So, when even those with a material attachment can attain liberation through devotion, how do people with a high level of detachment fare? This is covered next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
निष्काम कर्म से कर्म के कर्तृत्त्व एवम भोक्तत्व भाव से मुक्त होने के साथ ज्ञान युक्त होना एवम गुरु के मार्गदर्शन में तत्वविद होना ही ज्ञानयोग है यह हम में पढ़ा। ज्ञान मार्ग केवल बुद्धिगम्य होने के कारण अल्प बुद्धि वाले सामान्य जनों के लिये क्लेशमय है और भक्ति मार्ग के श्रद्धा मूलक, प्रेमगमय तथा प्रत्यक्ष होने के कारण उस का आचरण करना सब लोगो के लिये सुगम है। ज्ञान मार्ग के उपनिषदों या वेदान्त सूत्रों में श्रोत-यज्ञ-याग आदि की अथवा कर्म- सन्यास – पूर्वक ‘नेति ‘ स्वरूपी परब्रह्म की चर्चा ही भरी पड़ी है अतः इस का अध्ययन का अधिकार भी ऐसा माना जाने लगा कि यह अधिकार प्रथम तीन वर्णों को ही है। यद्यपि यह भी सत्य नही हो सकता क्योंकि यह ज्ञान अन्य को वर्जित था तो गार्गी प्रभृति स्त्रियों एवम विदुर प्रभृति शूद्रों को कैसे था।
जगद्गुरु शंकराचार्य ने ज्ञानयोग के मार्ग का अनुसरण की पात्रता का वर्णन इस प्रकार से किया है
विवेकिनो विरक्तस्य शमादिगुण शालिनः। मुकुक्षोरैव हि ब्रह्मजिज्ञासायोग्यता मताः।।
“केवल वे लोग जो विवेक, विरक्ति, संयमित मन और इन्द्रियाँ तथा मुक्ति की तीव्र उत्कंठा के इन चार गुणों से सम्पन्न होते हैं। केवल उन्हीं लोगों को ज्ञान योग का अनुसरण करने का अधिकारी माना जाता है।” वैदिक कर्मकाण्डों में इस की पात्रता के लिए छः मापदण्डों का उल्लेख किया गया है। वैदिक कर्मकाण्डों के अनुपालन के लिए निम्नांकित छः मापदण्डों का पालन करना आवश्यक हैः
देशे काले उपायेन द्रव्यं श्रद्धा समन्वितम्। पात्रे प्रदीयते यत्तत् सकलं धर्म लक्ष्णम्।।
“उपयुक्त स्थान, उपयुक्त समय, उपयुक्त प्रक्रिया और मंत्रों का शुद्ध उच्चारण, शुद्ध सामग्री का प्रयोग, यज्ञ करने वाले ब्राह्मण की योग्यता और उसकी दक्षता में पक्का विश्वास होना।”
इसी प्रकार से अष्टांग योग के मार्ग के लिए भी कड़े नियम निर्धारित किए गए हैं।
शचौ देशे प्रतिष्ठाप्य (श्रीमद्भागवतम्-3.28.8)
“हठ योग के अभ्यास हेतु शुद्ध स्थान पर उपयुक्त आसन में स्थिर बैठना आवश्यक है।”
इन सब की अपेक्षा भक्ति योग ही एक ऐसा योग है जिसका पालन किसी समय, स्थान, परिस्थितियों और किसी भी सामग्री के साथ किया जा सकता है।
न देश नियमस्तस्मिन् न काल नियमस्तथा।। (पद्मपुराण)
इस श्लोक में वर्णन है कि भगवान भक्ति करने वाले स्थान के संबंध में कोई चिंता नहीं करते। वे केवल हृदय का प्रेम भाव देखते हैं। सभी जीव भगवान की संतान हैं। भगवान अपनी दोनों भुजाओं को फैलाए सभी को स्वीकार करना चाहते हैं यदि हम विशुद्ध प्रेम के साथ उनकी ओर अग्रसर होते हैं।
हम इस विवाद में नही पड़ते हुए यह माने की ज्ञान योग सभी के बोधगम्य नही है तो जो जीव पाप योनि को भुक्त रहा है या जो स्त्रिया इस ज्ञान से वंचित है या व्यापार- व्यवसाय कर के अपना एवम समाज का पालन करने वाले शुद्र लोग या नामधारी ब्राह्मण वर्ग, वैश्य की मुक्ति किस प्रकार हो। समाज का एक वर्ग जो दैनिक सांसारिक जिम्मेदारियों में व्यस्त रहता है एवम जिन के कानो में वेदों की श्रुति नही पहुंचती, उन का मोक्ष कैसे हो। यहां स्त्रियां का अर्थात भावनात्मक सांसारिक बंधन में मोह युक्त जीव से है। जीव के सांसारिक शरीर और आत्मिक शरीर में अंतर उस के आचरण, भावना, बुद्धि और संस्कार का होता है। इसी प्रकार वैश्य का अर्थ जिस की बुद्धि व्यवसायिक हो और शुद्र का अर्थ जिस की बुद्धि तामसी हो। पाप योनि में हम अन्य सभी जीवों को ले सकते है जो आर्थिक, भावनात्मक, शारीरिक, ज्ञान या बुद्धि, वातावरण या जलवायु आदि से अपंग या असमर्थ हो। यह लोग अपनी ही कमियों से कष्ट को भोगते है, इसलिए यह पाप योनि को भुगतते है।
वादरायणाचार्य कहते है ” विशेषनुग्रहश्च” अर्थात परमेश्वर का विशेष अनुग्रह ही उन के लिये एक साधन है। क्योंकि भक्ति समय, स्थान, कर्मकांड आदि कुछ नही देखती।
कर्म प्रधान ज्ञान योग या कर्म प्रधान भक्ति योग, हम ने पड़ा है कि दोनों आगे चल कर जब जीव अहम एवम कामना से मुक्त हो कर परमेश्वर को समर्पित हो जाता है, दोनों मिल ही जाता है। अतः विशेषनुग्रह के साधन के स्वरूप में दुराचारियो, स्त्रियों, पापियों, शूद्रों एवम नामधारी ब्राह्मण, तुच्छ जीव आदि के लिये कर्म प्रधान भक्ति मार्ग का निरूपण किया गया है।
भगवान श्री कृष्ण कहते है कि हे पार्थ जो कोई पापयोनिवाले हैं अर्थात् जिन के जन्म का कारण पाप है ऐसे प्राणी हैं, वे कौन हैं सो कहते हैं, वे स्त्री, वैश्य और शूद्र भी मेरी शरण में आकर मुझे ही अपना अवलम्बन बनाकर परम उत्तम गति को ही पाते हैं। यहाँ पापयोनि शब्द ऐसा व्यापक है, जिसमें असुर, राक्षस, पशु, पक्षी आदि सभी लिये जा सकते हैं।
ऐसी भी कथाएं है कि वनपवारन्तर्गत ब्राह्मण- व्याध संवाद में मांस बेचने वाले व्याध ने किसी ब्राह्मण को, शांति पर्व में तुलाधार अर्थात बनिये ने जाजलि नामक ब्राह्मण को यह निरूपण सुनाया था कि स्वधर्म के अनुसार निष्काम बुद्धि से आचारण करने से ही मोक्ष कैसे मिल सकता है अतः यह स्पष्ट है जिस की बुद्धि सम हो जावे वही श्रेष्ठ है फिर चाहे वह सुनार हो, बढई हो , बनिया हो या कसाई किसी भी मनुष्य की योग्यता उस के धंधे पर, व्यवसाय पर, या जाति, लिंग या वर्ण पर अवलंबित नही, किन्तु सर्वथा उस के अन्तःकरण की शुद्धता पर अवलंबित होती है और यही भगवान श्री कृष्ण का अभिप्रायः है।
देव तो भाव का भूखा है न प्रतीक का, न काले गोरे का, न ही स्त्री- पुरुष का, न ही ब्राह्मण – चांडाल आदि किसी का। वो सब मे समान रूप से है अतः उस के पास कोई भेद नही, देव तो सम भाव है। मनुष्य या जीव कैसा भी दुराचारी, पापी या किसी भी जाति, लिंग या वर्ण का हो, जिस ने अनन्य भाव से परमात्मा की भक्ति की, उस को परमगति प्राप्त हुई।
।। हरि ॐ तत सत।। 9.32।।
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