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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.31 II

।। अध्याय     09.31 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.31

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥

“kṣipraḿ bhavati dharmātmā,

śaśvac-chāntiḿ nigacchati..।

kaunteya pratijānīhi,

na me bhaktaḥ praṇaśyati”..।।

भावार्थ:

हे अर्जुन! वह शीघ्र ही मन से शुद्ध होकर धर्म का आचरण करता हुआ चिर स्थायी परम शान्ति को प्राप्त होता है, इसलिये तू निश्चिन्त होकर घोषित कर दे कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता है। (३१)

Meaning:

He becomes virtuous instantly and attains eternal peace. O Kaunteya, declare that my devotee never perishes.

Explanation:

Earlier we saw that the resolve towards devotion is most important. Shri Krishna further adds to that statement by saying that one who makes such a resolve attains eternal bliss and peace. He also urges Arjuna to make such a resolve towards devotion.

Shree Krishna explains that if they continue the process of exclusive devotion with unflinching faith in God, their hearts will become purified and they will swiftly develop saintly virtues. Divine virtues emanate from God Himself.  He is perfectly just, truthful, compassionate, loving, merciful, etc.  Since we souls are his tiny parts, we are all naturally drawn to these godly qualities.  But the process of becoming virtuous remains an elusive mystery.

Many commentators explain the word “kshipram” by snapping their fingers. In other words, the amount of time it takes to snap your fingers is how long it takes to make a commitment, to make a resolve towards devotion of Ishvara. When this happens, Ishvara ensures that such a person becomes virtuous and attains everlasting happiness and peace.

As long as we harbour desires for worldly objects, we will never experience long- lasting happiness. But by performing actions in the worship of Ishvara, our notion of doership and enjoyership is destroyed because we are acting as agents of Ishvara. When doership and enjoyership is removed, desires are automatically eliminated, resulting in everlasting peace and bliss.

Now, there could be a situation where we work in the spirit of worship for a while, but fall back into our old desire- prompted actions again. Shri Krishna says that as long as we have made a commitment to devotion, Ishvara will ensure that we do not fall, we do not perish. However, Shri Krishna is specific in his statement that the resolve has to come from the devotee, not from Ishvara. Ishvara may break a promise that he has made himself, but he will always stand by a resolve that is made by his devotee.

Krishna asks “Arjuna take my promise, and not only you should take this promise from Me, you have to declare, publicise this promise through all the media; radio, TV, internet media; (now you have to include all the media), all over the world you publicise this promise of mine. A devotee of the Lord will never have a spiritual fall; very careful; he will never have a spiritual fall; material ups and downs are bound to come; through prārabhda; But he will never fall spiritually; only higher and higher and higher; therefore, this is my promise and therefore become My devotee.”

So therefore, a person who has the tendency to commit wrongdoing can also become a devotee. What other types of people can become devotees? We shall see next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व के श्लोक एवम अध्ययन को ही आगे बढ़ाते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते है जिस ने भी एक बार मेरी भक्ति का मार्ग दृढ़ निश्चय के साथ पकड़ लिया तो समझो कि उस की परमगति होना निश्चित है। यह संस्कार इस जन्म में नही तो अगले जन्म में किन्तु परम धर्म परमात्मा से संयुक्त होने वाला परम गति को प्राप्त होता ही है। क्योंकि साक्षी नित्य एवम निर्मल होता है इसलिये कदाचित देहादि के शुभ अशुभ विकारों से लेपायमान नही हो सकता।

ज्ञान योग में श्रोत एवम स्मार्त में केवल उन को ही अध्ययन एवम योगी बनने की आज्ञा है जो निश्चित नियमो का पालन करते है, अल्प बुद्धि या मंद बुद्धि एवम ब्रह्मचर्य पूर्वक जीवन व्यतीत न करने वाले श्रोत एवम स्मार्त का पठन एवम श्रवण नहीं कर सकते है। किन्तु भक्ति मार्ग सभी के लिये खुला है। परमात्मा को भजने का अधिकार चाहे कितना भी दुराचारी, वेश्या या अल्प बुद्धि को, सभी को समान रूप से है। भक्ति योग सब से सरल है किंतु सच्चा भक्त होना सब से कठिन, क्योंकि भक्त किसे कहते है यह हम अध्याय 12 में  विस्तार से पढ़ेंगे।

जीवन के प्रति मोह और भय उस के नष्ट होने का रहता है क्योंकि जीव मृत्यु का अर्थ इस देह से प्राण निकलने को ही मानता है किंतु देह तो परिवर्तन शील है, जीव पुराने वस्त्र की भांति देह त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उस की मृत्यु होती ही नही है। अनन्य भक्त ही यह बात को समझ पाता है। ज्ञान मार्ग से दुराचारी को मुक्ति की संभावना काफी कम रहती है, परंतु भक्ति मार्ग से जब कोई दुराचारी भी भजन आदि में लग जाता है तो शनैः शनैः उस के तामसी एवम रजोगुण नष्ट हो कर सात्विक गुणों का प्रभाव बढ़ जाता है। इसलिये वह धर्मात्मा और पूजनीय भी हो जाता है।

यह एक सिद्धान्त है कि कर्ता के बदलने पर क्रियाएँ अपने आप बदल जाती हैं, जैसे कोई धर्मरूपी क्रिया कर के धर्मात्मा होना चाहता है, तो उसे धर्मात्मा होने में देरी लगेगी। परन्तु अगर वह कर्ता को ही बदल ले अर्थात् मैं धर्मात्मा हूँ ऐसे अपनी अहंता को ही बदल ले, तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जायगा। ऐसे ही दुराचारी से दुराचारी भी मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं ऐसे अपनी अहंता को बदल देता है, तो वह बुहत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है।

धर्मात्मा होने से अर्थात् भगवान् के साथ अनन्यभाव से सम्बन्ध होने से वह शाश्वती शान्ति प्राप्त हो जाती है। केवल संसार के साथ सम्बन्ध मानने से ही उसका अनुभव नहीं हो रहा था।

आगे भगवान अर्जुन को निर्भीक होकर यह घोषणा करने को कहते हैं कि उनके भक्त का कभी पतन नहीं होता। वह यह नहीं कहते कि ‘ज्ञानी का पतन नहीं होता और न ही वह यह कहते हैं कि कर्मी (कर्मकाण्ड का पालन करने वाला) का पतन नहीं होता, वे केवल अपने भक्तों को वचन देते हैं कि उनका कभी विनाश नहीं होता।’ इस प्रकार वे पुनः वही दोहराते हैं जो उन्होंने इस अध्याय के बाइसवें श्लोक में कहा है कि वे उन पर आश्रित और उनकी अनन्य भक्ति में लीन भक्तों की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर लेते हैं। यह भी एक पहेली प्रतीत होती है कि श्रीकृष्ण यह घोषणा स्वयं करने के स्थान पर अर्जुन को यह घोषणा करने के लिए क्यों कहते हैं? इसका कारण यह है कि विशेष परिस्थितियों में भगवान को कई बार अपना वचन भंग करना पड़ता है किन्तु वह यह नहीं चाहते कि उनका भक्त कभी विवश होकर अपना वचन भंग करे।उदाहरणार्थ श्रीकृष्ण ने यह संकल्प लिया था कि वे महाभारत के युद्ध के दौरान शस्त्र नहीं उठाएँगे किन्तु जब भीष्म पितामह जिन्हें उनका परम भक्त माना जाता है, ने यह संकल्प लिया कि आजु जौ हरिहिं न सस्त्र गहाऊँ। तौ लाजौं गङ्गाजननी कों शान्तनु सुत न कहाऊँ। वह अगले दिन सूर्य अस्त होने तक अर्जुन का वध करेंगे या फिर श्रीकृष्ण को उस की रक्षा हेतु शस्त्र उठाने के लिए विवश कर देंगे।तो उस समय भगवान् की प्रतिज्ञा तो टूट जायगी, पर भक्त (भीष्मजी) की प्रतिज्ञा नहीं टूटेगी।  श्रीकृष्ण ने भीष्म की प्रतिज्ञा की रक्षा हेतु अपने वचन को भंग कर दिया।

भगवान् ने चौथे अध्याय के तीसरे श्लोक में भक्तोऽसि मे सखा चेति कहकर अर्जुन को अपना भक्त स्वीकार किया है। अतः भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि भैया तू प्रतिज्ञा कर ले। कारण कि तेरे द्वारा प्रतिज्ञा करने पर अगर मैं खुद भी तेरी प्रतिज्ञा तोड़ना चाहूँगा, तो भी तो़ड़ नहीं सकूँगा, फिर और तोड़ेगा ही कौन तात्पर्य हुआ कि अगर भक्त प्रतिज्ञा करे, तो उस प्रतिज्ञा के विरुद्ध मेरी प्रतिज्ञा भी नहीं चलेगी। मेरे भक्त का विनाश अर्थात् पतन नहीं होता यह कहने का तात्पर्य है कि जब वह सर्वथा मेरे सम्मुख हो गया है, तो अब उस के पतन की किञ्चिन्मात्र भी सम्भावना नहीं रही। पतन का कारण तो शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मान लेना ही था। उस माने हुए सम्बन्धसे सर्वथा विमुख होकर जब वह अनन्यभाव से मेरे ही सम्मुख हो गया, तो अब उसके पतन की सम्भावना हो ही कैसे सकती है दुराचारी भी जब भक्त हो सकता है, तो फिर भक्त होने के बाद वह पुनः दुराचारी भी हो सकता है, ऐसा न्याय कहता है। इस न्याय को दूर करने के लिये भगवान् कहते हैं कि यह न्याय यहाँ नहीं लगता। मेरे यहाँ तो दुराचारी से दुराचारी भी भक्त बन सकते हैं, पर भक्त होने के बाद उन का फिर पतन नहीं हो सकता अर्थात् वे फिर दुराचारी नहीं बन सकते। इस प्रकार भगवान् के न्याय में भी दया भरी हुई है। अतः भगवान् न्यायकारी और दयालु दोनों ही सिद्ध होते हैं।

जब एक दुराचारी पुरुष अपने दृढ़ निश्चय से प्रेरित होकर अनन्यभक्ति का आश्रय लेता है, तब वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है। मुख्य तथ्य दृढ़ निश्चय का है। यदि उसका निश्चय दृढ़ और प्रयत्न निष्ठापूर्वक है तो वह असफल नहीं होता है। 

कुल की शुद्धता, कुलीनता, ज्ञान का मिथ्या अभिमान, रूप लावण्य और तारुण्य पर इतराना और संपत्ति पर गर्व करना व्यर्थ है, जबतक पमात्मा की भक्ति की रसधारा इन सब मे न हो। वही इस मे स्थायी है, उसी का प्रकाश इन सब को आकर्षित बनाता है। सूखा सरोवर, वीरान शहर और बिना अनाज की बाली किसी भी काम की नही होती।

एक पिक्चर बनी थी “गाइड” जिस में नायक देवानंद को जुवारी और गलत आचरण के कारण नायिका द्वारा उसे घर से निकाल दिया जाता है और फिर एक गांव में उस को महात्मा समझ कर विश्वास करने से लोग पूज्य बना देते है। उन का विश्वास कायम रहे, वह गलत आचरण का नायक भी ईश्वर के आश्रित हो कर अपने प्राणों का त्याग कर देता है और ईश्वर भक्त की प्रतिज्ञा को पूर्ण करते है। इसलिए श्रद्धा, विश्वास, प्रेम के साथ स्मरण और समर्पण में इतनी शक्ति होती है कि उस के भरोसे व्यक्ति असंभव को भी संभव बना सके। उस में पूर्णतय आत्मविश्वास जगा सके। अर्जुन प्रथम अध्याय में मोह और भय से आत्मविश्वास खो चुके थे। गीता उसी क्रम से आगे बढ़ रही है, जिस में सर्वप्रथम अर्जुन के मोह को और अहम भाव के अज्ञान को स्पष्ट किया गया।

अर्जुन के विषाद में उसे युद्ध मे हारने का भय था, उसे मृत्यु का अर्थ शरीर का नष्ट होना ही समझता था। अतः परमात्मा ने अर्जुन से यह सार्वजनिक घोषणा प्रतिज्ञाबद्ध एवम  पूर्ण विश्वास के साथ करने को कहा कि जो उसे अनन्य भाव से पूजता है, वह नष्ट नही होता। जब व्यक्ति निराश हो तो उस मे आत्मविश्वास एवम जोश जगाने के लिये एवम खोए हुए विश्वास को पुनः प्राप्त करने के लिये, कुशल वक्ता द्वारा दिया हुआ यह निर्देश अत्यंत प्रभावशाली होता है, क्योंकि निराश व्यक्ति निर्णय ले कर कार्य कर सकने की क्षमता में नही होता। उस के पीछे संभालने को जब कोई खड़ा हो यह कह दे कि तू निश्चय हो कर कर्म कर, मैं हूँ ना, तो ही समर्थ व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ जाता है। वह कार्य करने की अपने बल पर क्षमता भी रखता है, फिर किसी सबल का सर पर हाथ हो तो कार्य करने का उत्साह दुगना हो जाता है।

तेजस्वी प्रवक्ता के आत्मविश्वास सहित कहे हुए शब्दों से,  निराश अर्जुन समझ जाएं कि जिसे वह कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव के कारण अहम में स्वयं को जो मान रहा है, वह उस का अज्ञान है।  भक्ति से अज्ञान के बादल छट जाते है और भक्त समझ जाता है कि वह नित्य, साक्षी और अकर्ता हो कर परब्रह्म का ही अंश है।

ज्ञान योग की अपेक्षा भक्ति का यह सरलतम उपाय दुराचारियो एवम वेदशास्त्रों का ज्ञान या अध्ययन आदि न कर सकने वालो में किस प्रकार उपयोगी है, आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 9.31।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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