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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.29 II

।। अध्याय     09.29 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.29

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥

“samo ‘haḿ sarva-bhūteṣu,

na me dveṣyo ‘sti na priyaḥ..।

ye bhajanti tu māḿ bhaktyā,

mayi te teṣu cāpy aham”..।।

भावार्थ: 

मैं सभी प्राणीयों में समान रूप से स्थित हूँ, सृष्टि में न किसी से द्वेष रखता हूँ, और न ही कोई मेरा प्रिय है, परंतु जो मनुष्य शुद्ध भक्ति-भाव से मेरा स्मरण करता है, तब वह मुझमें स्थित रहता है और मैं भी निश्चित रूप से उसमें स्थित रहता हूँ। (२९)

Meaning:

I am the same to all beings, I do not hate nor to favour anyone. But those who worship me faithfully, they are in me, and I am in them.

Explanation:

Following the argument so far, one may have a doubt that Ishvara is somewhat partial to his devotees since he offers them liberation, not to others. Shri Krishna addresses this doubt by saying that he is absolutely impartial and that he does not hate or favour anyone. The difference in the result obtained is entirely up to the effort and qualification of the seeker.

Do what you like.  God will settle our dispute.  He is watching and will definitely punish you.  You cannot escape.”  This sort of statement does not indicate that the person making it is a saint, possessing absolute faith in God, for even common persons believe that God is perfectly just.

Consider a mother who has to feed two sons. One is a wrestler, and one is an invalid. She will give a lot of heavy food to the wrestler, and easy to digest food to the invalid. She cannot be accused of favouring the wrestler because she is giving food based on his efforts and his constitution. Or consider the sun who provides the same heat and light to everyone. If you build a solar power plant, you can generate electricity. If you don’t, you will not be able to do so.

The rainwater falls equally upon the earth.  Yet, the drop that falls on the cornfields gets converted into grain; the drop that falls on the desert bush gets converted into a thorn; the drop that falls in the gutter becomes dirty water; and the drop that falls in the oyster becomes a pearl.  There is no partiality on the part of the rain, since it is equitable in bestowing its grace upon the land.  The raindrops cannot be held responsible for this variation in results, which are a consequence of the nature of the recipient.  Similarly, God states here that He is equally disposed toward all living beings, and yet, those who do not love Him are bereft of the benefits of His grace because their hearts are unsuitable vessels for receiving it.

Similarly, Ishvara is same and equal to everyone. In the Mahabharata, Shri Krishna gave Arjuna and Duryodhana. They could either use him or his powerful army for the war. Arjuna chose Shri Krishna and Duryodhana chose the army. It is the person who makes the right or wrong choice. We can either put a plug in the electrical socket or our finger. Electricity does not care, but the results will be different.

Now, if we truly devoted to our family for example, we do not see any barrier, difference, separation between our family and ourselves. Whatever do for them, it is as if we do it for us. Whatever they do for us, they do it as if they were doing it for themselves. Similarly, if we are truly devoted to Ishvara, we see him in us, and he sees us in him.

Here, the topic of sakaama and nishkaama is concluded (desire- oriented and desireless devotion). The topic of the glory of devotion is taken up next.

Footnotes:

1. Earlier Shri Krishna had said that Ishvara is not in anyone. This contradiction is resolved if we consider that each statement is made based on one’s perspective. If we are a devotee, Ishvara is in us and we are in Ishvara. If we a materialistic, Ishvara is not in us.

।। हिंदी समीक्षा ।।

मनुष्य की दो बड़ी कमजोरी काम  और राग पूर्व में बताई गई थी, जिस से जीव अपने को पहचान या देख नही पाता और अपने को प्रकृति मे कर्ता समझ कर दुख भोक्ता है। प्रत्येक जीव के ह्रदय में यहाँ तक कि जड़ पदार्थ में भी परमात्मा ही बसे हुए है। इसलिये परब्रह्म निर्लिप्त, अकर्ता, साक्षी और सृष्टि का रचयिता होने के बावजूद कुछ नही करता, जो हो रहा है वह उस की योगमाया एवम त्रियामी प्रकृति से होता है। वह सब जगह समान एवम समभाव से विद्यमान है।

जब अपरा एवम परा प्रकृति सब कुछ ही परमात्मा का अंश है तो कभी कभी या अक्सर कुछ मूर्ख लोग परमात्मा पर यह आरोप लगा देते है कि परमात्मा पक्षपात करते है। जो उन्हें पूजता है उस की सहायता करते है और बाकी का ध्यान नही देते। यह लोग भूल जाते है कि परमात्मा सम भाव है, उस के लिये सभी एक समान है, जो जीव कर्तृत्व भाव के कारण अहम में संसार या प्रकृति से संबंध जोड़ लेता है वो ही परमात्मा से पृथक हो जाता है। जीव कर्म-कारण के सिंद्धान्त के कारण ही तकलीफ पाता है। क्योंकि कर्म बंधनकारक है।

कुछ लोग जब तकलीफ से परेशान होते है तो विश्वास के साथ चेतावनी देते हुए कह ही देते है कि “भगवान के घर में देर  है अंधेर नही।” ” ऊपरवाले  की अदालत में न्याय अवश्य होता है, क्योंकि वह सभी को देख रहा है” “किसी भी कार्य को कितना भी छुपा कर करो, वह भगवान से छुपाया नही जा सकता।” “वह रिश्वत खाता है, चोरी करता है, झूठ बोलकता है और मैं तेरी पूजा करता हूं, तो उसे सुख सुविधाएं है, मुझे दुख ही दुख, ऐसा मेरे साथ ही क्यों?” यद्यपि यह बाते करने वाला आत्मा से शुद्ध हो जरूरी नहीं, परंतु सांसारिक दुख उन्हे यह मानने को मजबूर कर देता है कि भगवान अन्याय नहीं होने देता और उस की नजर में प्रकृति के सुख और दुख के प्रति ही तुलनात्मक होती है, अध्यात्म की ओर नही। यदि मन में शांति और संतुष्टि है तो संसार में इस से बड़ा कोई सुख हो ही नही सकता।

देव, मनुष्य, पशु (तिर्यक) एवम स्थावर यानि जड़ एवम स्थिर जीव पेड़ पौधे इन चारों प्रकार के भूतों में परमात्मा समान रूप से स्थित है। जो कर्तृत्व भाव एवम भोक्तव भाव से मुक्त हो कर मेरे को समर्पित है उस की रक्षा की जिम्मेदारी परमात्मा स्वयं लेता है।

विहग जोनि आमिष अहारपर, गीध कौन व्रत धारी।जनक समान क्रिया ताकि निज कर सब भांति सँवारी।।

जटायु को गोद मे लेकर राम रोये, जटायु की धूलि को जटा से साफ किया, फिर पिता की भांति उनकी अन्तयेष्टि की। यही परमात्मा का प्रेम एवम भक्त की प्रति बंधन है। भीलनी के झूठे बेर, विदुरजी के यहां केले के छिलके या सुदामा के चावल केवल भक्ति और प्रेम से अभिभूत हो कर खाएं।

भक्ति एवम परमात्मा के प्रति श्रद्धा एवम विश्वास अव्यभिचारिणी होना चाहिये। यानि उस की भक्ति पतिव्रता स्त्री की भांति एक निष्ठ होनी चाहिए। कभी कोई देव तो कभी कोई देव ऐसा नही होना चाहिए।

वर्षा के पानी की एक बूंद सीप में जा कर मोती, गंदगी में जा कर दूषित, खेत में जा कर उपज का कारण और मरुस्थल में जा कर सूख जाती है। वर्षा इस में भेद नहीं करती, भेद समय, स्थान और कर्म से जुड़ा है। जीव के प्रकृति के गुण उस के लिए आगे का मार्ग प्रशस्त करते है। कर्म पर अधिकार में जीव अपने बुद्धि विवेक से ऊंचा उठता है। समस्त विपरीत परिस्थितियों में कर्ण सर्वश्रेष्ठ बना, अर्जुन और दुर्योधन में अर्जुन को सद्बुद्धि और दुर्योधन को कुमति मिली। इसलिए समय, स्थान, अभ्यास, संगत और परिस्थितियों से जीव का चरित्र  निर्माण कैसा हो, यह जीव के अधिकार में है, परमात्मा इस में कुछ भी नही करता, उस की कृपा सूर्य की रश्मि की भांति सभी पर समान रूप में बरसती है। जीव ही निष्काम या सकाम  भक्ति के मार्ग से उस के द्वार पर पहुंचता है।

शमा की परवानगी में पतंगा जल जाता है या कांटे में मांस लगा हो तो लालच में मछली फस जाती है। काम और वासना से ग्रसित बाबा जी द्वारा भोले लोगो को परमात्मा के दर्शन करवाने के नाम पर मूर्ख बनना या भव्य भागवद के नाम पर स्वांग रच कर नाच गाना एवम प्रसाद के नाम पर भोज करना व्यभिचारिणी भक्ति नही है। लौकिक और परालौकिक भक्ति और प्रेम में अंतर समझने के लिये भक्त को समझना होगा, साहित्य या सिनेमा में जो भक्ति का रस बहता है, वह कभी भी शबरी, राधा, विदुरानी, सुदामा के अंतर्मन के ह्रदय में बसी भक्ति को व्यक्त नही कर सकता।  र्मैंने राधा-कृष्ण के अद्वितीय एवम सरल प्रेम के नाम पर लोगो द्वारा अपने काम एवम वासना को शांत करने हेतु असमाजिक चित्र में प्रस्तुती देखी है। यह कोई परमात्मा के नाम की अव्यभिचारिणी भक्ति नही है। भक्ति राग-द्वेष, कामना, आसक्ति और अहम की पूर्ति के माध्यम नही है, अव्यभिचारिणी भक्ति हनुमान, मीरा, ध्रुव, प्रह्लाद, चैतन्य महाप्रभु आदि आदि के स्वरूप में पहचानी है।

आप ही अपना शत्रु और आप ही अपना मित्र है। तुकाराम जी कहते है कि इस से अधिक और कोई क्या नुकसान कर सकता है जब अपना नुकसान और बुरा हम खुद कर रहे हो।  परमात्मा के पास कोई मोक्ष की गठरी नही की उठा कर किसी के सर पर रख दी। यहां तो इंद्रियाओ को जीतना और मन को निर्विषय करना ही मुख्य उपाय है।

माघ काव्य का यह वचन की खोटी समझ से जब एक बार मन ग्रस्त हो जाता है तो मनुष्य को अच्छी बाते भी ठीक नही जंचती।

जब सूर्य एक समान ताप एवम रोशनी देता है तो उस पर पक्षपात का आरोप लगाना गलत होगा। जब भक्त परमात्मा को समर्पित है तो उस का कर्म परमात्मा का है इसलिये परमात्मा ही उस का भार लेंगे।

युद्ध के पूर्व कृष्ण का अपमान करने के बावजूद भी जब दुर्योधन एवम अर्जुन कृष्ण के पास सहायता मांगने गए तो दुर्योधन ने सेना माँगी और अर्जुन में कृष्ण को। परमात्मा तो बिना भेद भाव के जो मांगोगे वही देगा, किन्तु यदि जीव में अहंकार एवम कर्ता भाव है तो उसे परमात्मा कैसे मिलेगा।

परमात्मा का कहना है मेरा कोई अप्रिय नही है, मै जीव का मेरे प्रति समर्पण देखता हूँ उस की जाति, रूप, आकार, धन दौलत, आदि मुझे प्रभावित नहीं करते, मै तो पत्र, पुष्प से ही संतुष्ट हूँ, मुझे हीरो या सोने का सिहांसन नही चाहिए। निषाद राज गुह, शबरी, गीध, कालिया नाग, रावण का भी विभीषण कोई भी जिस ने परमात्मा को भजा, उस के लिये परमात्मा खड़े हुये। परमात्मा को भजने वाला निष्काम कर्मयोगी होता है कोई कामचोर या आलसी नही, वो परमात्मा से कुछ नही चाहता, परमात्मा स्वयं ही उस की सहायता करते है। वो परमात्मा के लिये और परमात्मा का ही काम करता है, इसलिये अहम भाव एवम भोक्ता भाव रखने वाले परमात्मा पर पक्षपात का आरोप लगाते है।

प्रस्तुत श्लोक में गीता उन मनुष्यो के लिये मोक्ष का मार्ग दिखाती है जो ज्ञान योग की कठिन प्रक्रिया को नही कर सकते क्योंकि उन्हें वेद- शास्त्रो का ज्ञान एवम ज्ञान योग की प्रक्रिया नही मिलती। यह जन सदाहरण के सरल उपाय है कि वह परमात्मा से अपने आप को अव्यभिचारिणी भक्ति से जोड़ ले। भक्ति मार्ग का यह स्वरूप कर्म त्याग को कभी भी नही स्वीकार करता, भक्ति के इस मार्ग  में भी अपने सभी कर्तव्य कर्म को पूरा करना ही है। भगवान की शरण हमे कर्मफल एवम कर्मफलाशा से मुक्त करती है, जो मोक्ष के लिये मार्ग प्रशस्त करता है। जिस ने भी अपना अहम, कामना और आसक्ति त्याग कर परमात्मा को भजा, वह मानो परमात्मा में बस कर उन का प्रिय हो गया। इसलिये आगे हम पढ़ेंगे की यह सरल उपाय हर स्थिति, उम्र एवम पापी से पापी व्यक्ति के लिये किस प्रकार कारगार है।

।। हरि ॐ तत सत।। 9.29।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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