।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.25 II
।। अध्याय 09.25 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.25॥
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥
“yānti deva-vratā devān,
pitṝn yānti pitṛ-vratāḥ..।
bhūtāni yānti bhūtejyā,
yānti mad-yājino ‘pi mām”..।।
भावार्थ:
जो मनुष्य देवताओं की पूजा करते हैं वह देवताओं को प्राप्त होते हैं, जो अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं वह पूर्वजों को प्राप्त होते हैं, जो भूतों (जीवित मनुष्यों) की पूजा करते हैं वह उन भूतों के कुल को प्राप्त होते है, परन्तु जो मनुष्य मेरी पूजा करते हैं वह मुझे ही प्राप्त होते हैं। (२५)
Meaning:
Those who worship deities attain the deities, those who worship ancestors go to the ancestors, those who worship spirits attain the spirits, but those who worship me attain me.
Explanation:
As we are exploring the topic of worship, we should not make the mistake of thinking that worship only happens in a temple in front of a deity. In many cases, worship of individuals is something that we take for granted. If we need a loan, we have to worship the loan officer to gain his favour. If we need a job, we have to worship someone in that firm so that they can do a referral. If we need admission into a school, we have to worship the admissions officer.
The eighteenth chapter of the Gita categorizes every action into three types: saatvic, raajasic and taamasic. Worship of a guru for knowledge is saatvic worship. Worship of a loan officer for a loan is raajasic worship. Worship of a gangster to kill someone is taamasic worship. But ultimately, any knowledge that comes under the realm of the three gunaas is finite.
Human being has got a freewill that means he can choose his goal and he should choose his goal. God will not interfere in our choice; God’s role is only giving us the information of what are the goals available and which goal can be reached by which path. And if you refuse to use your choice; it indirectly means that you do not want to utilise the privilege of human birth.
In this shloka, Shri Krishna gives examples of worship towards deities, ancestors and spirits that encompass most kinds of so-called spiritual worship performed today. However, as we saw earlier, the best that this kind worship can give us is a finite material result. Even if we get to go to heaven through such worship, we will have to come back to earth one day when our merits are exhausted.
The highest devotees are those who attach their minds to the Supreme Divine Personality. The word vrata means resolve and undertaking. Such fortunate souls, who firmly resolve to worship God and engage steadfastly in His devotion, go to His divine Abode after death.
The infinite Ishvara has ability to give us liberation. Instead of asking that, we ask finite things like exam success, job success and so on. It is like asking a millionaire for pennies. We do so because we have conditioned ourselves to accept very narrow materialistic definitions of success. If our definition of success is narrow, our definition of Ishvara somehow becomes narrow as well.
So therefore, we come to the conclusion that we have to learn the correct technique of worshipping Ishvara. How does that work? Is it something arcane and complex? Shri Krishna provides a beautiful answer to that question next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व के श्लोक में हम ने पढा की परमात्मा भाव का भूखा है। श्रद्धा एवम प्रेम से ही उस का विश्वास जीता जा सकता है। किंतु श्रद्धा एवम प्रेम अंधा है, उसे सत्य या असत्य का ज्ञान नहीं होता है। इसलिये सिर्फ श्रद्धा एवम प्रेम रखेगे तो भटक जायेगे। इस के लिए बुद्धि का सहयोग चाहिए जिस से सत्य एवम असत्य का ज्ञान हो। बुद्धि के बिना श्रद्धा एवम प्रेम अंधश्रद्धा या अन्धप्रेम ही होता है।
बिना श्रद्धा एवम प्रेम के बुद्धि या ज्ञान भी निर्रथक है क्योंकि वह हमेशा युक्तिवाद एवम तर्क में उलझ कर कभी भी कुछ नही प्राप्त कर सकती। जितना ज्ञान बिना श्रद्धा एवम प्रेम का होगा वो उतना ही स्वार्थी एवम घमंडी होगा। इसलिये श्रद्धा एवम प्रेम आदि मनो धर्म के साथ बुद्धिगम्य ज्ञान ही कर्तृत्व शक्ति उत्पन्न कर सकता है।
समस्त प्राणियों में मनुष्य को बुद्धि प्रदान है, इसलिए जहां अन्य प्राणी केवल पूर्वजन्म के भोग को भोगते है, मनुष्य इस के अतिरिक्त अपनी इच्छा शक्ति और बुद्धि से कर्म करते हुए, कर्म के फलों को भी संचित करता है।
जो मनुष्य जैसा निश्चय धारण करता है उस को उस के निश्चय के अनुसार उस के फल की प्राप्ति होती है। यह प्रकृति माया स्वरूप है जो अपने त्रियामी गुण सात्विक, राजसी एवम तामसी द्वारा इस जगत का संचालन करती है। यह तीनों गुण मनोवृति के परिचालक है। मनुष्य जिस श्रद्धा एवम प्रेम से जिस भी गुण के प्रभाव में जिस भी देवता को पूजता है वो मिलता तो परमात्मा को है किंतु वो देवता द्वारा ही मिलता है और उसी रूप में मिलता है अर्थात आप किस को किस मनोवृति से यजन करते है, परमात्मा उस को उस देवता के स्वरूप में उसी मनोवृति एवम देव स्वरूप में फल देता है।
प्रायः सात्विक अर्थात भगवान की पूजा करने वाले को यज्ञ आदि का फल स्वर्ग लोक आदि के रूप में, पितरों अर्थात राजसी पूजन करने वालो को पितृलोक एवम भूत, प्रेत, तांत्रिक पूजा करने वालों उसी के अनुसार फल मिलता है। जिस की श्रद्धा सात्विक है, वे देवताओ में, जिन की राजस है वे यक्ष- राक्षस आदि में और जिन की श्रद्धा तामस है वो भूत पिशाच आदि में विस्वास रखते है, यह प्रकृति द्वारा मनुष्य के नैसर्गिक स्वभाव पर अवलंबित है जिसे ज्ञान द्वारा, श्रद्धा एवम प्रेम द्वारा ही यथाशक्ति भक्ति भाव से सुधारा जा सकता है।
यह पूजा, श्रद्धा, प्रेम, ज्ञान मंदिरों तक सीमित नहीं है, यह मनुष्य के कर्म है, मनुष्य का हर कर्म उस का यज्ञ है, आप किसी सरकारी कर्मचारी से काम करवाते है तो वो अपने पद के अधिकार के अनुसार आप को फल देता है, आप किसी गरीब की सहायता करते है वो अपनी स्थिति के अनुसार आप को दुआ देता है, आप की धोखेबाज से काम करवाते है तो वो अपनी तामसिक बुद्धि से आप को धोखा देता है। आप का हर कर्म एक पूजा है, आप के समक्ष जो भी है वो देवता है, आप जिस कामना से पूजा करते है वो कामना के अनुसार देवता अपने सामर्थ्य से आप को फल देता है। आप का कर्म, आप के समक्ष देवता एवम उस का फल सब परमात्मा को ही प्राप्त होता है वो ही उस देवता के अनुसार आप को फल देता है। इसलिये प्रत्येक कर्म शुभ कामनाओं के साथ या बेहतर है निष्काम भाव से करे। गलत व्यक्ति से सही की आशा न रखे। सात्विक गुण में पूजे जाने से सात्विक फल ही प्राप्त होंगे। राजसी में रिश्वत, धन के लोभ में कार्य करेंगे तो राजसी लाभ होगा किन्तु अल्पकालीन होगा। लड़ाई झगड़ा, या किसी को नुकसान पहुचाने की भावना से काम करेंगे तो नुकसान ही होगा। जीवन के हर व्यवहार, परिवार, व्यवसाय, शिक्षण, यात्रा, विज्ञान, अर्थ, भजन, कीर्तन सभी परमात्मा के ही कार्य है, सभी समक्ष व्यक्ति परमात्मा ही है, उस से समस्त व्यवहार, कामना परमात्मा ही आराधना एवम पूजन है और परमात्मा ही आप की कामना, श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा एवम सामर्थ्य के अनुसार आप को फल देता है। किसी कारखाने का चौकीदार का पूजन आप को किसी स्थान में प्रवेश दिला सकता है और उस स्थान का मालिक आप को पद लाभ दे सकता है, यह देवता की हैसियत पर निर्भर है।
जीवन का यह नियम है कि जैसे तुम विचार करोगे वैसे तुम बनोगे। जैसी वृत्ति वैसा व्यक्ति। समय समय पर किये गये विचारों के अनुसार व्यक्ति के भावी चरित्र का रेखाचित्र अन्तकरण में खिंच जाता है। यह एक ऐसा तथ्य है, जिसकी सत्यता का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में ही हो सकता है। मनोविज्ञान के इस नियम को आत्मविकास के आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रयुक्त करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं जो मुझे जिस भाव से, जिस रूप से, जिस कामना से पूजते है, मै उस को उसी रूप में उस के अनुसार फल देता हूँ। जो निष्काम भाव से ज्ञान युक्त मुझे पूजते है उन्हें मै परमगति भी प्रदान करता हूँ।
व्यवहारिक दृष्टिकोण से यह श्लोक जैसा बोओगे- वैसा पाओगे की पुष्टि करते हुए किसी भी विचारधारा की निंदा या तिरिस्कार न करते हुए, हर विचारधारा को सम्मानित करता है। यदि धर्म एवम अध्यात्म की उच्चकोटि की विवेचना है जो उस के विचारधारा से विभिन्न मत रखते है, उस को स्वीकार करना। वेदान्त के अनुसार परब्रह्म ही मोक्ष का अंतिम लक्ष्य है किंतु कोई परब्रह्म को स्वीकार नही कर के मृत्युलोक से ब्रह्मलोक को ही लक्ष्य मान कर अपने कर्म करता है, वह उसी को प्राप्त होता है।
गीता की धर्म या मत की बजाय एक सनातन विचारधारा प्रस्तुत करती है, जो प्रत्येक धर्म या मत पर समान रूप से लागू होती है। अतः जो इस विचारधारा को मानते है या नही मान कर अपना तर्क रख कर बहस करते है या फिर नास्तिक, आस्तिक, यज्ञ, भजन, कर्मफल या पुर्नजन्म या अन्य किसी भी देवी, देवताओं को ले कर बहस करते है, उन के लिये भी यह श्लोक उसी प्रकार से लागू है, वह भी उस की अपनी विचारधारा के अनुरूप ही फल की प्राप्ति का हकदार है। आसुरी प्रवृति या असत्य के तर्क मनुष्य के मध्य कुछ भी हो, किन्तु सत्य प्रकृति के नियम एवम कार्य-कारण के सिंद्धान्त इतने सशक्त है कि उन्हें धोखा या फेरबदल नही किया जा सकता। इस संसार को जीवात्मा के चश्मे से देखनेवाला कभी भी नही समझ सकता कि किसी जीव को यह सांसारिक सुख या दुख क्यों, कैसे और किस कारण प्राप्त होता है, वह अपने ही अज्ञान के अहम में परमात्मा के नियम को अपनी अज्ञानता की कसौटी में तय करने लगता है।
सारांश यह है कि एक ही परमेश्वर सब जगह विभिन्न रूपो में समाया हुआ है, वह ही विभिन्न देवी-देवताओं के रूप में जीव की उपासना, कामना, आसक्ति एवम कर्मफल के रूप में फल प्रदान करता है। वह ही सब यज्ञों का भोक्ता भी है। एक श्रुति के अनुसार जो पुरुष जिस भाव मे निश्चय रखता है, वह उसी भाव के अनुरूप ही फल पाता है।
प्रश्न यह था कि जब एक ही परमात्मा सभी में समाया हुआ है तो किसी को इस संसार में दुख और किसी को सुख क्यों है? मनुष्य को इच्छा शक्ति और बुद्धि दे कर उसे अपने समकक्ष स्थान दिया है और प्रकृति ने उसे जो अहम दिया है, उस से उसे अज्ञान उत्पन्न हुआ कि वह ही कर्ता और भोक्ता है। कर्म के फल भी तुरंत नही मिलते हुए, तत्कालीन, समय के अंतर में, प्रारब्ध बन कर मिलते है। यही भोग है, जो प्रत्येक जीव को परमात्मा से अलग इस दुनिया में अलग अलग कर देता है। यदि अहंकार तो त्याग कर निष्काम हो कर लोक कल्याण में लोकसंग्रह के कार्य किए जाए तो जीव को मुक्ति से कोई नहीं रोक सकता।
परमात्मा तो प्रेम का भूखा है, उसे क्या चाहिए, आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 9.25।।
Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)