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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.22 II

।। अध्याय     09.22 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌॥

“ananyāś cintayanto māḿ,

ye janāḥ paryupāsate..।

teṣāḿ nityābhiyuktānāḿ,

yoga- kṣemaḿ vahāmy aham”..।।

भावार्थ: 

जो मनुष्य एक मात्र मुझे लक्ष्य मान कर अनन्य-भाव से मेरा ही स्मरण करते हुए कर्तव्य-कर्म द्वारा पूजा करते हैं, जो सदैव निरन्तर मेरी भक्ति में लीन रहता है उस मनुष्य की सभी आवश्यकताऎं और सुरक्षा की जिम्मेदारी मैं स्वयं निभाता हूँ। (२२)

Meaning:

With single-pointed meditation, those who are constantly engaged in my worship, I carry the burden of acquisition and preservation of their needs.

Explanation:

Many commentators compare this shloka to a shining gem located right in the middle of the Gita. This oft- quoted shloka contains Ishvara’s promise to all devotees. Here, Shri Krishna assures us that Ishvara will personally attend to the needs of his devotees. But he also defines the type of devotee that is being discussed here. It is one who is ever absorbed in the contemplation of Ishvara. For such people, there is no fear, suffering, sorrow or lack of anything.

Previously, we learned about the “sakaama bhakta” or desire-oriented devotee. This shloka describes the “nishkaama bhakta” or desireless devotee. Who is a nishkaama bhakta? It is the one who is only seeking one thing: moksha, liberation. His desire for moksha is equal to no other desire, for that desire will permanently eliminate all other desires. it is a desire for infinitude or poornatva. He has “ananya” or focused goal, other devotees have “anya” or diverse goals.

So, if we are desireless devotees, if our only desire is liberation which is the attainment of Ishvara, what does Ishvara do for us?  God offers motherly assurance to souls who surrender exclusively to Him.  The words used are vahāmi aham, meaning “I personally carry the burden of maintaining My devotees, Shri Krishna says that Ishvara takes care of “yoga” and “kshema”. Our entire life comprises two major activities: acquisition and preservation. The early part of our life goes in acquisition of knowledge, wealth, family, position and title. This is denoted by the word “yoga”. The later part of our life is devoted to preservation of what we have acquired. This is “kshema”.

Many commentators cite a wonderful story to illustrate this shloka. There was a brahmin who had great faith in this shloka but lost it one day because his family did not get enough alms to have a proper meal one day. In disgust, he tore the palm leaf on which this shloka was written and went out of the house. Later, a boy came to his house with a sack of rations. He informed the brahmin’s wife that her husband had sent her the food.

The brahmin’s wife noticed that the boy’s tongue was bleeding. She found out from the boy that it was her husband who had cut off the boy’s tongue. When the brahmin came back, the wife rebuked him for injuring the boy who had delivered the rations. The brahmin, it turns out, knew nothing about the boy or the rations. He quickly realized that it was Ishvara who delivered the food, and that when he tore the palm leaf, it injured Ishvara in the form of that boy. So, Ishvara did not just deliver the food, he also carried the rations on his back. This is what is meant by the word “vahaami” which means “to carry”.

What is the practical implication of this shloka? If we wholly devote ourselves to the pursuit of Ishvara, we need not spend any time incessantly worrying about our needs. As long as we perform our duties efficiently and in a spirit of service to Ishvara, we will be well taken care of. Ishvara will not just carry our burden of needs; he will also carry all of our worries as well.

The culmination of this shloka’s vision is the knowledge that there is no such thing as “my” need or “your” need. If everything is Ishvara and everything is in Ishvara, then he will take care of his own needs, just like our fingers are not worrying about someone taking care of their individual needs.

What happens to those who do not worship Ishvara in his infinite nature? This is explained in the upcoming shlokas.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व में ज्ञानी भक्त, निष्काम भक्त और सकाम भक्त आदि के विषय में हमे भगवान ने बताया, किंतु अब ऐसे भक्तो की बात कर रहे है जिन के लिए भगवान के अतिरिक्त कोई आश्रय नही है, इन्हे अनन्य भक्त कहते है। जो भक्त संसार के समस्त भोगों से हट कर केवल मात्र मेरे प्रेम में मग्न रहता है, जिस का उपास्य देव परमात्मा के अतिरिक्त कोई नही एवम जो परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और प्रेमास्पद मानते है ऐसे अनन्या भक्त जब अनन्या भक्ति से प्रेम पूर्वक जीव मुझे स्मरण करने लग जाता है तो उस की रक्षा, उस का मान सम्मान एवम उस की देख भाल की जिम्मेदारी भी मेरी होती है। यह जिम्मेदारी एक मां की अपने शिशु के प्रति ममत्व, वात्सल्य और दायित्व के भाव के समान है।

परमात्मा का जीव से सम्बन्ध आत्मा एवम परमात्मा अर्थात उस के अंश का है। यह जीव परमात्मा से अलग हो कर जब अपना सम्बन्ध परमात्मा की अपरा एवम परा प्रकृति से जोड़ लेता है तो वो उस से अलग हो जाता है। किंतु अनन्या भाव से प्रेम पूर्वक परमात्मा का स्मरण करने वाला जीव जब निष्काम भाव से परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ता है तो परमात्मा स्वयम उस जीव के योगक्षेम की जिम्मेदारी का भार उठाते है।

योग क्षेम का अर्थ है कि जीव को जो प्राप्त न हो उसे प्राप्त करवाना एवम जो उस को प्राप्त है उस की रक्षा करना। शाश्वत उपनिषद में भी योगक्षेम की सम्पूर्ण व्याख्या का अर्थ “संसार नित्य निर्वाह” है।

हम ने भगवान के अनन्या भक्तों के अनेक किस्से सुने होंगे, नानी माई का मायरा- भक्त नरसिंहदास की कथा, भक्त प्रह्लाद की कथा, गजेंद्र मोक्ष, सूरदास आदि अनेक अनन्या भक्त जिन के योगक्षेम के लिये स्वयं भगवान को दौड़ कर आना पड़ा। गोकुल, वृंदावन आज भी कृष्ण प्रेम का साक्षात स्वरूप है, जहां की गली गली के कृष्ण प्रेम आज भी गूंजता है। कभी अनजान स्थान पर या यात्रा के दौरान या संकट के समय किसी अनजान व्यक्ति जब आप की सहायता के लिये आता है तो उस मे कभी परमात्मा की उपस्थिति आप ने महसूस की है, यदि तब भी नही, तो अवश्य ही आप की कामना आप को परमात्मा से अलग कर रही है।

एक माँ की गोद मे शिशु जितना सुरक्षित एवम पोषित हो सकता है उतना ही परमात्मा को अनन्या स्मरण करने वाला निष्काम भाव का जीव हो सकता है। यही योगक्षेम है।

अनन्या भक्त भगवान् के सिवाय उनका कोई अन्य भाव है ही नहीं क्योंकि भगवान् के सिवाय अन्य सब नाशवान् है। अतः उनके मन में भगवान् के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है अपने जीवन निर्वाह की भी इच्छा नहीं है। इसलिये वे अनन्य हैं। वे खानापीना, चलनाफिरना, बातचीत करना, व्यवहार करना आदि जो कुछ भी काम करते हैं। वह सब भगवान् की ही उपासना है क्योंकि वे सब काम भगवान् की प्रसन्नताके लिये ही करते हैं। यह कामना रहित निष्काम भक्त है। इसलिये इन का योगक्षेम परमात्मा वहन करता है। भक्त का मनचाहा हो जाय तो उस में भी कल्याण है और मनचाहा न हो तो उस में भी कल्याण है। भक्त का चाहा और न चाहा कोई मूल्य नहीं रखता, मूल्य तो भगवान् के विधान का है। इसलिये अगर कोई अनुकूलता में प्रसन्न और प्रतिकूलता में खिन्न होता है, तो वह भगवान् का दास नहीं है, प्रत्युत अपने मन का दास है। अनन्यदर्शी भक्त अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी चेष्टा नहीं करते। क्योंकि वे जीने और मरने में भी अपनी वासना नहीं रखते, केवल भगवान् ही उनके अवलम्बन रह जाते हैं। अतः उनका योगक्षेम स्वयं भगवान् ही चलाते हैं।

LIC के लोगो मे लिखा है “योगक्षेम वहाम्यहम” और उन का स्लोगन है, “जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी”। भगवान भी उनको समर्पित भक्त को बीमा की सुविधा LIC के पहले से ही दे रहे है। समर्पण किस प्रकार का इस की चर्चा बाद में होगी किन्तु जो श्रद्धा, विश्वास और प्रेम से पूर्ण रूप से अपनी कामना, आसक्ति और अहम  को त्याग कर परमात्मा की शरण मे चले जाता है उस का योगक्षेम परमात्मा वहन करता है।

यह श्लोक उस रहस्य को अनावृत करता है, जिसे जानकर आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में भी निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यह श्लोक लगभग गीता का मध्यबिन्दु एवम अत्यंत महत्वपूर्ण  है। हम क्रमश आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से इसके अर्थ पर विचार करेंगे। जो लोग यह जानकर कि एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य है, अनन्यभाव से मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ध्यान करते हैं, श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि उन नित्ययुक्त भक्तजनों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। योग का अर्थ है अधिक से अधिक आध्यात्मिक शक्ति, और क्षेम का अर्थ है अध्यात्म का चरम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति, जो यज्ञ का फल है। इन योग और क्षेम को भगवान् ही पूर्ण करते हैं। अब, यदि इसे, व्यावहारिक जगत् के विभिन्न कार्य क्षेत्रों में दिन रात परिश्रम करने वाले लोगों के लिए सफलता का भेद बताने वाला मानें, तब भी यही श्लोक उस रहस्य को बताता हैं जिस के द्वारा संसारी लोग अपने जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं। हाथ में लिए हुए किसी भी कार्य में, यदि मनुष्य एक ही लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी संकल्प शक्ति का उपयोग कर एक ही संकल्प को बनाये रख सकता है, तो उसकी सफलता निश्चित समझनी चाहिए।

सफलता के रहस्य की तीन कुञ्जियाँ बताई गयीं है, जिनके अभाव में कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता, और वे हैं (क) संकल्प का सातत्य, और (ख) एक निश्चित लक्ष्य के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करना। तीसरी मुख्य कुञ्जी है (ग) नित्ययुक्तता अर्थात् आत्मसंयम। जीवन में दर्शनीय व गौरवमय सफलता पाने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है। जब जीवन में किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर मनुष्य अपने मार्ग पर अग्रसर होता है, तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके लक्ष्य से भिन्न, अनेक आकर्षक और प्रलोभित करने वाली योजनाएं उसके समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं, जिन के चिन्तन में वह अपनी शक्ति का अपव्यय कर के थक जाता है और इस प्रकार अपने चुने हुए कार्य को भी सफलतापूर्वक करने में असमर्थ हो जाता है। उन्नति में बाधक ऐसे विघ्न से सुरक्षित रहने के लिए आत्मसंयम अत्यावश्यक है।

इच्छित क्षेत्र में उसके प्रवाह के लिए हमें केवल उसकी दिशा ही सही करनी होती है। तत्पश्चात् प्रकृतिक नियम के अनुसार वह जल स्वत ही उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित होगा। इसी प्रकार, जो कोई पुरुष अपने कार्यक्षेत्र में यहाँ वर्णित शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर पालन करने योग्य नियमो के अनुसार कार्य करेगा, सफलता ऐसी परिस्थितियों के सजग शासक के चरणों को चूमेगी।

कर्तव्य कर्म के पालन में अनेक बार इस प्रकार की परिस्थितियां आती है कि सही और गलत का निर्णय नही ले पाते। अर्जुन के समक्ष युद्ध के तैयार शत्रु पक्ष कोई और नही, उस के ही लालन पालन करने वाले गुरु, पितामह और सगे सम्बन्धी थे। युद्ध करना या न करना अत्यंत दुष्कर निर्णय था। किंतु गीता ही एक मात्र ग्रन्थ है जो हमे बतलाता है कि कर्तव्य कर्म क्या है, हमारा निर्णय परमात्मा की इच्छा होना चाहिए, स्थितप्रज्ञ, समभाव एवम अनन्य भक्ति में निष्काम हो कर कर्तव्य धर्म का पालन करने से हमारा योगक्षेम स्वयं परमात्मा वहन करते है, हम अपने कर्तव्य कर्म का पालन करते है, और वह हमें हमारे पाप और पुण्य से मुक्त रखते है। हमारा कर्तव्य कर्म किसी भी कामना, आसक्ति या अहम में न हो कर परमात्मा के अनन्त भक्ति एवम स्मरण करते हुए, प्रकृति को निमित्त मान कर किया हुआ है। आतातायी, दुष्ट लोगो का संहार, आसुरी प्रवृति का विरोध एवम उन को नष्ट करना व्यक्तिगत अहम या आसक्ति नही है, वह कर्तव्य कर्म है। शिवा जी ने मां तुलजा भवानी की शरण मे जाकर तलवार उठाई थी। जो अनन्य भक्ति से परमात्मा की शरण ले कर कर्तव्य कर्म करने लगते है, उन्हें स्वयं परमात्मा वो शक्ति प्रदान करते है जिस से वह अपने कर्तव्य धर्म का पालन कर सके। अर्जुन ने महाभारत का युद्ध भगवान श्री कृष्ण के कारण जीता। आजादी की लड़ाई या बुराई के खिलाफ लड़ने वाले किसी भी सदाहरण मनुष्य में नेतृत्व की क्षमता कौन भरता है, यही योगक्षेम है। क्योंकि अहम और आसक्ति के साथ जिस ने भी सत्ता का दुरुपयोग किया, उस का नाश ही हुआ है।

मन और बुद्धि से विचार कर के हम जो कार्य करते है, उस में मन हमेशा शंकित और भय से भरा रहता है कि आगे कैसे होगा। यात्रा में यात्रा से ले कर गंतव्य स्थान तक कैसे पहुंचेंगे यही सोचते रहते है। परीक्षा में पेपर देते समय रिजल्ट और उस के बाद का सोचते है या फिर खाना भी खाते समय स्वास्थ्य और खाने के स्वाद को सोचते रहते है। किंतु अनन्य भक्ति में भक्त अपने कर्म के अतिरिक्त कुछ नही सोचता, वह वही करता रहता है जिस के प्रकृति उसे निमित्त बनाती है जिसे हम कर्तव्य कर्म भी कह सकते है।

अनन्य भक्ति से प्राप्त योगक्षेम में जीव अपना सम्बन्ध प्रकृति को छोड़ कर परमात्मा से जोड़ लेता है, तो उस का शरीर के नष्ट होने या रहने का भय भी नही होता। गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविंद सिंह आदि सिख गुरु और उन के अनुयायियों का बलिदान इसी का प्रत्यक्ष उदाहरण है।

इसी बात को लेकर दूसरे अध्याय के पैंतालीस वें श्लोक में भगवान् ने अर्जुन के लिये आज्ञा दी कि तू निर्योगक्षेम हो जा अर्थात् तू योग और क्षेमसम्बन्धी किसी प्रकार की चिन्ता मत कर और युद्ध कर।

परमात्मा की शरण न जा कर जो अन्य देवताओं की शरण जाते है, उन के भगवान क्या कहते, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 9.22।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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