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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.21 II

।। अध्याय     09.21 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.21

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति ।

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते॥

“te taḿ bhuktvā svarga- lokaḿ viśālaḿkṣīṇe,

puṇye martya- lokaḿ viśanti..।

evaḿ trayī-dharmam anuprapannā,

gatāgataḿ kāma- kāmā labhante”..।।

भावार्थ: 

वह जीवात्मा उस विशाल स्वर्ग-लोक के सुखों का भोग कर के पुण्य-फ़लो के समाप्त होने पर इस मृत्यु-लोक में पुन: जन्म को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार तीनों वेदों के सिद्धान्तों का पालन करके सांसारिक सुख की कामना वाले (सकाम-कर्मी) मनुष्य बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। (२१)

Meaning:

Having enjoyed the (joys of) mighty heaven, they, with their merits exhausted, return to the mortal world. In this manner, those with selfish desires, who take refuge in the three- fold system, arrive and depart (repeatedly).

Explanation:

Shri Krishna continues the description of desire- oriented devotees (sakaam bhaktas) who worship Ishvara with a view to gain earthly and heavenly rewards and conforts. Shri Krishna says that their efforts will bear fruit on earth as well as in heaven. However, he says that their stay in heaven is temporary. After their stay ends, they once again come back to earth and get caught up in the endless cycle of birth and death.

Just as a football gets kicked all over the field, Maya is kicking the soul around in forgetfulness of God.  Sometimes it goes to the lower abodes, while sometimes to the higher abodes.  Amongst these multitudes of forms it receives, across the lower and higher abodes, only the human form offers the facility for God- realization.  Hence, the scriptures state that even the celestial gods pray to be given birth as a human being, so that they may rectify their previous mistake of going to heaven and strive toward God- realization.

As an example, consider the plight of those people who work hard, earn a good living but have trouble managing their spending. As soon as they get their salary, they instantly spend most of it on the first of the month, and barely manage to pay their bills for the remainder of the month. They somehow forget that fact that money, like anything else in this world, is finite.

One has to come to bhūlōka at regular intervals. Why, because all earnings you can do here only; in the other 13 lōkahs, whether it is 6 upper lokas, or 7 lower lōkas, all the 13 lokas are only for exhaustion of your earnings; in the lower lokas you exhaust your pāpam; in higher lōkas, you exhaust your puṇyam; and again if the bank balance has to be built up, you have to come to bhūlōka. Therefore gaman- āgamanam. This is called autobiography of a samsāri.

Shri Krishna says that such people follow the “three-fold system”. This refers to Vedic knowledge comprising the three modes or gunaas. Since the gunaas themselves are finite and transient, the results attained by the followers of these gunaas will also be finite and transient.

So therefore, although the desire-oriented devotee is better than someone who has no room for devotion, he is still trapped in a pursuit of comfort in pleasure in this world as well as in other worlds. Unlike such a devotee, what we should truly desire is liberation or moksha.

What kind of devotee gets liberation? This is taken up next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व में सकामी भक्त अर्थार्थी के विषय मे पढ़ा था। जब ज्ञानी पुरुष कामना -आसक्ति से पूर्ण हो तो कार्य-कारण के सिंद्धान्त से उसे उस के सात्विक कर्मो के फल स्वरूप स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है। मृत्यु लोक के अतिरिक्त अन्य कोई कर्म भूमि नही है, अतः अन्य लोक में जीव अपने पुण्य कर्मों के कारण सुख- ऐश्वर्य को भोगता है और जब उस के पुण्य कर्म खत्म हो जाते  है,  वह पुनः मृत्यु लोक में आ जाता है।

श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह स्पष्ट करते हैं कि स्वर्ग लोक के दैवीय सुख अस्थायी हैं। जिन लोगों को उन्नत करके स्वर्ग भेजा जाता है जहाँ वे स्वर्ग के सुखों और ऐश्वर्य का भरपूर भोग करते हैं। बाद में जब उनके पुण्य कर्म समाप्त हो जाते हैं तब उन्हें पृथ्वी लोक पर वापस भेज दिया जाता है। स्वर्गलोक को प्राप्त करने से आत्मा की चिरकालिक खोज पूरी नहीं होती। हम भी अपने अनन्त पूर्व जन्मों में वहाँ पर कई बार जा चुके हैं तथापि आत्मा की अनन्त सुख पाने की भूख अभी तक शांत नहीं हुई है। सभी वैदिक ग्रंथों में इसका समर्थन किया गया है।

“स्वर्ग के निवासी तब तक स्वर्ग के सुखों का भोग करते हैं जब तक उनके पुण्य कर्म समाप्त नहीं हो जाते। कुछ अंतराल के बाद उन्हें अनिच्छा से बलपूर्वक निम्न लोकों में भेज दिया जाता है।”

“स्वर्ग की प्राप्ति अस्थायी है और वहाँ भी दुख पीछा नहीं छोड़ते।”

जब परमात्मा की पूजा यानि प्रार्थना, समत्व एवम यजन की तीनों विधियों द्वारा कामना सहित की जाती है तो कामना स्वरूप स्वर्ग की प्राप्ति होना निश्चित है, किन्तु जो अनित्य है तो उस क्षीण भी होना ही है। यानि जन्म- मरण से मुक्ति के बिना यह चक्र समाप्त नहीं हो सकता। यह बात पहले भी बताई गई थी, किन्तु यहां दुबारा इस बात को बताने का कारण है जो नित्य है वो ही अटल है, उस को ज्ञानी सोमरस का पान करने वाले, त्रेवेद्य व्यक्ति भी कामना के साथ करे तो भी सत्य नही बदलता। प्रायः कुछ संत महात्मा अपने हिसाब से कामना के वशीभूत हो कर परमात्मा के नित्य स्वरूप की बजाय लौकिक एवम पारलौकिक सुखों के लिये ज्ञान देते है। यह मुख्यतया इन लोगो को ध्यान में रख कर दोहराया गया है। बिना निष्काम हुए चाहे हम कुछ भी महान से महान कार्य करे, उस के कारण हमें उच्च पद प्राप्त भी हो जाये तो भी पुण्य की समाप्ति के बाद हमे वापस अपने पूर्व स्थान पर ही आना पड़ता है। इस लिये परमात्मा जो नित्य है उस के लिये निष्काम होना किसी भी तत्वविद के लिये भी अनिवार्य है।

इस को हम ऐसे भी समझ सकते है कि एक खूबसूरत, उच्च कोटि के वाहन के मालिक होने के साथ आप को उस को चलाने का पूरा अनुभव भी है। आप पूरी क्षमता एवम लग्न के साथ उसे चलाते भी है तो भी यदि मार्ग सही नही पकड़ा तो गंतव्य स्थान पर न पहुँच के आप गाड़ी की यात्रा का आनन्द ले कर वापस आ जाएंगे।

अगर पूर्वश्लोक में आये  पूतपापाः  पद से जिन के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये हैं और यहाँ आये क्षीणे पुण्ये पदों से जिनके सम्पूर्ण पुण्य क्षीण हो गये हैं – ऐसा अर्थ लिया जाय, तो उन को (पापपुण्य दोनों क्षीण होने से) मुक्त हो जाना चाहिये परन्तु वे मुक्त नहीं होते, प्रत्युत आवागमन को प्राप्त होते हैं। ऐसे अविवेकी कामी लोगों के प्रति भगवान् की अरुचि उनके इन शब्दों में स्पष्ट होती है कि वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान कर, भोगों की कामना करने वाले, बारम्बार (स्वर्ग को) जाते और (संसार को) आते हैं।

नासमझ, अज्ञानी या तामसी वृति के लोग तो जन्म-मरण के दुख से मुक्त नही हो पाते, किन्तु सात्विक, ज्ञानी, वेदों के ज्ञाता, सोमरस का पान करने वाले श्रेष्ठ जन भी यदि कामना-आसक्ति से सुख- आनन्द के लिये यज्ञ आदि करे तो भी मुक्ति को प्राप्त न हो कर अल्पकालीन सुखों को ही प्राप्त होते है। ज्ञान का होना ही पर्याप्त नही है, उस के साथ मुक्ति के ज्ञान का सदुपयोग होना भी आवश्यक है। परमात्मा का यह कथन उन रूढ़िवादी परम्परा को चेतावनी है जिन में मुक्ति का मार्ग स्वर्ग, वैकुण्ठ या ब्रह्म लोक कहा गया है। गीता में सत सिर्फ ब्रह्म ही है और मुक्ति उस ब्रह्म में विलीन  होना है। किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या मत में मुक्ति को इतना स्पष्ट कहने का साहस नही है, जो गीता द्वारा वेदान्त के सिंद्धान्तों और वेदों- उपनिषदों के ज्ञान के वास्तविक अर्थ द्वारा बताया गया है।

सन्त ज्ञानेश्वर जी कहते है समस्त सांसारिक या किसी भी लोक के सुख गणिका अर्थात वेश्या की भांति होते है, जब तक आप के पास धन या पुण्य है, आप उपभोग करते है, फिर जब धन या पुण्य फल खत्म हो जाते है, यह आप को त्याग कर उस के हो जाते है जिन के पास धन या पुण्य  फल है। सांसारिक या ब्रह्मलोक तक की कोई भी वस्तु किसी की जीव की स्थायी या नित्य नही है, यहाँ तक उस का शरीर भी नित्य नही है।

आश्चर्य यही है कि किसी भी धर्म मे अपने धार्मिक ग्रंथों के जानकार, उस को पालन करने वालो को सांसारिक ज्ञान ही प्रदान करते है, उन का अपना जीवन भी प्रायः तीन वेदों के जानकार त्रिवेद्य ज्ञानी सोमरस का पान करने वाले एवम स्वर्ग की प्राप्ति के लिये यज्ञ करने वालो जैसा ही होता है। लाखो- करोड़ो में कोई एक ब्रह्मसन्ध होता है।

जो पुरुष निष्काम और तत्त्वदर्शी हैं, उन के विषय में भगवान् जो कहते हैं, उसे हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।।9.21।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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