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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.19 II

।। अध्याय     09.19 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्‌णाम्युत्सृजामि च ।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥

“tapāmy aham ahaḿ varṣaḿ,

nigṛhṇāmy utsṛjāmi ca..।

amṛtaḿ caiva mṛtyuś ca,

sad asac cāham arjuna”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! मैं ही सूर्य रूप में तप कर जल को भाप रूप में रोक कर वारिश रूप में उत्पन्न होता हूँ, मैं ही निश्चित रूप से अमर-तत्व हूँ, मैं ही मृत-तत्व हूँ, मै ही सत्य रूप में तत्व हूँ और मैं ही असत्य रूप में पदार्थ हूँ। (१९)

Meaning:

I provide heat, I hold back and send forth the rain. I am immortality and also death, I am real and also unreal, O Arjuna.

Explanation:

A recurring theme of this chapter is that we should see Ishvara everywhere, instead of looking only in things and places that our senses find pleasurable. In that regard, since we deal with the weather every day, it can become a great pointer to access Ishvara. However, anytime the climate becomes too hot, or there is excessive rain or drought, our body feels uncomfortable, and therefore we do not even think of Ishvara when those things happen.

The Puranas describe that when God first created the universe, He manifested the first-born Brahma and entrusted him with the work of further creation.  Brahma was bewildered by the task of creating the materials and the life-forms in the universe from the subtle material energy.  Then God revealed knowledge unto him, which is called the Chatuḥśhlokī Bhāgavat (the four-versed Bhagavatam), on the basis of which Brahma proceeded to create the world.  Its first verse states very emphatically:

Shree Krishna tells Brahma: “I am all that is.  Prior to creation, I alone existed.  Now that creation has come about, whatever is in the form of the manifested world is my very self.  After dissolution, I alone will exist.  There is nothing apart from Me.”

Shri Krishna says in the shloka that it is Ishvara that is providing the heat as the sun. So when it gets extremely hot, we should recognize that it is Ishvara that is providing the energy for the sun. And even though we may feel uncomfortable, we should realize that Ishvara has the welfare of the entire earth in mind. When it gets hot, the water on earth rises to form clouds, and is eventually sent back as rain. If the sun were never to give enough heat, we would never get any rain on earth.

Shri Krishna also says that Ishvara is found in immortality as well as in death. Symbolically, what is meant here is that knowing Ishvara as an infinite entity is real immortality, and knowing Ishvara as finite is death. When we see only waves and foam in the ocean, we will eventually see them “die”. But when we only see the ocean, there is no death whatsoever.

How do we develop such a vision? By knowing what is “sat” or real and what is “asat” or not real. Just because something is perceived by our senses, it does not automatically become real. Optical illusions are a great example. This echoes the lessons of the second chapter where Shri Krishna encourages us to develop “tattva drishti” or the vision of the essence, not of names and forms.

With this shloka, Shri Krishna concludes the topic on pointers of Ishvara. A new topic, forms of devotion, is taken up next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

कुवे के मेढ़क को समुंदर के बारे में बताये तो वह कुवे का चक्कर लगा कर उस की तुलना समुंदर से करेगा। किन्तु जब हम कल कल बहता झरना, नदी, नाले, पर्वत, धरती पर खिलते फूल, अन्न , दिन-रात, सूर्य – चंद्रमा, आकाश, पशु-पक्षी देखते है तो हमे लगता है कि कौन इन सब को नियंत्रित करता है। स्वतः कुछ भी नही होता, यदि यह किसी नियम या सिंद्धान्त के द्वारा भी काम कर रहे है, तो भी कोई तो इस का रचनाकार एवम नियंत्रण करने वाला होगा।

श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा से कहा, “मैं ही सब कुछ हूँ, सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही अस्तित्व में था। अब जब सृष्टि प्रकट हो चुकी है, इस प्रकट संसार का स्वरूप जो भी है वह सब मैं हूँ। प्रलय के पश्चात् भी केवल मैं ही रहूँगा। सृष्टि में मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं।” उपर्युक्त सत्य का तात्पर्य यह है कि संसार के जिस पदार्थ के साथ हम भगवान की आराधना करते हैं वह भी भगवान है। जब लोग गंगा की पूजा करते हैं तो वे अपने शरीर के निचले अंग को उसमें डुबाते हैं। फिर वे अपनी हथेलियों से जल उठाकर गंगा में डाल देते हैं। इस प्रकार से वे गंगाजल का प्रयोग उसकी पूजा के लिए करते हैं। उसी प्रकार से जब भगवान सभी अस्तित्त्वों में व्याप्त हैं तब उनकी पूजा करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले पदार्थ भी उनसे भिन्न नहीं हो सकते।

ब्रह्मा ने जीवन की रचना के बाद एक चक्र बनाया, जिस से जीवन चक्र चले। वर्षा, अन्न,समुंदर और सूर्य, बादल, वायु सभी एक चक्र का निर्माण करते है। जल ही जीवन है। जल वर्षा से प्राप्त होता है। इस की एक प्रक्रिया है कि सूर्य के ताप से समुंदर, नदी, तालाब का पानी वाष्प हो ऊपर उठ जाता है, फिर कम दवाब के क्षेत्र में यह मेघ बन कर बरस जाता है। जल का यह बरसना एक प्रक्रिया है जिस से अशुद्ध जल शुद्ध भी होता है एवम वर्षा के माध्यम से वितरित हो कर अन्न आदि उत्पन्न होता है और यह जीवन चलता है। परमात्मा का कहना है अग्नि से आहुति सूर्य को प्राप्त होती है और सूर्य से ताप, वाष्पीकरण की प्रक्रिया, एवम पुनः जल के रूप में बरसना एवम अन्न आदि की उत्पत्ति, यह जीवन की समस्त प्रक्रिया मै ही हूँ। परमात्मा हर स्थान, प्रकृति की प्रत्येक क्रिया में, हम जो सही मानते है और जो गलत समझते है, उस सब मे है।

इस प्रकार सूर्य का तपना, जमीन का सुखना, फिर वर्षा द्वारा जमीन के सिंचन यह प्रक्रिया जीवन की सतत प्रक्रिया है। जमीन के सूखने और सिंचित होने अर्थात जन्म से मृत्यु तक और फिर पुनर्जन्म तक की प्रत्येक प्रक्रिया में परमात्मा ही है। परमात्मा ब्रह्मांड के प्रत्येक क्रिया और कण कण में है अतः परमात्मा को जन्म में, मृत्यु में, सुख में, दुख में, सफलता में और असफलता में सभी मे समान रूप से देखना चाहिए। इसलिये भगवान आगे कहते है। ऋतु चक्र,   ऊर्जा, वर्षा और वर्षा से जीवन की यह प्रक्रिया मानव के बस में नही है, क्योंकि प्रकृति में जो सुलभ है, वही महत्वपूर्ण होते हुए भी, उपेक्षित है। इस सदाहरण से दिखने वाली असदाहरण प्रक्रिया में परमात्मा ही है, जो निरंतर इस सृष्टि का संचालन कर रहा है।

मैं ही सत एवम असत हूँ। तैत्तरीय उपनिषद के अनुसार सृष्टि के पूर्व असत ब्रह्म थे, नाम रूप विभाग से रहित सूक्ष्म चिदचिद विशिष्ट भगवान कारण स्वरूप थे। वही नामरूप विभागयुक्त सत हुए। क्योंकि उपनिषद के अनुसार जो है नही वो सत नही हो सकता। जो कारण था वही कार्य के रूप में होने से सत कहलाया। किन्तु गीता में सत का प्रयोग परब्रह्म स्वरूप के लिये करती है और असत उन सभी दृश्य सृष्टि को कहती है। इस के भेद के विवाद को भी गीता यह कह कर समाप्त कर देती है कि परमात्मा सत एवम असत दोनों ही है। वही सगुण और निर्गुण है, मैं ही अग्नि,  अग्नि से जलने वाला, जल कर जो शेष बचे और अग्नि जलाने और बुझाने वाला मैं ही हूँ। संसार मे जो भी विद्यमान है, वह परमात्मा के अतिरिक्त कुछ नही। जब अहम में कुछ अज्ञानी लोग कहते है कि परमात्मा नही है, तो वह भी मैं ही हूँ। अर्थात जन्म से मृत्यु तक हर स्वरूप, गति, कर्म आदि में तू मुझे ही देख।

परमात्मा कहते है कि जितना कुछ भी प्राणियों के अनुकूल वृति का विषय होता है वह अमृत तथा जो प्रतिकूल वृति का विषय होता है वह मृत्यु- इत्यादि अनुकूल प्रतिकूल वृति के विषय सब पदार्थ में मैं ही होता हूँ। अर्थात जड़-चेतन, सत-रज-तम, सत-असत, सगुण-निर्गुण, कार्य-कारण, अनुकूल-प्रतिकूल वृति या परिस्थिति जो कुछ है, वह सब ब्रह्म स्वरूप ही है।

मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ अर्थात् मात्र जीवों का प्राण धारण करते हुए जीवित रहना  और सम्पूर्ण जीवों के पिण्ड प्राणों का वियोग होना (मरना) भी मैं ही हूँ। सत् असत्, नित्य अनित्य,  कारण – कार्यरूप से जो कुछ है,  वह सब मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि जैसे महात्मा की दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव ही है – ऐसे ही भगवान् की दृष्टि में सत्असत्, कारण – कार्य सब कुछ भगवान् ही हैं। परन्तु सांसारिक लोगों की दृष्टि में सब एक दूसरे से विरुद्ध दीखते हैं जैसे जीना और मरना अलग अलग दीखता है, उत्पत्ति और विनाश अलग अलग दीखता है स्थूल और सूक्ष्म अलग अलग दीखते हैं, सत्त्व-रज-तम ये तीनों अलग अलग दीखते हैं,कारण और कार्य अलग अलग दीखते हैं, मिट्टी एवम घट या फिर जल और बर्फ अलग अलग दीखते हैं। परन्तु वास्तव में संसाररूप में भगवान् ही प्रकट होनेसे, भगवान् ही बने हुए होने से सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है। भगवान् के सिवाय उस की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। ब्रह्म असीमित से भी परे है क्योंकि असीमित में भी सीमा हो सकती है किंतु ब्रह्म की नही।

श्लोक 16 से 19 में परब्रह्म द्वारा अपने एकल स्वरूप का वर्णन किया, जिस में अन्य कोई भी तुलनात्मक नही होने से मैं शब्द का उपयोग ही अत्यधिक हुआ। जीव परब्रह्म का ही अंश है, यह जब मैं – मैं करता है तो यह जीव अज्ञान में प्रकृति से बंधा अहंकार या महंत में करता है। यही महंत का त्याग हो जाने से जीव पुनः परब्रह्म में विलीन हो जाता है। अपने को परब्रह्म के समान समझने वाला यह अज्ञानी जीव को यदि ज्ञान हो जाए तो वह समझ जाएगा जिस से यह सृष्टि रची है, जो कालातीत है, जिस का पर्याय, जन्म मृत्यु, सत – असत कुछ भी नही है, जिस का अन्य भी नही है, वही मैं है।

यद्यपि सर्वत्र परब्रह्म ही है तो भी सकाम हो कर भगवान के एकत्व और अनेकत्व स्वरूप की अर्चना करने वालो के लिये भगवान क्या कहते है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 9.19।।

Complied by: CA R K Ganeriwala (+91 9422310075)

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