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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.17 II

।। अध्याय     09.17 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.17

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।

वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च॥

“pitāham asya jagato,

mātā dhātā pitāmahaḥ..।

vedyaḿ pavitram oḿkāra,

ṛk sāma yajur eva ca”..।।

भावार्थ: 

इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का मैं ही पालन करने वाला पिता हूँ, मैं ही उत्पन्न करने वाली माता हूँ, मैं ही मूल स्रोत दादा हूँ, मैं ही इसे धारण करने वाला हूँ, मैं ही पवित्र करने वाला ओंकार शब्द से जानने योग्य हूँ, मैं ही ऋग्वेद (सम्पूर्ण प्रार्थना), सामवेद (समत्व-भाव) और यजुर्वेद (यजन की विधि) हूँ। (१७)

Meaning:

I am the father, mother, support and grandfather of this universe. I am the knowable, the purifier, the syllable Om, and the Rig, Saama and Yajur also.

Explanation:

Shri Krishna further elaborates on Ishvara’s infinite all- pervading nature by asserting that he is the father, mother and grandfather of this universe. A father’s nature is to protect the child and to push it to grow. A mother embodies the quality of nurture and impartiality, she will care for even the most misbehaved child. A grandfather is extremely attached to his grandchild and takes great pleasure in demonstrating affection towards the child, whereas the father may sometimes not show affection openly. Shri Krishna says that Ishvara treats every being in the universe like a caring family would.

All these verses continue with the same topic i. e. viśvarūpa Īśvaraḥ. God is everything. So He says I am mother; because the Lord is ardhanāreśavara; father also two-in-one; in that age itself; I am both father and mother, which means I am the intelligent cause behind the creation and I am the very material cause of the creation. I am the grandfather also; which means I do not have a father who has created Me, I am the ultimate father; I am fatherless father; which means I was never born; I am the causeless cause of the creation. It is said that Lord Shiva, when asked for his great grandfather’s name, replied “Shiva”. There is no further cause of this universe other than Ishvara.

Another pointer to Ishvara is “dhaata” or sustainer. As we have seen earlier, it is Ishvara in his infinite nature that holds the universe together in a state of harmony, where everything is in its place. I am dhata means the dispenser, distributor of everything to the jīvās; according to their karma phalam. Anything that is to be given to a jīvā, I decide. What type of body you should get, male or female; animal or human, healthy or sick body; I decide the body that you should have; and what is the longevity and during the life, what all you should get? every one of you; not only human beings; even every animal and insect what they should get, I alone determine.

Ishvara is also the three Vedas which are ultimate source of knowledge in the universe, the only knowledge that needs to be known. Their essence is captured in the syllable “Om”, which is considered the utmost purifier.  “I am the oṅkāraḥ, the essence of all the vēdās, the crux of all the

vēdās.”   In other words, once we see Ishvara in everything, everything becomes pure. I have explained the three vēdās before; rig vēdā is a vēdā in which r̥ik mantras are there; and r̥ik mantra is a mantra which is a metrical composition; which is in the form of poetry; poetic composition is r̥ik mantra; whereas yajur vēdā is a vēdā consisting of yajur mantra; and yajur mantra is a mantra in prose form, So rik is padya rūpam; yajur is gadya rūpam; and then sāma means music; therefore sama vēdā is a vēdā in which sāma mantras are there; which means there are mantras, which is set of music; they never say sāma pārāyaṇam; they say sama gānam; yujur gānam, r̥ik gānnam.

The next shloka contains a series of pointers to Ishvara which are considered the foundation of bhakti or devotion.

।। हिंदी समीक्षा ।।

परमात्मा ने इस अध्याय के आरंभ में राजगृह्य ज्ञान देने से पूर्व श्रद्धा एवम विश्वास से सुनने को कहा था। गीता में अर्जुन एवम कृष्ण का संवाद जीव एवम ब्रह्म का संवाद है। अतः जब सम्पूर्ण ब्रह्म का संकल्प यह जगत है तो ब्रह्म अपने परिचय में ‘मैं’ का प्रयोग एकत्त्व भाव के लिये करता है। भगवान स्वयं कहते कि कुछ अज्ञानी लोग उन के अवरित स्वरुप को ही परमात्मा मान लेते है, उन के लिये भगवान कृष्ण का “मैं” कहना अहम का विषय है। किंतु जो अनुसूय है, जिस की श्रद्धा, विश्वास और प्रेम परमात्मा के साथ है, वही परमात्मा के इस ज्ञान का सही अधिकारी है। जो विश्वरूप है जिस के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं, वहां “मैं” शब्द के अतिरिक्त अन्य शब्द का उपयोग भी कोई कैसे कर सकता है।

तृतीय प्रकार के भक्त के लिए परमात्मा अव्यक्त और विश्वरूप है तो वह कैसे पहचाना जा सकता है, उसी की यह कड़ी है।

जीव को भ्रम अपने कर्म, ज्ञान, सम्बन्धो, सुख-दुख और जन्म-मृत्यु आदि से पैदा होता है। इसलिये पूर्व श्लोक में समस्त कर्मो में परमात्मा द्वारा निमित्त बताया गया। अब सम्बन्धो एवम ज्ञान के विषय मे बताते है।

आत्मा कोई अस्पष्ट, अगोचर सत् तत्त्व नहीं कि जो भावरहित, संबंध रहित और गुण रहित हो। यह दर्शाने के लिए कि यही आत्मा ईश्वर के रूप में परम प्रेमस्वरूप है, परिच्छिन्न जगत् के साथ उसके सम्बन्धों को यहाँ दर्शाया गया है। मैं जगत् का पिता, माता, धाता और पितामह हूँ। माता, पिता और धाता इन तीनों से अभिप्राय यह है कि वह जगत् का एकमात्र कारण है और उसका कोई कारण नहीं है। यह तथ्य पितामह शब्द से दर्शाया गया है। इसलिये भगवान कहते है कि मैं ही सम्पूर्ण जगत का धाता अर्थात धारण करने वाला, पिता अर्थात पालन करने वाला, माता अर्थात उत्पन्न करने वाला एवम पितामह अर्थात मूल उदगम हूँ।

धाता का अर्थ धारण अर्थात जगत की प्रत्येक गतिविधि का कारण होना है। वह ही कर्म फलों का निर्णायक भी है और प्रदान करने वाला। उस के बनाए नियमो में प्रकृति कार्य करती है। अतः सृष्टि में सर्ग से ले कर प्रलय तक और पुनः पुनः निर्माण के लिए एकमात्र कारण ब्रह्म ही है। वह छोटे बड़े सभी जीवों का जन्म दाता है और जीव और प्रकृति की समस्त क्रियाओं का धाता भी है। अर्थात जीव की समस्त क्रियाएं उसी के द्वारा की जाती है। फिर यदि हम कहें कि यह दुख मेरे साथ ही क्यों? तो जानना होगा कि कुछ भी घटित यदि होता है तो पूर्व के संचित कर्म का ही फल है। इसलिए मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करते रहना चाहिए।

ब्रह्मा जी सृष्टि के रचयिता है और वो परमात्मा की नाभि से उत्पन्न कमल से पैदा हुए, इसलिये पितामह का सम्बंध बताया गया। किंतु यहां पितामह कहने का अर्थ यह भी है कि परमात्मा का कोई पिता नही है, वह शाश्वत है।

परमात्मा स्वयं सिद्ध है।यहाँ विशेष बल देकर कहा गया है कि जानने योग्य एकमेव वस्तु (वेद्य) मैं हूँ। इस बात को सभी धर्मशास्त्रों में बारम्बार कहा गया है आत्मा वह तत्त्व है जिसे जान लेने पर, अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है। आत्मबोध से अपूर्णता का, सांसारिक जीवन का और मर्मबेधी दुखों का अन्त हो जाता है। देहधारी जीव के रूप में जीने का अर्थ है, अपनी दैवी सार्मथ्य से निष्कासित जीवन को जीना। वास्तव में हम तो दैवी सार्मथ्य के उत्तराधिकारी हैं परन्तु अज्ञानवश जीव भाव को प्राप्त हो गये हैं। अपने इस परमानन्द स्वरूप का साक्षात्कार करना ही वह परम पुरुषार्थ है, जो मनुष्य को पूर्णतया सन्तुष्ट कर सकता है।सम्पूर्ण विश्व के अधिष्ठान आत्मा को वेदों में ओंकार के द्वारा सूचित किया गया है। जहां एक दूसरे से पृथक रहने वाले ज्ञान मार्गो का मेल-मिलाप होता है जिसे पवित्र नाम से पुकारते है और आदि संकल्प रूपी ब्रह्म बीज से अंकुरित नाद स्वरूप घोष का मूल स्थान जो ओंकार है, वह भी मैं ही हूँ। उस ओंकार के कुक्षि में रहने वाले अकार, उकार और मकार यह तीनों अक्षर वेदों से साथ उत्पन्न हुए है, वे अक्षर  भी मैं ही हूँ। हम अपने जीवन में अनुभवों की तीन अवस्थाओं से गुजरते हैं जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। इन तीनों अवस्थाओं का अधिष्ठान और ज्ञाता (अनुभव करने वाला) इन तीनों से भिन्न होना चाहिए, क्योंकि ज्ञाता ज्ञेय वस्तुओं से और अधिष्ठान अध्यस्त से भिन्न होता है। इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न उस तत्त्व को, जो इन को धारण किये हुये है, उपनिषद् के ऋषियों ने तुरीय अर्थात् चतुर्थ कहा है। इन चारों को जिस एक शब्द के द्वारा वेदों में सूचित किया गया है वह शब्द है ” ॐ “। ॐ ही आत्मा है।  इसलिये परमात्मा कहते है सभी वेदो द्वारा जानने योग्य बीज ओंकार में ही हूँ। मै ही ऋग्वेद, यजुवेद, सामवेद एवम ‘च’ से अर्थववेद हूँ।

सामान्य भाषा में वेद का अर्थ है “ज्ञान”। वस्तुत: ज्ञान वह प्रकाश है जो मनुष्य-मन के अज्ञान-रूपी अन्धकार को नष्ट कर देता है। वेद पुरातन ज्ञान विज्ञान का अथाह भंडार है। इसमें मानव की हर समस्या का समाधान है। वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। 

ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं। वेद के विभाग चार है: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज संस्कार होने के कारण एवम शुद्र को एक जातीय संस्कार न होने के कारण कहा जाता है उसी प्रकार ऋग्वेद, यजुवेद एवम सामवेद में एकता के कारण त्रयी और विशेष धर्म के अर्थव वेद अलग कहा जाता है।

परमात्मा के स्वरूप का विस्तार से वर्णन 10, 11 एवम 12 अध्याय में किया गया है किंतु सम्बन्धो से जोड़ कर यहाँ परमात्मा स्वयम को प्रकट इसलिये कर रहे है क्योंकि अर्जुन का युद्ध मे मोह सम्बन्धो से हुआ था। सम्बन्ध होते ही भावना एवम विचार बदल जाते है, उन से आत्मिक रिश्ता जुड़ जाने से उस के दुख एवम सुख अपने लगते है। यदि यह सम्बन्ध परमात्मा से हो तो जीव का पृथक भाव समाप्त होता है। हम लोग बचपन से ही प्रार्थना करते आये है।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव॥

आगे परमात्मा जीव में अपने स्वरूप के बारे क्या कहते है, पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। 9.17।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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