।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.16 II Additional II
।। अध्याय 09.16 II विशेष II
।। ज्ञानेश्वरी में ब्रह्म रूप यज्ञ का बहुत सुंदर वर्णन है ।। गीता विशेष 9.16 ।।
परब्रह्म में ‘एकोSहं बहुस्याम प्रजायेय’ वाला आदि संकल्प उत्पन्न होता है, वह इस यज्ञ का यज्ञ स्तम्भ है। पंचमहाभूत यज्ञ मंडप है और द्वेत यज्ञ पशु है। फिर पंचमहाभूतो के जो विशेष गुण अथवा इंद्रियां तथा प्राण है वही ज्ञान यज्ञ की सामग्री है। अज्ञान घृत है, जो इस यज्ञ में हवन करने के काम आता है। इस ज्ञान यज्ञ में मन और बुद्धिरूपी कुंडों में ज्ञानाग्नि धधकती रहती है। साम्य भावना को ही इस ज्ञान यज्ञ की सुंदर वेदी जानना चाहिए। विवेकयुक्त बुद्धि की कुशलता ही मंत्र की शक्ति है, शांति ही इस का यज्ञ पात्र है तथा जीव यज्ञ करने वाला यजमान है।
यही यज्ञकर्ता जीव ब्रह्मानुभव के पात्र में से विवेक रूपी महामंत्रों के द्वारा ज्ञान रूपी अग्नि के होम में द्वेत की आहुति देता है। जिस समय अज्ञान का अंत हो जाता है, उस समय यज्ञ करने वाला यजमान और यज्ञविधि दोनों का अवसान हो जाता है। फिर जब आत्मेक्य के जल में जीव अवभृथ स्नान करता है, तब भूत, विषय और इंद्रियां अलग अलग नहीं दिखाई देती। आत्मेक्य बुद्धि के पूर्णतयः प्रतिबिम्ब हो जाने के कारण सब कुछ एक ब्रह्म रूप ही जान पड़ता है। वह सब कुछ मै ही था और अब भी वह सब कुछ मैं ही हूँ।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 9.16 ।।
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