।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.15 II
।। अध्याय 09.15 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.15॥
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥
“jñāna-yajñena cāpy anye,
yajanto mām upāsate..।
ekatvena pṛthaktvena,
bahudhā viśvato- mukham”..।।
भावार्थ:
कुछ मनुष्य ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ करके, कुछ मनुष्य मुझे एक ही तत्व जानकर, कुछ मनुष्य अलग-अलग तत्व जानकर, अनेक विधियों से निश्चित रूप से मेरे विश्व स्वरूप की ही पूजा करते हैं। (१५)
Meaning:
Others, offering the sacrifice of knowledge, worship me with oneness, separateness and also multifaceted diversity.
Explanation:
Shri Krishna radically defines our notion of Ishvara worship in this shloka. He says that recalling and remembering the infinite nature of Ishvara throughout our lives is a form of worship called jnyaana yaganya or the sacrifice of knowledge. Unlike most forms of worship, we can perform it without any effort anytime, anywhere. All we have to do is to learn to see Ishvara in everything.
Those who follow the path of jñāna- yog consider themselves to be non- different from God. They contemplate deeply on sūtras such as: so ’haṁ (I am That), śhivo ’haṁ (I am Shiv), etc. Their ultimate goal is to attain realization of the Supreme Entity as the undifferentiated Brahman, which possesses the attributes of eternality, knowledge, and bliss, but is devoid of forms, qualities, virtues, and pastimes. Shree Krishna says that such jñāna yogis also worship Him, but in His formless all-pervading aspect. In contrast, there are varieties of aṣhṭāṅg yogis etc. who see themselves as distinct from God and relate to Him accordingly.
There are several spiritual traditions that have somewhat differing notions of Ishvara’s nature. The tradition of Adi Shankaracharya, which this book tries to follow closely, views the jeeva and Ishvara as one. Acharya Ramanuja’s tradition views jeeva as a part of Ishvara. Acharya Madhva’s tradition views the jeeva and Ishvara as separate entities. Shri Krishna enumerates all of these viewpoints in this shloka, then reconciles all three by saying that all are equally valid as sacrifices of knowledge.
Regardless of the tradition followed, Shri Krishna urges us to continuously perform the sacrifice of knowledge so that we weaken our individuality while strengthening our faith in Ishvara. When we see more Ishvara in everything and everyone, our likes and dislikes start thinning down as well. We also begin to realize that all our joys and sorrows are tied to our actions, and so we begin to treat everything as a “prasaada” or Ishvara’s gift.
Still others worship the manifest universe as God. In Vedic philosophy, this is called viśhwaroop upāsanā (worship of the cosmic form of God). In western philosophy, it is called “Pantheism” from the Greek words pan (all) and theos (God). The most famous exponent of this philosophy has been Spinoza. Since the world is a part of God, keeping a divine sentiment toward it is not wrong, but it is incomplete. Such devotees do not have knowledge of the other aspects of the Supreme Divine Entity, such as Brahman (God’s undifferentiated all-pervading manifestation), Paramātmā (the Supreme Soul seated in everyone’s hearts), and Bhagavān (the personal form of God).
Shri Krishna now begins to give us pointers on where and how to see Ishvara.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में स्मरण एवम समर्पण करते हुए भजन एवम कीर्तन द्वारा प्रभु की आराधना को जाना। अब परमात्मा उन के विषय मे बता रहे है जो ज्ञान यज्ञ द्वारा उन्हें प्राप्त करते है।
ज्ञान का अर्थ है जो चीज जैसी है उसे उसी रूप में ठीक से जानना। इस के लिये स्वाध्याय करना एवम भगवान के अठारहवे अध्याय के अनुसार गीता के धर्ममय संवाद का अध्ययन करना भी ज्ञान यज्ञ है। यह सम्पूर्ण सृष्टि एक मात्र परमात्मा के संकल्प से उत्पन्न हुई है एवम सृष्टि का कण कण पृथक्त्व एवम एकत्व भाव से एक ही परमात्मा का स्वरूप है।
जीव का प्रकृति से सम्बन्ध अनित्य एवम दुख का कारण है क्योंकि जो स्वयं नाशवान है उस से सम्बंध भी स्थायी नही होगा। अपने स्वरूप को पहचाना एवम अज्ञान को नष्ट करना ही ज्ञान है।
परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान से ही आकलन कर के उस के द्वारा सिद्ध हो जाना। परमेश्वर का ज्ञान द्वेत एवम अद्वेत आदि भेदों में एकत्व एवम पृथक्त्व आदि अनेक रूप में होते हुए भी एक मात्र परमेश्वर तक पहुचता है। ज्ञान यज्ञ का स्वरूप के अनुसार शरीर, इन्द्रिय और मन द्वारा होने वाले समस्त कर्मो में, मायामय गुण ही गुणों को बरत रहे है – ऐसा मानते हुए कर्ता पन के अभिमान से रहित रहना, सम्पूर्ण दृश्य वर्ग को मृग तृष्णा के जल सदृश्य या स्वप्न के संसार के समान अनित्य समझना, तथा एक सच्चिदानंदघन निर्गुण निराकार पर ब्रह्म परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता न मान कर निरंतर उसी का श्रवण, मनन एवम निदिध्यासन करते हुए उस सच्चिदानंदघन ब्रह्म में नित्य अभिन्न भाव से स्थित रहना ही ज्ञान यज्ञ है।
प्रारम्भिक अवस्था में सर्वत्र आत्मदर्शन की साधना प्रयत्न साध्य होने के कारण उस में साधक को कष्ट और तनाव का अनुभव होता है। परन्तु जैसे जैसे साधक की आध्यात्म दृष्टि विकसित होती जाती है, वैसे वैसे उस के लिए यह साधना सरल बनती जाती है और वह एक ही आत्मा को इसके ज्योतिर्मय वैभव के असंख्य रूपों में छिटक कर फैली हुई देखता है। यही है विश्वतो मुखम् ईश्वर का विराट् स्वरूप।ज्ञानी पुरुष न केवल यह जानता है कि नानाविध उपाधियों से आत्मा सदा असंस्पर्शित है, अलिप्त है, वरन् वह यह भी अनुभव करता है कि विश्व की समस्त उपाधियों में वही एक आत्मा क्रीड़ा कर रही है। एक बार आकाश में स्थित जगत् से अलिप्त सूर्य को पहचान लेने पर, यदि हम उसके असंख्य प्रतिबिम्ब भी दर्पणों या जल में देखें, तब भी एक सूर्य होने का हमारा ज्ञान लुप्त नहीं हो जाता। सर्वत्र हम उस एक सूर्य को ही देखते और पहचानते हैं।
परमेश्वर सर्व व्याप्त है, समस्त विश्व उसी से ही उत्पन्न है। यह विश्व रूप में परमात्मा ही है, इसलिये चंद्र, सूर्य अग्नि, इंद्र, वरुण आदि विभिन्न देवता तथा और भी समस्त प्राणी उस एक और मात्र एक परमात्मा का स्वरूप है। इस जगत की समस्त क्रिया एवम कार्य का कर्ता एक मात्र परमात्मा है, इस प्रकार से पृथक्त्व भाव से एकत्व भाव को जानना ही ज्ञान है। इसी प्रकार जगत के समस्त कार्य यथा योग्य निष्काम भाव से सेवा करते हुए करना ही ज्ञान यज्ञ है।
ब्रह्म ज्ञान के जीव निर्गुणकार ब्रह्म की उपासना करता है या प्रारम्भ में उस के सगुणाकार स्वरूप में शिव, विष्णु, कृष्ण या राम आदि किसी भी रूप में उपासना करता है। परमात्मा का कहना है, ज्ञान के साथ उस के किसी भी स्वरूप की उपासना करने से वह उसे ही प्राप्त होती है।
यदि कोई पुरुष अपने मन की शान्ति और समता को किसी एकान्त और शान्त स्थान में ही बनाये रख सकता है, तो वेदान्त के अनुसार, उसका आत्मनुभव कदापि पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। यदि केवल समाधि स्थिति के विरले क्षणों में ही उसे आत्मानुभूति होती है, तो ऐसा पुरुष, वह तत्त्वदर्शी नहीं है, जिसकी उपनिषद् के ऋषियों ने प्रशंसा की है। यह तो हठयोगियों का मार्ग है।
अन्तर्बाह्य सर्वत्र एक ही आत्मतत्त्व को पहचानने वाला ही वास्तविक ज्ञानी पुरुष है। एक तत्त्व सबको व्याप्त करता है परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता। ऐसे अनुभवी पुरुष के लिए किसी व्यापारिक केन्द्र का अत्यन्त व्यस्त एवं तनावपूर्ण वातावरण हो या किसी भी कार्य का क्षेत्र हो, आत्मदर्शन के लिए उतना ही उपयुक्त है जितना हिमालय की घाटियों की अत्यन्त शान्त और एकान्त कन्दराओं का। वह चर्मचक्षुओं से नहीं, वरन् ज्ञान के अन्तचक्षुओं से सर्वत्र एकमेव अद्वितीय आत्मा का ही दर्शन करता है।
आत्मज्ञानी पुरुष जानता है कि उस की आत्मा ही अपने अनन्त साम्राज्य में सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किये हुए हैं एक रूप में, पृथक् रूप में और विविध रूप में। वेदान्त प्रतिपादित दिव्यत्व की पहचान और अनन्त का अनुभव अन्तर्बाह्य जीवन में है। कोई संयोगवश प्राप्त यह क्षणिक अनुभव नहीं है। यह कोई ऐसा अवसर नहीं है कि जिसे लड्डू वितरित कर मनाने के पश्चात् सदा के लिए उस अनुभव से निवृत्ति हो जाय। जिस प्रकार विद्यालयी शिक्षा से मनुष्य द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान समस्त कालों और परिस्थितियों में यहाँ तक कि स्वप्न में भी उसके साथ रहता है, उससे भी कहीं अधिक शक्तिशाली, कहीं अधिक अंतरंग और कहीं अधिक दृढ़ ज्ञानी पुरुष का आत्मानुभव होता है। आत्मवित् आत्मा ही बन जाता है।
व्यवहार में ईश्वर के प्रति अनपढ़ या अज्ञान में धारणा एक ऐसे शक्तिशाली पुरुष की होती है जो मनुष्य नही कर सकता, वह कर सकता है। व्यक्ति प्रकृति और संकट से अपनी रक्षा का मार्ग खोजता है और फिर ऐसे ईश्वर का आश्रय लेता है जो उसे इन सब से बचा सके। इसलिए जंगल में आदिवासी के देवता वन देवता होते है। और सामान्य जन के देवता सगुण कोई भी हो जाता था।
परंतु ज्ञान की वृद्धि से यह समझ में आने लगता है कि यह संसार की रचना करने वाला ही ईश्वर है। वह जन जन में बसा हुआ है तो ईश्वर का स्वरूप बदल कर एक से अधिक मुख या हाथो वाला, सभी कार्य को नियंत्रित करने वाला और अच्छे बुरे का फैसला कर न्याय देने वाला और संकटों से हमारी रक्षा करने वाला हो जाता है। व्यक्ति जीवन को जीता कितना है यह पता नही किंतु समय चक्र से वह बालक से जवान और वृद्ध होने से पूरा जीवन खाने – पीने, निर्वाह के लिए काम करने, शादी और बच्चे पैदा कर के उन्हे बड़ा करने या सुखों की तलाश में ही निकल जाता है। इन सब में ईश्वर उस के आत्मविश्वास को बनाए रखने का सहारा बन जाता है। किंतु उसे करना क्या है, पता नही होता।
संसार की रचना करने वाला और सभी के हृदय में रहने वाला ईश्वर जब संसार के सभी कार्य में लिप्त है तो उसे यह उत्तर देना कठिन होता है कि चोरी, बलात्कार, हिंसा या हत्या और अनैतिक कार्य करने वाला यदि ईश्वर नही है तो कौन है? क्यों वह व्यक्ति या अबोध बालक अनहोनी का शिकार होता है जिसे वह नही करता या संकट उसे ज्यादा झेलने पड़ते है जो भगवान की पूजा करता है और अपराधी मजे करता है।
यह ईश्वर के बहु रूप में पूजा है या अव्यक्त स्वरूप में, परंतु ईश्वर के संपूर्ण ज्ञान के अभाव में यह व्यक्ति हमेशा अस्थिर मन का ही रहता है। अधिकांशतः इस अवस्था में ईश्वर की आराधना में सांसारिक या परासांसारिक सुखों की कामना या आसक्ति जुड़ी रहती है।
क्योंकि यह द्वितीय अवस्था का ईश्वर का ज्ञान आस्था और विश्वास पर है, इसलिए संसार में विभिन्न मतों, संप्रदाय और धर्म का प्रदुर्भाव भी होता है और कभी कभी या प्राय आस्था में अंध विश्वास भी जन्म ले लेती है। यही आस्था में मेरा ईश्वर तुम्हारे ईश्वर से बड़ा है, मतभेद और हिंसा का कारण होती है। मजेदार बात यह है कि ज्ञान की प्रथम अवस्था में जहां ईश्वर व्यक्ति की सुरक्षा और चमत्कार से भरा हो, वहां ईश्वर को ले कर कोई हिंसा नही होती।
तीसरी स्थिति उन ज्ञानी पुरुषो की है जो ईश्वर के सगुण, निर्गुण या व्यक्त या अव्यक्त स्वरूप के परे ज्ञानयोग से साक्षी, सर्वव्याप्त, अकर्ता और नित्य स्वरूप को देखते है। उन के अनुसार ईश्वर में सृष्टि की रचना नही की किंतु सृष्टि की रचना का कारण वही है। उस का ईश्वर एक रूप या बहू रूप नही हो कर अरूप अर्थात सर्वव्याप्त और अव्यक्त है।
ईश्वर के ज्ञान या ईश्वर के स्वरूप में वृद्धि मनुष्य के ज्ञान के साथ साथ ही होती है। क्योंकि ईश्वर मनुष्य से ऊपर है और जैसे जैसे मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है, उस का ईश्वर भी सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ता है।
यही कारण अनुभव और ज्ञान के आधार में अनेक ऋषि मुनियों ने परमात्मा के विषय में अनेक सिद्धांत रचे है जिस में प्रमुख द्वैत, अद्वैत, विशिष्ठाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि प्रमुख है।
जिस एकत्व एवम पृथक्त्व भाव परमेश्वर का स्वरूप बताया गया है अब उसी पृथक्त्व स्वरूप का निरूपण आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।।9.15।।
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