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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.14 II

।। अध्याय     09.14 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.14

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥

“satataḿ kīrtayanto māḿ,

yatantaś ca dṛḍha- vratāḥ..।

namasyantaś ca māḿ bhaktyā,

nitya- yuktā upāsate”..।।

भावार्थ: 

ऎसे महापुरुष दृड़-संकल्प से प्रयत्न करके निरन्तर मेरे नाम और महिमा का गुणगान करते है, और सदैव मेरी भक्ति में स्थिर होकर मुझे बार-बार प्रणाम करते हुए मेरी पूजा करते हैं। (१४)

Meaning:

Always glorifying me with resolute effort, and venerating me devotedly, they are constantly engaged in my worship.

Explanation:

Shri Krishna begins to enumerate the qualities of those noble individuals that have gained knowledge of Ishvara’s infinite nature. We should try to bring as many qualities as we can into our lives, and not think that they are only for some select extraordinary people.

Firstly, Shri Krishna says that these noble individuals perform “keertan” and “bhajan”. Typically, we tend to think of keertan means 

singing glories of the Names, Forms, Qualities, Pastimes, Abodes, and Associates of God is called kīrtan generally  in front of a deity. But here, the meaning is deeper. Keertan here means the three step process of hearing scriptures (shravanam), resolving doubts (mananam) and internalizing the knowledge (nidhidhyaasanam). It is only through this process that the true nature of Ishvara is understood.

It is also imperative to perform keertan as frequently as possible. As we have seen so far, Prakriti needs no help in order to ensnare us daily with the temptation of name and form. Also, Prakriti is not just responsible for visible objects but also thoughts, feelings, emotions and memories that can lead to straying away from Ishvara. Repeated keertan is the only way to guard against such distractions. The mind is as restless as the wind, and naturally wanders from thought to thought.  Hearing and chanting engage the knowledge senses in the divine realm, which helps in repeatedly bringing back the mind from its wanderings.

All the famous bhakti Saints—Soordas, Tulsidas, Meerabai, Guru Nanak, Kabir, Tukaram, Ekanath, Narsi Mehta, Jayadev, Tyagaraja, and others—were great poets.  They composed numerous devotional songs, and through them, they engaged in chanting, hearing, and remembering.

“The best process of devotion in the age of Satya was simple meditation upon God.  In the age of Tretā, it was the performance of sacrifices for the pleasure of God.  In the age of Dwāpar, worship of the deities was the recommended process.  In the present age of Kali, it is kīrtan alone.”

Shri Krishna also emphasizes the power of “vrata” or resolution. Most spiritual traditions encourage practices like fasting or abstaining from pleasures during certain days. Observance of such vows strengthens our will power so that we can use that inner strength towards fending off Prakriti. Knowledge of Ishvara, without the will power to remain established in that knowledge, will not work. If someone cannot even remain without food for a day, it will be difficult for them to deal with the might of Prakriti.

Another aspect of the noble individuals is that they do “namaskaara” to Ishvara, which means that they offer themselves to Ishvara. When things are going well, it is easy to accept the will of Ishvara. However, many individuals begin to lose faith in Ishvara when they go through a rough period in their lives. True veneration happens when we realize that even the rough period in our life happens for a reason that we will understand in the course of time.

Broadly speaking, Shri Krishna wants the devotee to dedicate not just his intellect but also his mind. Unless we engage with anything at an emotional level, our pursuit will always be dry, academic and partial. It will be like a PhD student who forgets what he learned right after he receives his degree.

So therefore, Shri Krishna says that individuals with these qualities are the true devotees. They have understood the true method of “upanasanaa”, of worshipping Ishvara. That is why they remain “nitya yukta” or always united and connected with Ishvara, and also, Ishvara remains ever united with them.

Next, Shri Krishna enumerates the different ways in which these noble individuals worship Ishvara.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व श्लोक में देवी सम्पद गुणों से युक्त महात्मा एवम उच्च श्रेणी के लोगो के बारे में हम ने जाना। यह लोग दृढ़निश्चय वाले लोग होते है जिन्होंने अपना सम्बन्ध परमात्मा से जोड़ लिया। ये लोग सभी जीव में परमात्मा को ही देखते है एवम परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही कर्म करते है। परमात्मा के प्रति इन का निश्चय, इन की श्रद्धा, इन के विचार, इन के नियम इतने दृढ़ होते है कि कोई भी विपत्ति इन को परमात्मा के प्रति इन की निष्ठा को डिगा नही सकती। मन से शुद्ध हो कर परमात्मा का नाम लेते है, भजन कीर्तन करते है, भजन कीर्तन करते करते भाव विभोर हो कर नृत्य करने लगते है। इन के समस्त कर्म निष्काम होते है। यह दुसरो की सेवा भी भगवान की सेवा समझ कर ही करते है। परमात्मा के प्रति समर्पित यह तन, मन, धन एवम कर्म से परमात्मा को ही भजते है।

भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम और संतों की महिमा का गुणगान करना कीर्तन कहलाता है। भक्ति योग मार्ग के अनुयायी संत सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, कबीर, तुकाराम, एकनाथ, नरसी मेहता, जयदेव, त्यागराज चेतन्यमहाप्रभु, मीरा, भरत आदि महान कवि थे। इन्होंने भक्ति रस से पूर्ण सुंदर काव्य और भजनों की रचना की जिनके द्वारा वे भगवान की महिमा के गायन, श्रवण और स्मरण में निमग्न रहे। वैदिक ग्रंथ भी विशेष रूप से कलियुग में भक्ति के सुगमतम और सशक्त माध्यम के रूप में कीर्तन पद्धति की सराहना करते हैं।

सतयुग में भक्ति का उत्तम साधन सरलतम विधि द्वारा भगवान का ध्यान करना था। त्रेता युग में यह साधन भगवान के सुख के लिए यज्ञों का अनुष्ठान करना था और द्वापर युग में मूर्ति पूजा पद्धति अनुशंसित प्रक्रिया थी। वर्तमान कलियुग में केवल कीर्तन का महत्व है।

भक्त के भजन कीर्तन गायन करते हुए इतने भाव विभोर हो जाते है कि तुसलीदास जी को भी कहना पड़ा मम गुन गावत पुलक सरीरा। गद गद गिरा नयन बह नीरा । भरत जी के राम कीर्तन को तुलसी दास ने वर्णन करते हुए कहा है पुलक गात हिय हिय रघुवीर। जीह नाम जप लोचन नीरू।। मुनि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण कीर्तन करते हुए नाचते है कबहुँ क नृत्य करहि गुन गाई। भक्तों के प्रेम एवम समर्पण में परमात्मा का स्मरण अद्वितीय एवम अलौकिक होता है, उन के कीर्तन से ही सम्पूर्ण वातावरण शुद्ध एवम सात्विक हो जाता है।

आत्मसंगठन एवं आत्मविकास के दो अन्य मुख्य मार्ग बताये गये हैं अनन्य भक्ति और यज्ञ भावना से किये जाने वाले निष्काम कर्म। श्रद्धाभक्ति पूर्वक अपने आदर्श ईश्वर की पूजा करना और उनके यश कीर्ति प्रताप का गान करना, उस मन की मौन क्रिया है जो विकसित होकर अपने आदर्श को सम्यक् रूप से समझता है तथा जिनका गौरव गान करना उस ने सीखा हैं। अतः कीर्तन या व्रत के शाब्दिक अर्थ न हो कर एक निष्ठ हो कर परमात्मा की उपासना करना है। कीर्तन का पारमार्थिक अर्थ श्रवण, मनन और निदिध्यासन से लिया जाता है क्योंकि चंचल मन जब भटकने लगता है तो जोर जोर से लय और ताल के साथ जब परमात्मा को याद करना शुरू हो जाता है, तो भटकता मन भी परमात्मा में ही आ कर टिक जाता है और कीर्तन करने वाले को संसार की सुध बुध नही रहती, वह एक तरह से परमात्मा में लीन हो कर उसे भजता जाता है।

अनेक लोग दिनभर संदिग्ध कार्यों में व्यस्त रहते हुए रात्रि में किसी स्थान पर एकत्र होकर उच्च स्वर में कुछ समय तक भजनकीर्तन करते हैं और तत्पश्चात् उन्हीं अवगुणों के कार्य क्षेत्रों में पुन लौट जाते हैं। इन लोगों के कीर्तन की अपेक्षा सामाजिक कार्यकर्ताओं की समाज सेवा और ज्ञानी पुरुष के हृदय में प्राणिमात्र के लिये उमड़ता प्रेम ईश्वर का अधिक श्रेष्ठ और प्रभावशाली कीर्तन है।

संत हृदय सात्विक लोग अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति को परमात्मा के प्रति समर्पित करने हेतु उपवास और व्रत करते है और नियम से पूरे समय रहते है। कीर्तन और व्रत उपवास के अतिरिक्त नमन अर्थात परमात्मा के प्रति श्रद्धा, प्रेम, और विश्वास के साथ सर को झुका कर अपने को समर्पित करते है। यह जीव का अपने अहंकार को त्याग कर उस परमात्मा के प्रति समर्पण होता है, जो इस पूरे संसार का पालन करता है।

अतिभोतिक, अतिदैविक और आध्यात्मिक जगत में जीव का अस्तित्व नगण्य से भी कम अर्थात शून्य होता है। अपने अहंकार में वह बड़े बड़े से कामों को अंजाम देता है। किंतु  जो जानता है कि यह जो कुछ भी कार्य होता है, वह उस के कारण नही, उस को निमित्त बना कर प्रकृति ही करती है। वह हमेशा अहंकार की अपेक्षा परमात्मा के समक्ष उन के अनुग्रह और सहयोग के लिए अपनी कृतज्ञता के स्वरूप बार  बार नमन करता है। जिस से उस का विवेक जाग्रत रहे और उसे अच्छे कर्म की प्रेरणा मिलती रही और प्रत्येक कार्य में उस के प्रति परमात्मा का अनुग्रह भी बना रहे।

अधिकतर लोगों का धारणा यह होती हैं कि सप्ताह में किसी एक दिन केवल शरीर से यन्त्र के समान पूजन अर्चन, व्रत उपवास आदि करने मात्र से धर्म के प्रति उन का उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है। उन्हें इतना करना ही पर्याप्त प्रतीत होता है। फिर शेष कार्य उनके काल्पनिक देवताओं का है, जो साधना के फल को तैयार करके इनके सामने लायें, जिस से ये लोग उस का भोग कर सकें इस विवेकहीन, अन्धश्रद्धाजनित धारणा का आत्मोन्नति के विज्ञान से किञ्चित् मात्र संबंध नहीं है। वास्तव में धर्म तो तत्त्वज्ञान का व्यावहारिक पक्ष है। यदि कोई व्यक्ति वर्तमान जीवन एवं रहन सहन सम्बन्धी गलत विचारधारा और झूठे मूल्यांकन की लीक से हटकर आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता हो, तो उसके लिए सतत और सजग प्रयत्न अनिवार्य है। जीवन में जो असामंजस्य वह अनुभव करता है, और उसके मन की वीणा पर जीवन की परिस्थितियाँ जिन वर्जित स्वरों की झनकार करती हैं इन सब के कारण उसके अनुभवों के उपकरणों (इन्द्रियाँ, मनबुद्धि) की अव्यवस्था है। उन्हें पुर्नव्यवस्थित करने के लिए अखण्ड सावधानी, निरन्तर प्रयत्न और दृढ़ लगन की आवश्यकता है। इस प्रकार आत्मोद्धार के लिए प्रयत्न करते समय, शारीरिक कामवासनाओं को उद्दीप्त करने वाले प्रलोभन साधक के पास आकर कानाफूसी करके उसे निषिद्ध फल को खाने के लिए प्रेरित करते हैं, परन्तु ऐसे प्रबल प्रलोभनों के क्षणों में उसे मिथ्या का त्याग करने का और सत्य के मार्ग पर स्थिरता से चलने का दृढ़ निश्चय करना चाहिए। विशुद्ध प्रेम ही वास्तविक भक्ति है।

परब्रह्म की उपासना के लिये श्रवण, मनन एवम निदिध्यासन तीन श्रेणी है। श्रवण का अर्थ है ज्ञान एवम कर्मेन्द्रियों से परमात्मा को याद करना, पुकारना, उन का जाप करना, भजन कीर्तन आदि। जिस से संसार की भौतिक दुखो एवम सुखों के अज्ञान की तरफ मन भी भटके। इस का दूसरा स्वरूप है, जब मन स्थिर एवम एकाग्र हो कर परमात्मा की ओर लगने लगे तो परमात्मा का मनन एवम चितन करना। श्रवण में संसार से विरक्ति है, मनन एवम चिन्तन में मन को परमात्मा से जोड़ना है। जब तक मन परमात्मा से नही जुड़ता, तब तक जीव प्राकृतिक प्राणी ही है। जब मन चिंतन एवम मनन से परमात्मा से जुड़ जाता है तो निदिध्यासन द्वारा अपने अहम को त्याग कर परमात्मा में लीन होना है। निदिध्यासन का अर्थ यह नही है कि जीवन समाप्त हो गया है, जीवन रहता है किंतु उस मे अहम, कामना या आसक्ति नही रहती। जब तक निदिध्यासन नही है तो चिंतन या मनन तक परमात्मा के साथ और उस के बाद प्रकृति के साथ जीव जीता है। यही कारण है कि पूजा के तुरंत बाद या दुकान खोलनेके समय हो जाये तो कीर्तन नही होता।  इसलिये भगवान का भजन करने वालो के लिये श्रद्धा प्रेम, विश्वास के साथ समर्पण करने के अतिरिक्त दृढ़ संकल्प शब्द का भी वर्णन किया है। भजन-कीर्तन समय या दैनिक दिनचर्या का भाग न हो कर प्रभु के प्रति मोक्ष एवम समर्पण के दृढ़ संकल्प के साथ भी होना चाहिए।

वे दृढ़व्रती भक्त अर्थात् जिनका निश्चय दृढ़स्थिरअचल है ऐसे वे भक्तजन सदानिरन्तर ब्रह्मस्वरूप मुझ भगवान् का कीर्तन करते हुए तथा इन्द्रियनिग्रह, शम, दम, दया और अहिंसा आदि धर्मोंसे युक्त होकर प्रयत्न करते हुए एवं हृदय में वास करनेवाले मुझ परमात्मा को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हुए और सदा मेरा चिन्तन करनेमें लगे रहकर, मेरी उपासना सेवा करते रहते हैं।

आत्मसंगठन एवं आत्मविकास के दो अन्य मुख्य मार्ग बताये गये हैं अनन्य भक्ति और यज्ञ भावना से किये जाने वाले निष्काम कर्म।

मनुष्य का भगवान् के साथ ‘मैं’ भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं’, ऐसा जो स्वयं का सम्बन्ध है, वह जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति इन अवस्थाओं में, एकान्त में भजन- ध्यान करते हुए अथवा सेवारूपसे संसार के सब काम करते हुए भी कभी खण्डित नहीं होता, अटलरूप से सदा ही बना रहता है।

इस प्रकार मेरे अनन्यभक्त निरन्तर मेरी उपासना करते हैं। निरन्तर उपासना करनेका तात्पर्य है कि वे कीर्तन- नमस्कार आदि के सिवाय जो भी खाना- पीना, सोना- जगना तथा व्यापार करना, खेती करना आदि साधारण क्रियाएँ करते हैं, उन सबको भी मेरे लिये ही करते हैं। उनकी सम्पूर्ण लौकिक,पारमार्थिक क्रियाएँ केवल मेरे उद्देश्य से, मेरी प्रसन्नता के लिये ही होती हैं।

उपासना में समर्पण एवम स्मरण को पढ़ने के बाद आगे हम विभिन्न प्रकार उपासकों की उपासना की विधि को पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 9.14।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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