।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.09 II
।। अध्याय 09.09 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.9॥
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥
“na ca māḿ tāni karmāṇi,
nibadhnanti dhanañjaya..।
udāsīna-vad āsīnam,
asaktaḿ teṣu karmasu”..।।
भावार्थ:
हे धनन्जय! यह सभी कर्म मुझे बाँध नही पाते है क्योंकि मैं उन कार्यों में बिना किसी फ़ल की इच्छा से उदासीन भाव में स्थित रहता हूँ। (९)
Meaning:
Nor do those actions bind me,O Dhananjaya. I remain as though indifferent and unattached to those actions.
Explanation:
Earlier in the chapter, Shri Krishna addressed several misconceptions that we have about Ishvara. He asserted that Ishvara cannot be contained in any one part of the universe, in any one object. He also asserted that we need to wait for a long time to Ishvara. Ishvara is accessible at this very moment. What is missing is knowledge that enables us to recognize Ishvara in everything.
In this shloka, Shri Krishna addresses another misconception of Ishvara, that he has a personal agenda in each and everyone’s destiny. To that end, Shri Krishna clarifies that Ishvara delegates the functioning of the universe to the laws of Prakriti. He does not personally get involved, nor does he claim credit for the creation, destruction and sustenance of billions of beings in this universe.
The material energy is actually inert and insentient. It is devoid of consciousness, which is the source of life. How then, one may wonder, does it perform the wonderful work of creating such an amazing world? The Ramayan explains this well: “The material energy is insentient by itself. But when it receives inspiration from God, it begins to act as if it were sentient.”
When God wishes to create the world, He glances at the material energy and animates it. The main idea to keep in mind is that although the process of creation goes on by His will and inspiration of God, He remains unaffected by the work of the material energy. He remains ever-blissful and undisturbed in His personality, by virtue of His hlāndinī śhakti (bliss-giving power). Hence, the Vedas call Him ātmārām, meaning “He who rejoices in Himself, without any need for external pleasures.”
Our Puranaas contains several stories about the trinity of Brahma, Vishnu and Shiva who are charged with the responsibilities of creation, sustenance and dissolution respectively. They are aided by their consorts. Saraswati provides the knowledge needed for creation. Lakshmi provides the wealth needed for sustenance. Parvati provides the power needed for dissolution. The stories may portray that these deities personally take effort to perform their duties, but at the universal level, they are all part of the fully automatic system of Prakriti.
Therefore, the lesson for us here is that we should follow karma yoga because it is a universal law. Like Ishvara, who runs the universe while knowing that it is Prakriti’s handiwork, we too should perform our duties in a spirit of vairagya or detachment, knowing that Prakriti is running everything. If we worry about who will get the credit for our actions, then we will get bound, taking us further away for liberation.
So then, how should we use this knowledge to refine our vision towards the world? This is explained next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व के श्लोक में हम ने पढ़ा कि किस प्रकार परब्रह्म के संकल्प से संसार की रचना हुई। किस प्रकार उत्पत्ति, पालन और संहार के साथ साथ कर्मफल, कार्य कारण और विभिन्न लोक, जन्म-मरण का चक्र, प्रलय-विसर्ग और महाप्रलय आदि होता है। संसार मे परब्रह्म ने परा एवम अपरा प्रकृति के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज की, सत- रज- तम प्रकृति द्वारा योगमाया से संसार की अनेक घटनाओं के उदय और नष्ट करने का क्रम जारी रखा।
परब्रह्म के विषय में हम क्या जानते थे, यह तो पता नहीं किंतु अपने विषय में जानकारी देते हुए, कृष्ण ने अर्जुन को परब्रह्म की यह बाते बताई
1) वह अव्यक्त और सूक्ष्म है,
2) वह सर्वत्र व्याप्त है और प्रत्येक जीव जड़ और चेतन के अंदर निवास करता है।
3) ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या अर्थात ब्रह्म ही अविनाशी, अपरवर्तिनीय, नित्य है, शेष संपूर्ण जगत काल और स्थान से बंधा और परिवर्तनशील है।
4) परब्रह्म ही असंग, विशुद्ध, सत्य, नित्य है।
5) इस के बाद हम ने जाना संपूर्ण सृष्टि किसी प्रकार सर्ग में प्रकट होती है और प्रलय में परब्रह्म में विलीन हो जाती है। कुछ भी नया नही रचा जाता, केवल उस का स्वरूप परिवर्तित होता है और यह सब योगमाया से प्रकृति नियमित रूप से करती है। वह ही ब्रह्म से सृष्टि के स्वरूप को प्रकट करती है और वह ही सृष्टि को बीज स्वरूप में समेट कर पुनः ब्रह्म में मिला देती है, यही क्रिया बार बार लाखो वर्षो में होती रहती है। यह प्रकृति और योगमाया अपने नियम से ब्रह्म से ही उत्पन्न होती है और उसी में समा जाती है और ब्रह्म के बनाए नियमो में कार्य करती है। इस प्रकार संपूर्ण सृष्टि के लय का कारण परब्रह्म ही है।
6) प्रस्तुत श्लोक में परब्रह्म स्वरूप में परमात्मा अपना कर्म को उदासीन भाव से करते है, बताया है। अर्थात संपूर्ण 1 से 5 तक के कार्य अकर्ता और अभोक्ता भाव से होने से, ब्रह्म अपने को मुक्त घोषित करते है।
कर्म से कोई भी जीव उस के फल या परिणाम से नही बंधतता। कर्म के फल किसी भी जीव को उस के कर्म के प्रति आसक्ति और कामना से बांधते है। अतः कर्म बंधन का मुख्य कारण अहंकार है, जिस ने अहंकार त्याग दिया कि वह कर्ता या उस कर्म का कारण या कर्म के होने का धेय है, वही निष्काम और निर्लिप्त कर्मयोगी होता है।
इतने कर्म, क्रिया एवम प्रणाली के संचालन, पालन, कारण होने के बावजूद परमात्मा का कहना है कि वह अकर्ता ही है क्योंकि वह संसार की प्रत्येक क्रिया से अपने को नही बांधते और उदासीन भाव से रखते है। न ही कोई भी कर्म और कारण उन्हें बांधता है, क्योंकि वह उस के प्रति भोक्तत्व भाव से मुक्त है। निष्काम कर्म की शिक्षा का प्रथम उदाहरण स्वयं परब्रह्म ही है।
जिस प्रकार आकाश के आश्रय शीत, उष्ण तथा वर्षा आदि सब व्यवहार की सिद्धि होती है, परंतु आकाश स्वयं शीतोष्ण रूप को प्राप्त नही होता। इसी प्रकार प्रकृति का यह लय- विकास रूप सब व्यवहार मेरे आश्रय होता हुआ भी मुझ को बंधन नही करता, किन्तु मैं तो प्रकृति के इन सब व्यवहारों में उदासीन की भांति अनासक्त रूप से ही स्थित रहता हूँ। भगवान का यह कथन उन के निष्काम भाव के योगी होने का है, जब तक हम अपना कर्म कर्तृत्व भाव एवम भोक्तव भाव से मुक्त हो कर नही करते तब तक कर्म बंधन से मुक्त नहीं हो सकते।
इसे और अधिक समझने के लिए किसी कलाकार को रंग मंच पर किसी का किरदार निभाना हो तो वो उस किरदार में पूरा डूब कर निभाता है किंतु उस का भाव उस किरदार तक ही सीमित होता है और रंगमंच के बाहर वो उस किरदार के कर्मो के प्रति उदासीन ही रहता है।
आज तक हम लोग विभिन्न देवी देवताओं को पूजते एवम सुनते आ रहे है जिस ब्रह्मा- विष्णु- महेश त्रिदेव सृष्टि- पालन- संहार के देवता एवम लक्ष्मी- पार्वती- सरस्वती धन- शक्ति- विद्या की देवियों को जानते है। परमात्मा ने कहा है कि जो जिस कामना से जिस भी देवता की पूजा करता है मै उस देवता द्वारा उस की कामना पूर्ण करता हूँ। परमात्मा इन सब से परे है यह सब प्रकृति के नियमो के अंतर्गत कार्य करते है और परमात्मा के अधीन है। परमात्मा इस कार्यप्रणाली में कोई हस्तक्षेप नही करता क्योंकि वो यह सब प्रकृति को सौप कर स्वयं उदासीन भाव मे रहता है।
मार्तंड ऋषि द्वारा रचित दुर्गा सप्तशती में भी संपूर्ण सृष्टि के संचालन और उत्पन्न होने का कारण आदिशक्ति को कहा है, जिस महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती उत्पन्न हुई और इन से ब्रह्मा, विष्णु, महेश और लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती हुए। अतः सृष्टि का मूल वह एक मात्र परब्रह्म, ऊर्जा, तेज, शक्ति या केंद्रबिंदु है, जिस से यह सृष्टि बार बार उत्पन्न और विलीन होती है।
परमात्मा भी प्रकृति द्वारा सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार आदि क्रिया करते है। इस मे जीव प्रकृति के नियमो के अंतर्गत अपने कर्मो का फल भोगते है किंतु परमात्मा इस सृष्टि का पालन करता हुआ भी प्रकृति की क्रियाओं के प्रति उदासीन ही रहता है। उस को कोई भी कर्म का बंधन भी नही है और वो किसी भी क्रिया का कर्ता भी नही। यदि जीव अज्ञान वश उसे कोसते या उस की अर्चना करते है तो भी वो अकर्ता ही रहता है और सृष्टि का पालन करता है।
भगवान् ने अपने को उदासीन की तरह क्यों कहा कारण कि मनुष्य उसी वस्तु से उदासीन होता है। जिस वस्तु की वह सत्ता मानता है। परन्तु जिस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है। उसकी भगवान् के सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। इसलिये भगवान् उस संसार की रचनारूप कर्म से उदासीन क्या रहें वे तो उदासीन की तरह रहते हैं क्योंकि भगवान् की दृष्टि में संसार की कोई सत्ता ही नहीं है। तात्पर्य है कि वास्तव में यह सब भगवान् का ही स्वरूप है। इन की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। तो अपने स्वरूप से भगवान् क्या उदासीन रहें इसलिये भगवान् उदासीनकी तरह हैं।
ऐसा कह कर भगवान् मनुष्य मात्र को यह शिक्षा देते हैं कर्मबन्धन से छूटनेकी युक्ति बताते हैं कि जैसे मैं कर्मों में आसक्त न होनेसे बँधता नहीं हूँ। ऐसे ही तुमलोग भी कर्मों में और उन के फलों में आसक्ति न रखो। तो सब कर्म करते हुए भी उन से बँधोगे नहीं। अगर तुमलोग कर्मों में और उनके फलों में आसक्ति रखोगे। तो तुमको दुःख पाना ही पड़ेगा। बारबार जन्मना मरना ही पड़ेगा। कारण कि कर्मों का आरम्भ और अन्त होता है तथा फल भी उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं। पर कमर्फल की इच्छा के कारण मनुष्य बँध जाता है। यह कितने आश्चर्यकी बात है कि कर्म और उसका फल तो नहीं रहता, पर (फलेच्छाके कारण) बन्धन रह जाता है ऐसे ही वस्तु नहीं रहती, पर वस्तु का सम्बन्ध,(बन्धन) रह जाता है सम्बन्धी नहीं रहता। पर उसका सम्बन्ध रह जाता है मूर्खता की बलिहारी है। इस से यह अभिप्राय समझ लेना चाहिये कि कर्तापनके अभिमानका अभाव और फलसम्बन्धी आसक्ति का अभाव दूसरों को भी बन्धनरहित कर देनेवाला है। इस के सिवा अन्य प्रकार से किये हुए कर्मों द्वारा मूर्ख लोग कोशकार ( रेशमके कीड़े ) की भाँति बन्धन में पड़ते हैं।
इस अध्याय के आरंभ में परमात्मा ने इस राजगृह्य योग की व्याख्या से पूर्व कहा था कि हमे अनुसूय, श्रद्धा, विश्वास और प्रेम से सुनने को कहा था। जब तक हम में यह गुण नही, हम परमात्मा की बात को अपने अहम और ज्ञान से सुन कर तर्क करेंगे। इसी कारण परमात्मा के किसी भी कार्य से हम सुखी या दुखी होते है। जबकि स्वयं परमात्मा अपने प्रत्येक कार्य के प्रति अकर्त्ता रह कर उदासीन है। इसी प्रकार हमे भी परमात्मा के निमित हो कर अपने प्रत्येक कर्म के साथ परमात्मा में श्रद्धा, विश्वास और प्रेम रखे और अहम और भोक्ता भाव को छोड़ कर शंका रहित रहे।
उदासीन होने का अर्थ कर्तव्य धर्म और कर्म के प्रति आलसी या नकारात्मक होना नही है, कर्म के कर्तृत्व और भोक्तत्व भाव से मुक्त हो कर पूर्ण दक्षता के साथ कर्म करना है। शादी के कार्य मे, वहां शादी के सभी प्रबंध कार्य करने वाले, कभी भी शादी के प्रति उदासीन ही रहते है, परन्तु प्रबंधन में पूर्ण दक्षता के साथ कार्य करते है।
संसार का सब से बड़ा आश्चर्य यही है कि जिस परब्रह्म ने सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की, उसे अपनी योगमाया और प्रकृति से संचालित किया, वह स्वयं अहम को त्याग कर अकर्ता और अभोक्ता भाव में उदासीन हो कर कर्म करता है। जब सृष्टि यज्ञ चक्र में समस्त क्रियाएं प्रकृति द्वारा योगमाया से संचालित है, किंतु जीव अज्ञान में कर्ता और भोक्ता है। तो वही उसी के समक्ष मनुष्य जैसा क्षुद्र जीव जब अपने अहम, आसक्ति, कामना में कर्ता और भोक्ता भाव में जन्म – मरण के दुखो को भोक्ता है तो परमात्मा से ही प्रश्न करता है कि उस ने यह सृष्टि की रचना ही क्यों करी ?
आगे हम कर्तृत्व भाव मे मुक्त होने के अर्थ के स्पष्टीकरण को पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।। 9.09।।
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