Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6131
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.06 II  

।। अध्याय     09.06 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.6

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥

“yathākāśa-sthito nityaḿ,

vāyuḥ sarvatra-go mahān..।

tathā sarvāṇi bhūtāni,

mat-sthānīty upadhāraya”..।।

भावार्थ: 

जिस प्रकार सभी जगह बहने वाली महान वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार सभी प्राणी मुझ में स्थित रहते हैं। (६)

Meaning:

Just like the mighty wind travels everywhere, established in space, so too, all beings reside in me, understand this.

Explanation:

The key teaching of the chapter is that Ishvara pervades everything, that all beings are sustained by Ishvara, but Ishvara is not contained in any of them. To illustrate these statements, Shri Krishna compares Ishvara to space. He says that space enables everything to exist within it, like wind, for example. In the same way, all living and non- living entities dwell in Ishvara.

Shree Krishna has used the term mat sthāni three times, from the fourth verse to the sixth verse.  It means “all living beings rest in Him.”  They cannot be separated from Him even though they transmigrate in different bodies and accept affinity with matter.

The Supreme Lord now gives an analogy to enable Arjun to grasp the concept.  The wind has no existence independent from the sky.  It moves incessantly and furiously, and yet, it rests within the sky.  Likewise, the souls have no existence independent of God.  They move in time, place, and consciousness, through transitory bodies, sometimes rapidly and sometimes slowly, and yet, they always exist within God.

Let us understand the nature of space. It is indivisible, which means that even if we try to divide it by building walls, we cannot do so. It does not get affected by what it contains. A flower generates fragrance when fresh and odour when it decays. But both those qualities do not get transferred to space, since space has no qualities. It also pervades everything. Over 99% of an atom is empty space. And it is infinite. No object can ever contain space.

Similarly, Shri Krishna says that Ishvara is infinite, indivisible, pervades everything, and remains unaffected by what he sustains. How does this help us? Knowing that Ishvara is everywhere reduces our sorrow, delusion, fear, likes and dislikes. If everything is Ishvara, and if we also know that we are in Ishvara, there is nothing to fear or like or dislike. That is how we get liberated.

There is a story in the Ishvaavaasya Upanishad. The gods tried to have a race with Ishvara. But wherever they ended up, Ishvara was already there. Another interpretation of this story is that the senses also tried to outrun Ishvara but could not. It is like trying to race with space. It is a futile effort, because space is all-pervading. So is Ishvara.

From another perspective, everything that exists in cosmos is subordinate to the will of God.  It is created, maintained, and annihilated in accordance with His will.  In this way also, everything can be said to be resting in Him.

Now, just like we see the blue sky with our eyes, we also see things and people on this earth being created and destroyed. We know that the blue colour is an illusion, but do we really understand that creation and dissolution is an illusion as well? This is taken up next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पिछले श्लोकों अव्यक्त स्वरूप एवम प्रकृति से परमात्मा का सम्बंध समझ में आ सके इस लिये भगवान एक उदाहरण देते है जैसे वे आकाश की भांति भगवान का स्वरूप सम, निराकार, अकर्ता, अनन्त, असंग और निर्विकार है एवम उस मे यह जीव, प्रकृति और संसार वायु की भांति भगवान से उत्पन्न भूत , उसी में स्थित एवम उस मे ही लीन है। वायु की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आकाश में ही होने के कारण वह कभी किसी भी अवस्था मे आकाश से अलग नही रह सकता, सदा आकाश में ही स्थित रहता है।

यह समझना कठिन है कि संसार भगवान में कैसे स्थित रह सकता है। ग्रीक लोक कथाओं के चित्र में एटलस को ग्लोब उठाए दिखाया गया है। एटलस ने टाइटन्स के साथ ओलम्पस पर्वत के देवताओं के विरुद्ध युद्ध लड़ा था। पराजित होने पर दण्ड के रूप में उसे अपमानित किया गया था और उसे सदा के लिए अपनी पीठ पर एक बड़े स्तंभ के साथ स्वर्ग और पृथ्वी का भार सहन करना पड़ा जो उसके कंधो पर पृथ्वी और स्वर्ग को अलग करता हुआ दिखाई देता है किन्तु यहाँ इसका अभिप्राय श्रीकृष्ण के कथन के अनुसार ऐसा नहीं है कि जब वे यह कहते हैं कि उन्होंने सभी प्राणियों को धारण किया हुआ है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अंतरिक्ष में है और अंतरिक्ष भगवान द्वारा निर्मित ऊर्जा है। इसलिए सभी जीवों को भगवान में स्थित बताया जाता है।

किसी ऐसी वस्तु की कल्पना कर सकना अत्यन्त कठिन है जो सर्वत्र विद्यमान है? जिस में सब की स्थिति है और फिर भी? वह स्वयं उन सब वस्तुओं के दोषों से लिप्त या बद्ध नहीं होती। सामान्य मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान की ऊँचाई तक सरलता से उड़ान नहीं भर सकती। शिष्य की ऐसी बुद्धि के लिये एक टेक या आश्रय के रूप में यहाँ एक अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है? जिसकी सहायता से स्वयं को ऊँचा उठाकर वह अपने ही परिच्छेदों के परे दृष्टिपात करके अनन्त तत्त्व के विस्तार का दर्शन कर सके। स्थूल कभी सूक्ष्म को सीमित नहीं कर सकता। जैसे किसी कवि ने गाया है? पाषाण की दीवारें कारागृह नहीं बनातीं? क्योंकि एक बन्दी के शरीर को वहाँ बन्दी बना लेने पर भी उसके विचार अपने मित्र और बन्धुओं के पास पहुँचने में नित्य मुक्त हैं? स्वतन्त्र हैं। स्थूल पाषाण की दीवारें उसके सूक्ष्म विचारों की उड़ान पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकतीं। यदि एक बार इस सिद्धांत को भली भांति समझ लें? तो यह दृष्टान्त अत्यन्त भाव व्यंजक बनकर अपने गूढ़ अभिप्रायों को प्रदर्शित कर देता है। वायु का बहना? घूर्णन करना और भंवर के रूप में वेग से घूमना यह सब कुछ एक आकाश में होता है। आकाश उन सबको आश्रय देकर उन्हें सर्वत्र व्याप्त किये रहता है? किन्तु वे किसी भी प्रकार से आकाश को सीमित नहीं करते। सामान्य बौद्धिक क्षमता का साधक भी यदि इस दृष्टान्त का मनन करे? तो वह आत्मा और अनात्मा के बीच के वास्तविक संबंध को समझ सकता है? उसे परिभाषित कर सकता है। सत्य वस्तु मिथ्या का आधार है मिथ्या तादात्म्य से उत्पन्न असंख्य जीव नित्य और सत्य वस्तु में ही रहते हुए सुखदुख? कष्ट और पीड़ा का जीवन जीते हुए दिखाई देते हैं। परन्तु मिथ्या वस्तु कभी सत्य को सीमित या दोषलिप्त नहीं कर सकती। वायु के विचरण से आकाश में कोई गति नहीं आती आकाश वायु के सब गुण धर्मों से मुक्त रहता है। सर्वव्यापक आकाश की तुलना में? जिसमें कि असंख्य ग्रह नक्षत्र? तारामण्डल अमाप गति से घूम रहे हैं? यह वायुमण्डल और उसके विकार तो पृथ्वी की सतह से कुछ मील की ऊँचाई तक ही होते हैं। अनन्त सत्य की व्यापक विशालता में? अविद्याजनित मिथ्या जगत् के परिवर्तन की रंगभूमि मात्र एक नगण्य क्षेत्र है৷৷. और वहाँ भी सत्य और मिथ्या के बीच संबंध वही है? जो चंचल वायु और अनन्त आकाश में है।यह श्लोक केवल शब्दों के द्वारा सत्य का वर्णन करने के लिए नहीं है। व्याख्याकारों का वर्णन कितना ही सत्य क्यों न हो प्रत्येक जिज्ञासु साधक को इनके अर्थ पर स्वयं चिन्तनमनन करना होगा।

इसका तात्पर्य यह हुआ कि ये सम्पूर्ण प्राणी मेरे में ही स्थित हैं। मेरे को छोड़कर ये कहीं जा सकते ही नहीं। ये प्राणी प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर आदिके साथ कितना ही घनिष्ठ सम्बन्ध मान लें? तो भी वे प्रकृति और उसके कार्य से एक हो सकते ही नहीं और अपने को मेरे से कितना ही अलग मान लें, तो भी वे मेरे से अलग हो सकते ही नहीं।वायु को आकाश में नित्य स्थित बताने का तात्पर्य यह है कि वायु आकाश से कभी अलग हो ही नहीं सकती। वायु में यह किञ्चिन्मात्र भी शक्ति नहीं है कि वह आकाश से अलग हो जाय क्योंकि आकाश के साथ उस का नित्यनिरन्तर घनिष्ठ सम्बन्ध अर्थात् अभिन्नता है। वायु आकाश का कार्य है और कार्य की कारण के साथ अभिन्नता होती है। कार्य केवल कार्य की दृष्टि से देखने पर कारण से भिन्न दीखता है परन्तु कारण से कार्य की अलग सत्ता नहीं होती। जिस समय कार्य कारण में लीन रहता है। उस समय कार्य कारण में प्रागभाव रूप से अर्थात् अप्रकट रूप से रहता है। उत्पन्न होने पर कार्य भाव रूप से अर्थात् प्रकटरूप से रहता है और लीन होनेपर कार्य प्रध्वंसाभावरूप से अर्थात् कारण रूप से रहता है। कार्य का प्रध्वंसाभाव नित्य रहता है। उस का कभी अभाव नहीं होता क्योंकि वह कारण रूप ही हो जाता है। इस रीति से वायु आकाश से ही उत्पन्न होती है, आकाश में ही स्थित रहती है और आकाश में ही लीन हो जाती है अर्थात् वायु की स्वतन्त्र सत्ता न रहकर आकाश ही रह जाता है। ऐसे ही यह जीवात्मा परमात्मा से ही प्रकट होता है परमात्मा में ही स्थित रहता है और परमात्मा में ही लीन हो जाता है अर्थात् जीवात्माकी स्वतन्त्र सत्ता न रहकर केवल परमात्मा ही रह जाते हैं।

प्रस्तुत श्लोक में वायु और आकाश के माध्यम से परमात्मा के स्वरूप को समझाने का प्रयत्न किया गया है, जिस प्रकार वायु सर्वत्र फैली है किंतु उस का कोई स्वरूप नही। वह प्रकृति से गंध को ग्रहण कर सुगंधित या दूषित होती है, वही कभी मंद मंद तो कभी विकराल स्वरूप में बहती है, उसी प्रकार परमात्मा भी सभी स्वरूप में विद्यमान है, जो भी स्वरूप की हम कल्पना करते है या देखते है, वह प्रकृति का स्वरूप है। द्वितीय आकाश जिस में वायु स्थित है, वह अनंत है, वायु तो उसके छोटे से किसी भाग में है। आकाश को काटा, जलाया, तोड़ा या मरोड़ा नही जा सकता। आकाश सभी में स्थित है किंतु सभी आकाश भी नहीं है। आकाश का कोई स्वरूप, रंग या गुण नही है, फिर भी लोग उस में विभिन्न क्रियाएं होते देखते है। किंतु परब्रह्म में आकाश, काल, गति, स्थान सभी स्थित है। 

यहां यह भी स्पष्ट करना गलत नहीं होगा कि कठोपनिषद में यम ने नचिकेता को जब परमात्मा के बारे में ज्ञान दिया तो अंत मे नेति नेति कह कर कहा कि परमात्मा के बारे में जो कुछ भी कहा गया वो सम्पूर्ण नही है वो इस सब से भी परे है। अतः उदाहरण अल्प ज्ञान को गति देने के लिये तो उचित है किंतु वो परमात्मा को एक दम सही उद्धरण नही हो सकता । यदि इस को ले कर कोई शंका या तर्क करता है तो वो परमात्मा तत्व की बजाय व्यर्थ के बहस को ही जन्म देगा। जो निराकार, निर्गुण, सर्वव्यापी, अव्यक्त, शाश्वत, अद्वेत, सभी व्यक्त एवम अव्यक्त भूतों का आश्रयदाता, योगमाया एवम प्रकृति जिस के आधीन है, जो काल से परे है, उस को किसी भी उदाहरण से समझा भर जा सकता है किंतु तुलना नही की जा सकती। इसलिये परमात्मा के बारे में हम कितना भी पढ़ लिख ले, वह पूरा नही होगा, उसे तो श्रद्धा विश्वास और प्रेम से ही अनुभव किया जा सकता है। जैसे किसी रंग को कोई कैसे परिभाषित कर सकता है, वैसे परमात्मा तो उस से भी परे है।

मूलतः यह बातें पहले भी  कही गयी है। यहाँ भगवान भक्ति मार्ग को स्पष्ट करने के लिये कुछ बातों को अधिक स्पष्ट करना के उद्देश्य से दोहराते है। परमात्मा ने अपने निर्गुण होने का परिचय देते हुए अपनी तुलना उस अनन्त आकाश से की है जिस का आदि न अंत है। प्रकृति को वायु से समान बताया। फिर इस इस प्रकृति की रचना की बताते है जिसे हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। 9.06।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

Leave a Reply