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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.05 II  

।। अध्याय     09.05 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.5

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः  ॥

“na ca mat-sthāni bhūtāni,

paśya me yogam aiśvaram..।

bhūta- bhṛn na ca bhūta- stho,

mamātmā bhūta- bhāvanaḥ”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! यह मेरी एश्वर्य-पूर्ण योग-शक्ति को देख, यह सम्पूर्ण सृष्टि मुझ में कभी स्थित नहीं रहती है, फ़िर भी मैं सभी प्राणीयों का पालन-पोषण करने वाला हूँ और सभी प्राणीयों मे शक्ति रूप में स्थित हूँ परन्तु मेरा आत्मा सभी प्राणीयों में स्थित नहीं रहता है क्योंकि मैं ही सृष्टि का मूल कारण हूँ। (५)

Meaning:

And yet everything that is created does not rest in Me. Behold My mystic opulence! Although I am the maintainer of all living entities and although I am everywhere, I am not a part of this cosmic manifestation, for My Self is the very source of creation.

Explanation:

Shri Krishna takes the argument of the prior shloka one step further. He says that what we see through our eyes, hear through our nose, touch through our skin is just a series of names and forms. It is a divine power of Ishvara, just like the skill of a magician. These names and forms appear as if they are created, sustained and destroyed by Ishvara, but in reality, there is no such thing.

We notice that the first statement “all beings do not reside in me” contradicts the statement in the last shloka “all beings are based in me.” This is because each statement is made from a different perspective, based on our level of understanding.

If we think that the world of names and forms is real, then Ishvara says that all beings are based in him. It is like the little girl thinking that the foam and the waves in the ocean are real entities.

But, if we advance our understanding, if we know that the world of names and forms is a play of Ishvara, then he says that none of those beings, those names and forms, reside in him. The illusion of the magician does not reside in the magician, because an illusion cannot reside in something real. That is why Shri Krishna says that Ishvara’s self is not contained in all beings.

Now, even though we have this knowledge, will still see, hear, touch, feel and taste the world. Those forms in the world will be created, survive, and eventually dissolve. Our near and dear ones will prosper, but will also leave us one day. All of this is a play of Ishvara’s maayaa. To this end, he asserts that he is the creator and sustainer of these names and forms.

As an example, we look up at the sky and observe that it is blue in colour. We know that the blue colour is just an illusion caused by the scattering of light waves. However, even after we know this, our eyes still report the color of the sky as blue. Similarly, Shri Krishna urges us to recognize that Ishvara’s divine power of maayaa, his “home theatre system”, creates all the names and forms that our lives are made up of.

Beyond the two energies mentioned in the purport to the previous verse—Maya śhakti and Jīva śhakti—there is a third energy of God.  This is called Yogmaya śhakti, which He refers to in this verse, as divine energy.  Yogmaya is God’s all-powerful energy.  It is called kartum-akartum-samarthaḥ, or “that which can make the impossible possible,” and is responsible for many of the amazing things we attribute to His personality.  For example, God is seated in our hearts, yet we have no perception of Him.  This is because His divine Yogmaya power keeps us aloof from Him.

So then, what is the essence of these two key shlokas? Our senses will always report names and forms to our mind and intellect. If we know that they are all illusory names and forms, we will gain liberation. If we get sucked into thinking that they are real, we will be trapped in their apparent reality.

This teaching requires further elaboration. To that end, Shri Krishna provides an illustration in the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

श्लोक की समीक्षा से पूर्व हमें यह समझना होगा कि सृष्टि की क्रियाएं कार्य – कारण सिद्धांत अर्थात किसी भी कार्य के होने का कुछ कारण अवश्य होता है और कारण भी कार्य से ही उत्पन्न होता है अर्थात प्रत्येक कर्म के होने का कारण होगा और उस का फल भी अवश्य होगा। इस कार्य कारण के सिद्धांत को नियमित प्रकृति अपनी योगमाया से करती है। योग माया के द्वारा ही जीव भ्रमित हो कर अपने को कर्ता और भोक्ता मानता है। इसलिए  जगत का पालनकर्ता ब्रह्म, जगत का संचालन योगमाया से इस प्रकार करता है कि वह कर्ता हो कर भी अकर्ता है। अतः माया शक्ति और जीव शक्ति का नियंत्रण योग माया शक्ति के द्वारा होता है। यह संचालन इतना अधिक स्वचलित और नियमबद्ध है कि अवतार के समय ब्रह्म को भी इसी कर अनुसार चलना होता है।

परमात्मा अपने अव्यक्त स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते है कि मैं सर्वत्र व्याप्त हूं इसलिए संसार में परमात्मा हैं और परमात्मा में संसार है तथा परमात्मा संसार में नहीं हैं और संसार परमात्मा में नहीं है। अर्थात परिभाषा की दृष्टिकोण से परमात्मा की परिभाषा संसार की नही हो सकती। ब्रह्म अपरिभाषित, कालातीत, अकर्ता, अविनाशी, साक्षी है, जबकि संसार का सर्ग और प्रलय होता रहता है।

अब कार्यकारण की दृष्टि से देखें तो जैसे मिट्टी से बने हुए जितने बर्तन हैं, उन सब में मिट्टी ही है क्योंकि वे मिट्टी से ही बने हैं। मिट्टी में ही रहते हैं और मिट्टी में ही लीन होते हैं अर्थात् उन का आधार मिट्टी ही है। इसलिये बर्तनों में मिट्टी है और मिट्टी में बर्तन हैं। परन्तु वास्तव में देखा जाय तो बर्तनों में मिट्टी और मिट्टी में बर्तन नहीं हैं। अगर बर्तनों में मिट्टी होती, तो बर्तनों के मिटने पर मिट्टी भी मिट जाती। परन्तु मिट्टी मिटती ही नहीं। अतः मिट्टी मिट्टी में ही रही अर्थात् अपने आप में ही स्थित रही। ऐसे ही अगर मिट्टी में बर्तन होते, तो मिट्टी के रहने पर बर्तन हरदम रहते। परन्तु बर्तन हरदम नहीं रहते। इसलिये मिट्टी में बर्तन नहीं हैं। ऐसे ही संसार में परमात्मा और परमात्मा में संसार रहते हुए भी संसार में परमात्मा और परमात्मा में संसार नहीं है। कारण कि अगर संसार में परमात्मा होते तो संसार के मिटने पर परमात्मा भी मिट जाते। परन्तु परमात्मा मिटते ही नहीं। इसलिये संसार में परमात्मा नहीं हैं। परमात्मा तो अपने आप में स्थित हैं। ऐसे ही परमात्मा में संसार नहीं है। अगर परमात्मा में संसार होता तो परमात्मा के रहने पर संसार भी रहता परन्तु संसार नहीं रहता। इसलिये परमात्मा में संसार नहीं है।

एक अन्य उदाहरण में हम एक बहुत बड़े कारखाने को ले जिस में हजारों लोग काम कर रहे है, वह कारखाना और कर्मचारी उस के मालिक का है किंतु मालिक वह कारखाना नही है। कारखाना मालिक का होते हुए भी मालिक का नही है क्योंकि उस के माल खरीदी, बिक्री, उत्पादन और कार्य  पद्धिति मालिक से स्वतंत्र है,  किंतु  उस के निर्देशनुसार भी है। सृष्टि अपने प्रत्येक कार्य मे कार्य-कारण के नियम के अनुसार कर्म फल देती है, जो परब्रह्म से निर्देशित भी है और स्वतंत्र भी है। प्रत्येक कर्मचारी जानता है कि वह उस के मालिक का कार्य कर रहा है किंतु मालिक उस के कार्य की नही कर रहा है। सभी कुछ एक नियम बद्ध पद्धति से आगे बढ़ रहा है। कुछ लोग मालिक के नजदीक है और कुछ लोग दूर। कारखाने की पूरी क्रिया स्वतंत्र भी और मालिक के निर्देशानुसार भी है। मालिक प्रत्येक पर नजर भी रखे है और नही भी। समुंदर में लहरे उठती है किंतु लहर समुंदर में नही होती। व्यक्त जगत का संचालन परमात्मा करते हुए भी अकर्ता ही है।

मैं सम्पूर्ण जगत् में स्थित हूँ, के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि मैं उन में स्थित नहीं हूँ। कारण कि यदि मैं उन में स्थित होता तो उन में जो परिवर्तन होता है, वह परिवर्तन मेरे में भी होता उन का नाश होने से मेरा भी नाश होता और उन का अभाव होने से मेरा भी अभाव होता। तात्पर्य है कि उन का तो परिवर्तन, नाश और अभाव होता है परन्तु मेरे में कभी किञ्चिन्मात्र भी विकृति नहीं आती। मैं उन में सब तरह से व्याप्त रहता हुआ भी उन से निर्लिप्त हूँ, उन से सर्वथा सम्बन्धरहित हूँ। मैं तो निर्विकार रूप से अपने आप में ही स्थित हूँ। वास्तव में मैं उन में स्थित हूँ — ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि मेरी सत्ता से ही उन की सत्ता है, मेरे होनेपन से ही उन का होनापन है। यदि मैं उन में न होता, तो जगत् की सत्ता ही नहीं होती। जगत् का होनापन तो मेरी सत्ता से ही दीखता है। इसलिये कहा कि मैं उन में स्थित हूँ।

सगुण उपासक परमात्मा की भक्ति के लिए अपने उपासना स्थल में मूर्ति या फोटो की स्थापना करता है, उस के अनुसार परमात्मा उस मूर्ति या फोटो में है किंतु वास्तव में परमात्मा उस फोटो या मूर्ति में नहीं, उस की श्रद्धा और विश्वास के कारण उस में वह देख रहा है। मंदिर में हम परमात्मा की मूर्ति को भगवान मानते हुए पूजते है, इसलिए वह मूर्ति भगवान होती है किंतु भगवान मूर्ति नही होते। अपनी तूलिका से चित्र का सृजन करने वाले कलाकार की कृति में कलाकार है भी और नहीं भी। किंतु नहीं होते हुए भी, वह चित्र में पूरे मन से रंग भर कर उस को जीवित करता है वैसे ही परमात्मा अकर्ता होते हुए भी, इस जगत का संचालन और पालन करता है।

अब भगवान् सम्पूर्ण प्राणी मेरे में स्थित हैं, के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि वे प्राणी मेरे में स्थित नहीं हैं। कारण कि अगर वे प्राणी मेरे में स्थित होते तो मैं जैसा निरन्तर निर्विकार रूप से ज्यों का त्यों रहता हूँ, वैसा संसार भी निर्विकार रूप से ज्यों का त्यों रहता। मेरा कभी उत्पत्ति विनाश नहीं होता, तो संसार का भी उत्पत्ति विनाश नहीं होता। एक देश में हूँ और एक देश में नहीं हूँ, एक काल में हूँ, और एक काल में नहीं हूँ, एक व्यक्ति में हूँ और एक व्यक्ति में नहीं हूँ – ऐसी परिच्छिन्नता मेरे में नहीं है, तो संसार में भी ऐसी परिच्छिन्नता नहीं होती। तात्पर्य है कि निर्विकारता, नित्यता, व्यापकता, अविनाशीपन आदि जैसे मेरे में हैं, वैसे ही उन प्राणियों में भी होते। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरी स्थिति निरन्तर रहती है और उनकी स्थिति निरन्तर नहीं रहती, तो इस से सिद्ध हुआ कि वे मेरे में स्थित नहीं हैं।

यह बाह्य जगत में हर प्राणी में ईश्वर का निवास है। हर प्राणी में स्थित आत्मा को परमात्मा का स्वरूप माना गया है। प्रकृति अपने त्रियामी गुण से माया द्वारा इस संसार का संचालन करती है जिस से जीव मोहित हो कर कर्तृत्व भाव से कर्म करता है। इस संसार का संचालन परमात्मा के आधीन प्रकृति करती है। अतः परमात्मा इस संसार मे सर्व व्याप्त है। किंतु वो कर्ता नही है, प्रकृति के उत्पत्ति विनाश में न कभी नष्ट होता है न ही पैदा होता है। मनुष्य ही आत्मा को कर्ता मान लेता है। इसलिये अव्यक्त, अविनाशी सतत है वो यह संसार मे हो कर भी नही है। यह ब्रह्मा जी रचना उत्पन्न हो कर नष्ट होती रहती है किंतु परमात्मा कभी नष्ट नहीं होता।

आत्मा और परब्रह्म दोनों में एक ही यानि ब्रह्म स्वरूप है और यह चित्स्वरूपी ब्रह्म जब माया में प्रतिबिम्बित होता है तब सत्व, रज, तम गुणमयी प्रकृति का निर्माण होता है। परंतु आगे चल कर इस माया के ही दो भेद ‘माया’ एवम अविद्या किये गए है और यह बताया गया है, कि जब माया के तीन गुणों में से शुद्ध सत्वगुण का उत्कर्ष होता है तब उसे केवल माया कहते है और इस माया में प्रतिबिम्ब होने वाले ब्रह्म को सगुण यानि व्यक्त ईश्वर कहते है और यदि यही सत्व गुण अशुद्ध हो तो उसे अविद्या कहते है तथा इस अविद्या में प्रतिबिम्ब ब्रह्म को जीव कहते है।

परमात्मा का सच्चा श्रेष्ठ स्वरूप अव्यक्त है, व्यक्त सृष्टि की धारणा करना तो उस की माया है। इसलिये भगवान कहते है प्रकृति के गुणों से मोह के फस के मूर्ख लोग ( अव्यक्त और निर्गुण) आत्मा को ही कर्ता मानते है, किन्तु ईश्वर तो कुछ नही करता, लोग केवल अज्ञान से धोखा खाते है । परमात्मा ने स्पष्ट शब्दों में कहा है यद्यपि व्यक्त आत्मा या परमेश्वर वस्तुतः निर्गुण है तो भी मनुष्य उस पर मोह एवम अज्ञान से कर्तृत्व आदि गुणों का अध्यारोप करते है और उसे अव्यक्त सगुण बना देते है। यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे सूर्य के प्रकाश की तुलना दीपक से करना एवम दीपक को ही सूर्य समझने की भूल करना।

इस पूरे संसार का संचालन करते हुए भी परमात्मा अकर्ता ही है क्योंकि संसार प्रकृति के नियमो के आधार पर चलती है इसलिये कुछ लोग जो अपने कर्मो को भोगते हुए जब भगवान को दोष देते है तो वो अज्ञान ही है। क्योंकि इस संसार मे परमात्मा का अंश है किंतु परमात्मा में संसार नहीं है, इस सृजन एवम प्रलय होता है किंतु परमात्मा का नहीं।

इन दो श्लोक के बाद परमात्मा अपने को और भी अच्छे तरीके से व्यक्त करते है जिसे हम आगे पढेंगे।

।। हरि ॐ तत सत ।। 9.05।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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