।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 09.02 II
।। अध्याय 09.02 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 9.2॥
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥
“rāja- vidyā rāja- guhyaḿ,
pavitram idam uttamam..।
pratyakṣāvagamaḿ dharmyaḿ,
su-sukhaḿ kartum avyayam”..।।
भावार्थ:
यह ज्ञान सभी विद्याओं का राजा, सभी गोपनीयों से भी अति गोपनीय, परम-पवित्र, परम-श्रेष्ठ है, यह ज्ञान धर्म के अनुसार सुख-पूर्वक कर्तव्य-कर्म के द्वारा अविनाशी परमात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कराने वाला है। (२)
Meaning:
This is royal knowledge, the royal secret, purifying, foremost, immediately perceived, righteous, effortless to perform, and imperishable.
Explanation:
Shri Krishna continues to glorify the theme of this chapter, which is the knowledge of Ishvara’s infinite nature. This shloka consists of a series of adjectives that highlight the extremely unique and special nature of the knowledge that he is about to reveal.
Rāja means “king.” Shree Krishna uses the metaphor rāja to emphasize the paramount position of the knowledge He is going to reveal. He begins by describing this knowledge as royal.
As we saw in an earlier chapter, most knowledge we acquire in our life is “aparaa vidyaa”. It is related to something material and temporary. This chapter describes “paraa vidyaa”, knowledge of the absolute. Knowing this, we will ourselves become kings. We will never become subservient to anyone or anything, including our mind, body and senses. Vidyā also means “science.” He does not refer to His teachings as creed, religion, dogma, doctrine, or belief. He declares that what He is going to describe to Arjun is the king of sciences.
Guhya means “secret.” This knowledge is also the supreme secret. Since love is only possible where there is a choice, God deliberately hides Himself from direct perception, thereby providing the soul the freedom to exercise the choice of loving Him or not. This knowledge is the king of secrets. Ordinary secrets can give us happiness, wealth, power, a competitive advantage and so on, all of which are temporary and limited. But these secret yields eternal, infinite happiness.
Many scriptures describe rituals that act as purifiers that help us eliminate our sins. But this knowledge is the ultimate purifier because it eliminates the sinner, the root cause. As we have seen earlier, our ego creates the sense of doership and enjoyership, resulting in accumulation of merits and sins. But if our sense of doership is eliminated, all of our actions will be spontaneous and in tune with Ishvara’s will. The storehouse of our sins will be burnt away. Plus, there will be no question of accumulating any more merits or sins.
Shri Krishna says that we will be able to immediately perceive or experience this knowledge. What does this mean? When we are a little hungry, we say “I think I am hungry”. But if we have not eaten for a while day, we automatically say “I am hungry” without any further thinking. This is what is meant by immediate and direct perception. There will be zero doubt in this knowledge.
This knowledge is aligned with dharma, the law that holds the universe together. Nowadays, many practices in the business world that were formerly legal are deemed illegal and vice versa. This happens because they are based on ever- changing laws. But this royal knowledge is in accordance with the universal law. It holds true at any point in time, anywhere in the world. Moreover, it will always result in joy, never in sorrow.
Pratyakṣha means “directly perceptible.” The practice of the science of bhakti begins with a leap of faith and results in direct perception of God. It is not unlike the methodology of other sciences, where we begin an experiment with a hypothesis and conclude with a verified result.
Dharmyam means “virtuous.” Devotion performed without desire for material rewards is the most virtuous action. It is continuously nourished by righteous acts such as service to the Guru.
Kartum susukham means “very easy to practice.” God does not need anything from us; He is attained very naturally if we can learn to love Him.
Finally, this knowledge is easy to assimilate, it does not require any special attributes in the person other than dedication and faith. While most things that take little effort yield temporary results, this knowledge results in permanent, eternal happiness.
Having provided a detailed description of the characteristics of this royal knowledge, Shri Krishna describes the fate of people who do not follow this teaching.
।। हिंदी समीक्षा ।।
भगवान श्री कृष्ण जिस ज्ञान को बताने वाले है उस की तीन विशेषता बताते है। 1) यह राज विद्या है 2) राजगुह्य है 3) यह अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, पूर्व के समस्त फलों को नष्ट करने वाला, सांसारिक दुखो से मुक्ति देनेवाला, सुगम एवम अविनाशी है। इस के पश्चात किस प्रकार के मनुष्य द्वारा यह सरलता से प्राप्त किया जा सकता है, इस के लिए उस मनुष्य के गुणों को बतलाया है।
पूर्व में मोक्ष की प्राप्ति का ज्ञान मार्ग अर्थात सन्यास मार्ग ही उपलब्ध था। जो अत्यंत कठिन एवम प्रत्येक मनुष्य के लिये प्राप्त करना दुष्कर था।
ईश्वर प्राप्ति के साधनों को उपनिषदों में विद्या कहा गया है। यह हमेशा ही गुप्त रखी जाती थी। इक्ष्वाकु प्रभृति राजाओं की परंपरा से ही इस योग का प्रचार हुआ था, इसलिये इस विद्या के मार्ग को राजाओं या बड़े लोगो की विद्या अर्थात राजविद्या कहा गया। जिस को जान कर और कुछ जानना शेष नही रहता अर्थात जिस को जानने के बाद अज्ञात भी अज्ञात नही रहता, ऐसी अतिशय प्रकाश युक्त होनेवाले ब्रह्मज्ञान को राजविद्या कहा गया है। क्योंकि यह विद्या अब तक ली गई समस्त विद्याओं से श्रेष्ठ है, इसलिए इस सभी विद्याओं का राजा अर्थात राजविद्या कहा गया है।
अन्य अर्थ में विद्या के दो प्रकार है, प्रथम सांसारिक विद्या जो जीव के इस संसार मे रहने एवम धन एवम ऐश्वर्य कमाने के लिये है। इस विद्या में शस्त्र विद्या या आज के युग मे स्कूल, कॉलेज आदि के पढ़ाई जाने वाली विद्या है। यह जीव के साथ ही वृद्धा अवस्था मे क्षीण भी हो जाती है। इस को अपरा प्रकृति की विद्या भी कहा गया है।
दूसरी विद्या व्यक्तीत्व के विकास के लिए होती है जिस में जीव अपने को परमात्मा से जोड़ने का प्रयत्न करता है। इस को परा प्रकृति की विद्या भी कहते है। यह विद्या जिस के पास आये, उसे उठा के ब्रह्म पथ पर चलाते हुए मोक्ष को प्रदान करे जहां पुनरवर्तन न हो। किन्तु इस विद्या में यदि रास्ते मे जीव ऋद्धियो या सिद्धियों या फिर अहम एवम कामना में उलझ गया तो यह विद्या ही उस के लिये अविद्या सिद्ध हो जाती है और जीव का पतन हो जाता है। यह आज के युग में परा प्रकृति की विद्या को सीखने वालो में अहम एवम कामना का योग होने से अविद्या ही ज्यादा मिलती है।
इसी विद्या में जिस गोपनीय ज्ञान को भगवान श्री कृष्ण देने वाले है जिस से किसी भी किस्म का अहित नही होता एवम इधर करो- उधर लो जैसी सरल, सुगम्य, पवित्र, उत्तम, धर्मयुक्त एवम प्रयत्क्ष फल देनेवाली विद्या को समस्त विद्याओं में श्रेष्ठ होने से राज विद्या कहते है। यह विद्या अक्षर या अव्यक्त ब्रह्म को लक्ष्य न करते हुए भक्ति मार्ग द्वारा परम गति को प्राप्ति के लिये है। यह विद्या समस्त विद्याओं में श्रेष्ठ है अतः राज विद्या है। यह परमात्मा के व्यक्त रूप में है अतः इस विद्या में परमात्मा के दर्शन भी संभव है। अनेक सहस्र जन्मों में इकट्ठे हुए पुण्य पापादि कर्मों को क्षणमात्र में मूलसहित भस्म कर देता है एवम किसी भी प्रकार के विरोध से मुक्त होने से पूर्णतयः धर्मयुक्त है। धर्मयुक्त का आशय वैदिक शास्त्रो एवम उपनिषद से प्राप्त है। वेद अर्थात परमात्मा की वाणी माने जाने वाले ग्रन्थ, जो परब्रह्म के प्रमाणिक अनुभव का आधार है, अतः अत्यंत गोपनीय एवम श्रेष्ठ होने के अतिरिक्त यह वेदों से प्रामाणिक है, इसलिये शाश्वत और नष्ट नही होने वाला ज्ञान है।
ज्ञान और विज्ञान में इस विद्या को विज्ञान कहा गया है। विज्ञान का अर्थ है, प्रमाणित। जिस विद्या करने के लिए कोई संप्रदाय, जाति, धर्म, उम्र या सिद्धांत या कार्यविधि की आवश्यकता नहीं होती, जिस में शुद्ध और सात्विक ह्रदय, श्रद्धा, प्रेम और विश्वास चाहिए, जो विद्या समर्पण और स्मरण पर आधारित है, जिस को जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, वह ही विज्ञान है।
यह माना गया है कि भारतवर्ष में जो ज्ञान वेदों को प्रामाणिक नही मानता, वह नास्तिक ज्ञान है। इस का उदाहरण बौद्ध धर्म का ज्ञान है, जिस में बुद्ध ने वेद को नकार दिया था, जिस के कारण यह भारतवर्ष में नही फैल सका। यही कारण है कि पूर्व के अध्यायों ( चतुर्थ अध्याय) में भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट किया कि जो भी वे कहते है, वह उन का मौलिक ज्ञान नही है वरन उन्हे भी परंपरागत ही प्राप्त है।
इस विद्या को राजगुह्य भी कहा गया है। गुह्य का अर्थ हमे अपने अनुभव से प्राप्त करना है। उदाहरण के तौर पर गुड़ का स्वाद गूंगे द्वार वर्णित नही किया जा सकता है अथवा अंधे को आप रंग का वर्णन नहीं कर सकते, वैसे ही इस मार्ग पर चलने वाला इस विद्या को वर्णित नही कर सकता। जिस के लिये यह समस्त विद्या का ज्ञान किया जाता है मात्र वो परम परमेश्वर ही इस विद्या को बता सकता है, इसलिये भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं में परमात्मा ही है इस अत्यंत राजगुह्य विद्या को वर्णित करने की बात कह रहे है। यह ज्ञान इंद्रियाओ द्वारा प्रयत्क्ष नही हो सकता, यह महान, पवित्र उत्तम ज्ञान है जिस की प्राप्ति से अंधकार से प्रकाश की प्राप्ति हो जाती है और जीव साक्षात शिव रूप हो जाता है। अतः इस ज्ञान को अविनाशी और पवित्र ज्ञान कहा गया है।
इस ज्ञान को अविनाशी भी कहा गया है, जीव की मृत्यु के बाद भी पुनः जन्म में पूर्व जन्म का यह ज्ञान उस के साथ रहता है और उस को मुक्ति के मार्ग तक ले कर ही जाता है। अविस्मर्णीय एवम अव्यय भी है। इस के नियम भी अत्यंत सरल है क्योंकि भक्ति तो उठते, बैठते, सोते, जागते, खाते या कभी भी, कहीं भी कर सकते है।
क्योंकि यह ज्ञान सुगम, स्थायी एवम प्रयत्क्ष फल देने वाला है तो इस का पात्र भी अनसुयु होना चाहिये। अनसुयु शब्द को कल हम पढ़ चुके है यानि दोष रहित । भगवान अर्जुन को अनसुयु कहते है क्योंकि वो उन के समक्ष अपनी समस्त कमजोरियों को बिना झिझक के बता रहे है एवम उन के उपदेश को श्रद्धा पूर्वक सुन रहे है। अतः गीता में यह भी कहा गया है कि यह राजविद्या किसी भी अपात्र को नही दी जा सकती।
शब्द एवम अभिव्यक्ति दोनों में अंतर ह्रदय की भावना का है। अभिव्यक्ति ह्रदय से निकलती है एवम उसी व्यक्ति द्वारा ग्रहण की जा सकती है जो सरल, भावुक, ज्ञानवान एवम पवित्र हो। अन्यथा अभिव्यक्ति मात्र शब्द बन कर रह जाती है। अतः यह ज्ञान सरल हृदय वाले व्यक्ति के लिए सुगम, बिना किसी विशिष्ट कर्म काण्ड या विधि के और प्रत्यक्ष प्रमाणित है।
किसी को ज्ञान को प्राप्त करने या गीता को समझने के लिये यह गुण होना आवश्यक है। जिस में श्रद्धा,विश्वास एवम समपर्ण नहीं है वो इस ज्ञान का पात्र भी नही है। दोष दृष्टि रखने वाला अश्रद्धालु मनुष्य इस का पात्र नही हो सकता जिस के विषय मे अगले श्लोक में पढ़ेगे।
।। हरि ॐ तत सत।। 9.02।।
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