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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  09.01 II  

।। अध्याय     09.01 II  

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 9.1

श्रीभगवानुवाच,

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥

“śrī-bhagavān uvāca,

idaḿ tu te guhyatamaḿ,

pravakṣyāmy anasūyave..।

jñānaḿ vijñāna- sahitaḿ,

yaj jñātvā mokṣyase ‘śubhāt”..।।

भावार्थ: 

श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! अब मैं तुझ ईर्ष्या न करने वाले के लिये इस परम- गोपनीय ज्ञान को अनुभव सहित कहता हूँ, जिस को जान कर तू इस दुःख-रूपी संसार से मुक्त हो सकेगा। (१)

Meaning:

Shree Bhagavaan said:

However, to you who is without fault, I will teach this extremely secret knowledge along with wisdom, having known which, you will be liberated from the inauspicious.

Explanation:

Shri Krishna uses this chapter to progress the theme of the seventh chapter, which was the infinite nature of Ishvara and the finite nature of maaya. He begins the chapter by asserting that the knowledge of Ishvara’s infinite nature will result in liberation. He addresses Arjuna as “anasooya” which means without fault, doubt or prejudice, indicating that those who have begun the process of purification of their minds through karma yoga and devoted meditation will understand this knowledge completely. Shree Krishna also declares Anasūyave means “non- envious.” Anasūyave also has the sense of “one who does not scorn.” Those listeners who deride Shree Krishna because they believe He is boasting will not benefit from hearing such a message.  Rather, they will incur harm, by thinking, “Look at this egotistic person. He is praising His own Self.”

Lord Krishna introduces the subject matter in the first three verses. He says the subject matter is going to be Īśvara jñānam; that is going to be the subject matter of the 9th chapter, and what type of Īśvara jñānam? Īśvara consisting of both His inferior nature as well as superior nature i.e. aparā prakṛti as well as parā prakṛti.

First, let us understand the result of knowledge that Shri Krishna is glorifying in this shloka. It is going to give us freedom or liberation from the inauspicious. The word inauspicious in this shloka refers to samsaara or the endless cycle of creation and dissolution that all of us are trapped in.

In the second chapter, Shree Krishna explained the knowledge of the ātmā (soul) as a separate and distinct entity from the body.   That is guhya, or secret knowledge.  In the seventh and eighth chapters, He explained knowledge of His powers, which is guhyatar, or more secret.  And in the ninth and subsequent chapters, He will reveal knowledge of His pure bhakti, which is guhyatam, or the most secret.

Next, let us look at what makes this knowledge unique. Shri Krishna says that he is going to reveal not just “jnyaana” or knowledge, but also “vijnyana” or wisdom that we can internalize in our lives. Also, unlike other knowledge that requires action to give a result, this knowledge gives us the result of liberation all by itself. As an example, if we come to know that a mirage in a desert is false, we don’t have to do anything further.

What makes this knowledge even more special is that it is extremely subtle. It is hard for someone to figure out on their own. We need a competent teacher like Shri Krishna to reveal this knowledge to us, as well as a competent student who is ready and unprejudiced. Shri Krishna, urging us to learn this knowledge in the right way through a teacher, calls it secret knowledge. It also shows the level of trust that Arjuna built with Shri Krishna in order to qualify for this knowledge.

Shri Krishna further glorifies this special knowledge in the next shloka.

Footnotes:

1. Four things comprise ignorance or incorrect knowledge about our self. Doership, enjoyership, the notion of birth, death and rebirth, and the notion that the “I” in me has a different identity than the universe; all this is ignorance or avidya.

2. This ignorance is driven away by knowledge, which is the true nature of our self.

।। हिंदी समीक्षा ।।

भगवान इस अध्याय में राज विद्या और राजगुह्य योग को बताने के विषय को प्रारम्भ करते हुए कहा रहे है कि तुम असूयारहित हो। इसलिये मैं गुह्यतम उपासनात्मक ज्ञान को विज्ञान सहित कहूंगा। जिसे जान कर तुम अशुभ से मोक्ष प्राप्त कर लोगे। जो ब्रह्मज्ञान आगे कहा जायगा और जो कि पूर्व के अध्यायों में भी कहा जा चुका है। यही यथार्थ ज्ञान साक्षात् मोक्षप्राप्ति का साधन है। जो कि सब कुछ वासुदेव ही है आत्मा ही यह समस्त जगत् है ब्रह्म अद्वितीय एक ही है इत्यादि श्रुति स्मृतियों से दिखलाया गया है।  इस के अतिरिक्त और कोई  मोक्ष का साधन नहीं है। जो इस से विपरीत जानते हैं वे अपने से भिन्न अपना स्वामी माननेवाले मनुष्य विनाशशील लोकों को प्राप्त होते हैं ।

गुणवानों के गुण को नही मानना, उन के गुणों में दोष देखना, उन की निंदा करना एवम गुणवान पर मिथ्या दोषों का आरोप लगाना ही “असूया”  है। जिन में यह स्वभाव न हो उन्हें अनसूयु कहते है। आयु, वित्त, घर की बुराई, मंत्र, मैथुन, दवा, तपस्या, दान एवम अपमान यह नौ बाते ऐसी है जिन्हें किसी भी व्यक्ति को अन्य सभी के समक्ष कभी नही बोलना चाहिये जब तक की सामने वाला उस को ग्रहण करने योग्य न हो।

यह अत्यन्त गोपनीय तत्त्व हरेक के सामने नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इस में भगवान् ने खुद अपनी महिमा का वर्णन किया है। जिस के अन्तःकरण में भगवान् के प्रति थोड़ी भी दोषदृष्टि है, उस को ऐसी गोपनीय बात कही जाय, तो वह ‘भगवान् आत्मश्लाघी हैं –अपनी प्रशंसा करनेवाले हैं’ ऐसा उलटा अर्थ ले सकता है। इसी बात को लेकर भगवान् अर्जुनके लिये ‘अनसूयवे’ विशेषण देकर कहते हैं कि भैया ! तू दोष-दृष्टिरहित है, इसलिये मैं तेरे सामने अत्यन्त गोपनीय बात को फिर अच्छी तरह से कहूँगा अर्थात् उस तत्त्व को भी कहूँगा और उस के उपायों को भी कहूँगा ।

ऐसी मनोवृति अज्ञान और घमंड के कारण उत्पन्न होती है और इससे मनुष्य की श्रद्धा भक्ति समाप्त हो जाती है। ईर्ष्यालु लोग इस अटल सत्य को ग्रहण नहीं कर सकते कि भगवान को अपने लिए कुछ प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती और इसलिए वे अकारण जीवात्मा के कल्याण के लिए ही सब कुछ करते हैं। वे जीवात्मा में अपनी भक्ति बढ़ाने के प्रयोजनार्थ अपनी प्रशंसा करते हैं न कि सांसारिक अहंभाव के दोष के कारण जैसा कि हम करते हैं। जब नाज़रेथ के यीशू मसीह ने कहा-“मैं ही मार्ग और मैं ही लक्ष्य हूँ” तब वे उनके उपदेश सुन रही जीवात्माओं को करुणा भाव से प्रेरित होकर ऐसा कह रहे थे न कि अहं भाव से। एक सच्चे गुरु के रूप में वे अपने शिष्यों को समझा रहे थे कि भगवान का मार्ग गुरु के माध्यम से मिलता है किन्तु ईर्ष्यालु मनोवृत्ति के लोग इन उपदेशों के पीछे छिपी करुणा को नहीं समझ सकते और उन पर आत्म-दंभी होने का दोषारोपण करते हैं। क्योंकि अर्जुन उदारचित्त है और ईर्ष्या के दोष से मुक्त है इसलिए वह गुह्यत्तम ज्ञान को जानने का पात्र है जिसे भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय में प्रकट कर रहे हैं।

‘प्रवक्ष्यामि’ पदका दूसरा भाव है कि मैं उस बात को विलक्षण रीति से और साफ-साफ कहूँगा अर्थात् मात्र मनुष्य मेरे शरण होनेके अधिकारी हैं। चाहे कोई दुराचारी- से- दुराचारी, पापी से पापी क्यों न हो तथा किसी वर्ण का, किसी आश्रम का, किसी सम्प्रदाय का, किसी देश का, किसी वेश का, कोई भी क्यों न हो, वह भी मेरे शरण होकर मेरी प्राप्ति कर लेता है- यह बात मैं विशेषता से कहूँगा।

अभी तक जो भी ज्ञान एवम योग का मार्ग बताया गया उस के पालन में सदाहरण मनुष्य को कठनाई हो सकती है। इस लिये परमेश्वर अपने व्यक्त स्वरूप का सरल ज्ञान का राज मार्ग बताते है जिसे भक्ति मार्ग भी कह सकते है। यह ज्ञान विज्ञान सहित ही बताया गया है क्योंकि बिना उपासना सम्बन्धी ज्ञान को उपासनात्मक ज्ञान की सफलता असम्भव है। यहां भगवान सगुणाकार का वर्णन करने वाले है। भगवान पुरुषोत्तम के तत्व, प्रेम, गुण, प्रभाव, विभूति और महत्व आदि के साथ उन की शरणागति का स्वरूप सब से बढ़ कर गुप्त रखने योग्य है।

वे अनसूयु अर्जुन को विज्ञान के सहित ज्ञान का अर्थात् सैद्धान्तिक ज्ञान तथा उसके अनुभव का उपदेश देंगे। ज्ञान और विज्ञान में अंतर अनुभव एवम प्रमाण का है। जो बात किसी भी व्यक्ति को निश्चित क्रिया द्वारा प्रमाणित की जा सके, वह विज्ञान है क्योंकि वह प्रत्यक्ष है। किंतु जिसे केवल अपने स्वयं के प्रयास एवम अनुभव किया जा सके, वह ज्ञान है। अतः विज्ञान का अर्थ उपासना की वह विधि या प्रक्रिया है जिस के करने से ज्ञान मिलता है और मोक्ष का मार्ग मिलता है। कार को चलाने की एक प्रक्रिया है, जिस का पालन करने से ही आप सवारी का आनन्द ले सकते है और गंतव्य स्थान पर पहुंच सकते है। यह प्रक्रिया में जो दक्षता लगती है और रास्ते की जानकारी लगती है, वही विज्ञान है। कार से यात्रा कर के गंतव्य स्थान पर पहुचा जा  सकता है, यह ज्ञान है।

प्रकृति के परवश हुए सम्पूर्ण प्राणी महाप्रलय में मेरी प्रकृति को प्राप्त हो जाते हैं और महासर्ग के आदि में मैं फिर उन की रचना करता हूँ। परन्तु वे कर्म मेरे को बाँधते नहीं। उन में मैं उदासीन की तरह अनासक्त रहता हूँ। मेरी अध्यक्षता में प्रकृति सम्पूर्ण प्राणियों की रचना करती है। मेरे परम भाव को न जानते हुए मूढ़लोग मेरी अवहेलना करते हैं। राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृतिका आश्रय लेनेवालों की आशा, कर्म, ज्ञान सब व्यर्थ हैं। महात्मा लोग दैवी प्रकृति का आश्रय ले कर और मेरे को सम्पूर्ण प्राणियों का आदि मानकर मेरा भजन करते हैं। मेरे को नमस्कार करते हैं। कई ज्ञानयज्ञ के द्वारा एकीभाव से मेरी उपासना करते हैं; आदि- आदि, ऐसा कहकर भगवान् ने ‘ज्ञान’ बताया। मैं ही क्रतु, यज्ञ, स्वधा, औषध आदि हूँ और सत् असत् भी मैं ही हूँ अर्थात् कार्य- कारण रूप से जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ । ऐसा कहकर ‘विज्ञान’ बताया। अध्याय सात में ज्ञान- विज्ञान में परा एवम अपरा प्रकृति को पढ़ा था। परा प्रकृति अव्यक्त एवम अपरा प्रकृति व्यक्त और अव्यक्त दोनो स्वरुप में परब्रह्म द्वारा प्रकृति स्वरूप की रचना है। इसलिये भी ज्ञान को विज्ञान सहित बताने का आशय हम निर्गुण से सगुण और सगुण से निर्गुण का ज्ञान भी है।

जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मनुष्य की अक्षमता का कारण यह है कि वह वस्तु और व्यक्ति अर्थात् जगत् का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करता है। फलत जीवनसंगीत के सुर और लय को वह खो देता है। अपने तथा बाह्य जगत् के वास्तविक स्वरूप को समझने का अर्थ है जगत् के साथ स्वस्थ एवं सुखवर्धक संबंध रखने के रहस्य को जानना। जो पुरुष इस प्रकार समष्टि के साथ एकरूपता पाने में सक्षम है? वही जीवन में निश्चित सफलता और पूर्ण विजय का भागीदार होता है।आन्तरिक विघटन के कारण अपने समय का वीर योद्धा अर्जुन एक विक्षिप्त पुरुष के समान व्यवहार करने लगा था। ऐसे पुरुष को जीवन की समस्यायें अत्यन्त गम्भीर एवम कर्तव्य महत् कष्टप्रद और स्वयं जीवन एक बहुत बड़ा भार प्रतीत होने लगता है। वे सभी लोग संसारी कहलाते हैं जो जीवन इंजिन को अपने ऊपर से चलने देकर छिन्नभिन्न हो जाते हैं। इनके विपरीत जो पुरुष इस जीवन इंजिन में चालक के स्थान पर बैठ कर मार्ग के सभी गन्तव्यों को पार करके अपने गन्तव्य तक सुरक्षित पहुँचते हैं वे आत्मज्ञानी और सन्त ऋषि कहलाते हैं। यद्यपि आत्मज्ञानी का यह पद मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है तथापि इस धरोहर का लाभ केवल वह विवेकी पुरुष पाता है जिसमें अपने जीवन पर विजय पाने का उत्साह और साहस होता है और जो इस पृथ्वी पर ईश्वर के समान रहता है सभी परिस्थितियों का शासक बनकर और जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों में हँसता रहता है।

व्यवहारिक जीवन मे बुद्धि की कमी, अहंकार, दुसरो की बात न सुनना और अपनी ही हाँकना, दुसरो के प्रति अनादर का भाव, विषयो में आसक्ति और आलस्य आदि ऐसे दुर्गुण है जिस के कारण व्यक्ति उच्च स्तर के ज्ञान से वंचित रह जाता है, वह ज्ञान लेने या देने के योग्य भी नही है। इसलिये इस अध्याय से पूर्व ही भगवान का कथन है कि जो व्यक्ति गीता के उपदेश सुनने या मानने को तैयार नही है, उस को इस के ज्ञान को देना भी नही चाहिए। कुरुक्षेत्र में अर्जुन को ही यह ज्ञान दिया था, जिसे  संजय के माध्यम से धृतराष्ट्र ने भी सुना। किंतु मन की मलीनता, पुत्रमोह, लोभ और कृष्ण के प्रति द्वेष भाव के रहते, उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकी, इसलिए ज्ञान की प्राप्ति के गुरु या ज्ञान देने वाले के प्रति श्रद्धा, विश्वास, प्रेम के साथ भक्ति भाव और योग्यता अर्थात निष्काम, निरासक्त और एकाग्रता आदि यदि न हो तो ज्ञान प्राप्त नहीं होता।

अब आगे के श्लोक में इस  विज्ञान सहित ज्ञान की महिमा का वर्णन पढ़ते हैं।

।। हरि ॐ तत सत।।9.01।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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