।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.26 II
।। अध्याय 08.26 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.26॥
शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः॥
“śukla-kṛṣṇe gatī hy ete,
jagataḥ śāśvate mate..।
ekayā yāty anāvṛttim,
anyayāvartate punaḥ”..।।
भावार्थ:
वेदों के अनुसार इस मृत्यु-लोक से जाने के दो ही शाश्वत मार्ग है – एक प्रकाश का मार्ग और दूसरा अंधकार का मार्ग, जो मनुष्य प्रकाश मार्ग से जाता है वह वापस नहीं आता है, और जो मनुष्य अंधकार मार्ग से जाता है वह वापस लौट आता है। (२६)
Meaning:
For, bright and dark, both these paths have been known since eternity. By one, the traveller does not have to return, by the other, he has to return again.
Explanation:
Shri Krishna spoke about two paths that the jeeva takes after death: the “bright” path that goes to the abode of Lord Brahma, and the “dark” path that goes to the abode of the moon. He now reaffirms the difference between these two paths by saying that those who travel by the bright path are liberated, whereas those who take the dark path are born again after spending time in the abode of the moon. He also states that these paths have been established since time immemorial.
Sukḷa Mārga and Kṛṣna Mārga; these two mārgās have been created along with the universe; not in between like putting a new creation; it is not that Bhagavan thought after the creation to lay two new roads. It is not a later added route; but along with the creation itself; these routes have been made because along with the creation, Vēdā has come and along with the creation, the karma upāsana teaching also has been given and along with the creation, human beings also have come; and therefore along with the creation, these two types of sādakās are also there; therefore these two mārgas śukḷa mārga and Kṛṣna mārga; these two mārgās have been created along with the universe; not in between like putting a new creation; it is not that Bhagavān thought after the creation to lay two new roads. No; it is not a later added route; but along with the creation itself; these routes have been made because along with the creation, Vēdā has come; and along with the creation, the karma upāsana teaching also has been given; and along with the creation, human beings also have come; and therefore along with the creation, these two types of sādakās are also there; therefore these two mārgas must be there.must be there.
The same description of departure and return is quoted by Acarya Baladeva Vidyabhushana from the Chandogya Upanishad (5.10.3-5). Those who are fruitive laborers and philosophical speculators from time immemorial are constantly going and coming. Actually, they do not attain ultimate salvation, for they do not surrender to Krishna.
Hence, these two Margs are not date, time, period and astrological situation bound. It is based on devotion towards brahaman or yog. People of every nature are died in both period of sukla aur Krisna paksh, but every one get his road of liberalisation according to his devotion and working.
These two paths take care of two categories of people. One category is those who perform good actions as well as single pointed devotion – they attain the abode of Lord Brahma. The other is those who only perform good actions – they attain heaven. But absent from this list are those who perform negative actions that harm others and themselves. What happens to them?
Shri Krishna has omitted the path of such people, probably because he assumes that one who is interested in following the path of karma yoga is putting forth effort to eliminate negative and destructive actions from his life. More information on the path taken by such people is provided in the Srimad Bhagavatam.
So then, what is the significance of these two paths to us? This is taken up next.
।। हिंदी समीक्षा ।।
जीवन मे मृत्यु के बाद के दो मार्ग उत्तरायण – दक्षिणायन को भगवान द्वारा कहा गया कोई नवीन मार्ग नहीं है। यह सनातन एवम पूर्व में भी बताया जा चुका है। उत्तरायण मार्ग से जाना वाला प्राणी प्रकाश की ओर बढ़ता है एवम पुनरवर्तन को प्राप्त न करते हुए परमात्मा में विलय हो जाता है। इस मार्ग को देवयान भी कहा गया है और अर्चि मार्ग भी कहते है। दक्षिणायन मार्ग से जाने वाला प्राणी अंधकार से मार्ग से जाता है एवम अपने पुण्यों को भोग कर पुनः जन्म को प्राप्त होता है। इस को पितृयान या धूम्र मार्ग भी कहा जाता है। यह शुक्र और कृष्ण गति जिन में एक के द्वारा अपुनरावृति और दूसरी के द्वारा पुनरावृति की प्राप्ति होती है। ऋग्वेद में भी इन दोनों मार्गो के बारे में बताया गया है अतः यह दोनों मार्ग सनातन है। किन्तु इन मार्गो को चन्द्र की कला या समय की गणना कैलेंडर को समझना सब से बड़ी भूल होगी।
जीव ब्रह्म का अंश है, जीव का ब्रह्म से अलग होना और प्रकृति से संयोग होना सृष्टि की रचना का आधार है। कामना और आसक्ति से जीव कर्म फलों में उलझ कर बार बार जन्म लेता है किंतु उस का लक्ष्य तो मुक्ति अर्थात ब्रह्म में विलीन होना है। इसलिए विभिन्न प्रकार से साधना करता हुआ जीव अपने अज्ञान से परिचित होता हुआ ज्ञान को प्राप्त होता है। अतः जीव के मुक्ति के ये दो ही मार्ग है, जिस में पुण्य और पाप कर्म को भोगते हुए बार बार जन्म लेना अर्थात कृष्ण पक्ष अर्थात अंधकार का मार्ग और द्वितीय कर्म मुक्ति होते हुए जीव मुक्ति को प्राप्त होना।
चौथे अध्याय के पहले श्लोक में भगवान् ने ‘योग’ को अव्यय कहा है। जैसे योग अव्यय है, ऐसे ही ये शुक्ल और कृष्ण — दोनों गतियाँ भी अव्यय, शाश्वत हैं अर्थात् ये दोनों गतियाँ निरन्तर रहनेवाली हैं, अनादि काल से हैं और जगत् के लिये अनन्त काल तक चलती रहेंगी
मानव की प्रत्येक पीढ़ी में जीवन जीने के दो मार्ग या प्रकार होते हैं भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिकवादियों के अनुसार मानव की आवश्यकताएं केवल भोजन वस्त्र और गृह हैं। उन के मतानुसार जीवन का परम पुरुषार्थ वैषयिक सुखोपभोग के द्वारा शरीर और मन की उत्तेजनाओं को सन्तुष्ट करना ही है। केवल इतने से ही उनको सन्तोष हो जाता है। इस से उच्चतर तथा दिव्य आदर्श के प्रति न कोई उनकी रुचि होती है और न प्रवृत्ति। परन्तु अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले विवेकीजन अपने समक्ष आकर्षक विषयों को देख कर लुब्ध नहीं हो जाते। उनकी बुद्धि अग्निशिखा के समान सदा उर्ध्वगामी होती है जो सतही जीवन में उच्च और श्रेष्ठ लक्ष्य की खोज में रमण करती है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये दोनों ही मार्ग सनातन हैं और अनादिकाल से इन पर चलने वाले दो भिन्न प्रवृत्तियों के लोग रहे हैं। व्यापक अर्थ की दृष्टि से इन दोनों का सम्मिलित रूप ही संसार है। परन्तु वेदान्त का सिद्धांत है कि जीव संसार के जन्म-मरण के दुःख से निवृत्त हो सकता है। यह ऋषियों का प्रत्यक्ष अनुभव है। एक साधक की दृष्टि से विचार करने पर इस श्लोक में सफल योगी बनने के लिए दिये गये निर्देश का बोध हो सकता है। कभी कभी साधना काल में मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण साधक विषयों की ओर आकर्षित होकर उनमें आसक्त हो जाता है।
अतः ज्ञान का मार्ग निष्काम कर्म योग सन्यास प्रकाश का मार्ग है, जब कि कामना-अहम के साथ पुण्य कर्म, दान-पुण्य और लोकसंग्रह के कर्म अंधकार का मार्ग है, जिस में जीव इहलोक के देवताओं को पूजता है और अपने पुण्य फलों को भोग कर पुनः जन्म को प्राप्त होता है।
चर-अचर प्राणी क्रमसे अथवा भगवत्कृपासे कभी-न-कभी मनुष्य-जन्ममें आते ही हैं और मनुष्य जन्म में किये हुए कर्मों के अनुसार ही ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति होती है। अब वे ऊर्ध्वगतिको प्राप्त करें अथवा न करें, पर उन सबका सम्बन्ध ऊर्ध्वगति अर्थात् शुक्ल और कृष्ण-गतिके साथ है ही।जबतक मनुष्योंके भीतर असत् (विनाशी) वस्तुओंका आदर है, कामना है, तबतक वे कितनी ही ऊँची भोग-भूमियोंमें क्यों न चले जायँ, पर असत् वस्तुका महत्त्व रहनेसे उनकी कभी भी अधोगति हो सकती है। इसी तरह परमात्माके अंश होनेसे उनकी कभी भी ऊर्ध्वगति हो सकती है। परमात्मा प्राप्ति के लिये किसी भी लोक में योनि में कोई बाधा नहीं है। इस का कारण यह है कि परमात्मा के साथ किसी भी प्राणी का कभी सम्बन्धविच्छेद होता ही नहीं। अतः न जाने कब और किस योनि में वह परमात्मा की तरफ चल दे – इस दृष्टि से साधक को किसी भी प्राणी को घृणा की दृष्टि से देखने का अधिकार नहीं है।
व्यवहार में विवेचन करे तो हम ने पढ़ा कि अंतिम समय में जो भी कामना रहती है, उस के अनुसार अगला जन्म मिलता है। अतः जब तक जीव कर्म मुक्ति से मुक्त नही है तो वह यदि तीव्र कामना के साथ शरीर का त्याग करता है तो उसी के अनुसार अगला जन्म तुरंत शुरू हो जाता है, अन्यथा वह अपने सूक्ष्म शरीर के साथ अपने पाप और पुण्य कर्म के अनुसार विभिन्न लोकों में कर्म के फलों के अनुसार समय व्यतीत करता है। यह क्योंकि मुक्ति का मार्ग नही है, इसलिए इसे कृष्ण पक्ष कहा गया है। इस का कैलेंडर या समय, तिथि या काल से कोई मतलब नहीं है। इस के विपरीत जो साधक मुक्ति की साधना निष्काम और निर्लिप्त भाव से करता है तो उस के प्रारब्ध के कर्म संपूर्ण होने और संचित कर्म नष्ट होने के कारण, वह मृत्यु के बाद उच्च लोक में चला जाता है और अपनी साधना जीव मुक्ति की करने के बाद परब्रह्म में विलीन हो जाता है। यदि कोई इन श्लोक का अर्थ घड़ी, तिथि या वार आदि देख कर अर्थ लगाता है तो वह अंधविश्वास ही फैलाता है।
पूर्व श्लोक में की गई विवेचना में यदि हम और ध्यान दे, तो हमे स्वीकार करना होगा कि भौतिक शरीर अभी तक ब्रह्मांड में पृथ्वी ग्रह अर्थात इस ग्रह में ही प्राप्त है। जीव का सूक्ष्म शरीर कहां कहां यात्रा करता है और जन्म से पहले और मृत्यु के बाद का सूक्ष्म शरीर किसी को भी पता नही। इसलिए जिन योगियों ने इस विषय में जैसा जैसा अनुभव किया, संपूर्ण सृष्टि की रचना का आधार एक मात्र परब्रह्म को पाया,जिस से जीव, प्रकृति और माया से यह रचना हुई। मस्तिष्क में सुप्त अवस्था में या ध्यान में कभी कभी कुछ अज्ञात आभास सभी को होते है, जो इस बाद का प्रमाण है कि मृत्यु अर्थात भौतिक शरीर के बाद भी जीवन है, किंतु जैसे हमे बताया गया है, जब तक भौतिक शरीर नही हो, कर्म का अधिकार किसी भी सूक्ष्म शरीर को शरीर को नही है। अतः कर्म प्रकृति अपने नियम से और माया से करती है और जीव भौतिक शरीर से। ईश्वर भी वही है, जिस जीव ने प्रकृति और माया पर नियंत्रण कर लिया, इसलिए वह प्रकृति के कार्य करता है और जीव प्रकृति के अंदर उस की माया के अधीन है, इसलिए वह प्रकृति के अनुसार कार्य करता है।
दोनों मार्गो का ज्ञान का औचित्य क्या है, यह हम आगे पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 8.26।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)