।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.25 II
।। अध्याय 08.25 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.25॥
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥
“dhūmo rātris tathā kṛṣṇaḥ,
ṣaṇ-māsā dakṣiṇāyanam..।
tatra cāndramasaḿ jyotir,
yogī prāpya nivartate”..।।
भावार्थ:
जिस समय अग्नि से धुआँ फ़ैल रहा हो, रात्रि का अन्धकार हो, कृष्ण-पक्ष का चन्द्रमा घट रहा हो और जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है उन छः महीनों के समय में शरीर त्यागने वाला स्वर्ग-लोकों को प्राप्त होकर अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर पुनर्जन्म को प्राप्त होता है। (२५)
Meaning:
Smoke, night, darkness and the southern movement comprising six months; the yogi (travels through) that path, attains the light of the moon, to return.
Explanation:
We saw earlier that jeevas who have practised single- pointed devotion travel on the path of light, attain the abode of Lord Brahma, and eventually achieve liberation. Now, Shri Krishna describes the path of the jeeva who has performed good deeds in its lifetime but had not practiced devotion. This path is called the path of the moon or the lunar path.
The ignorant souls who are attached to the world remain entangled in the bodily concept of life. They forget their relationship with God. Such souls depart by the path of darkness. Hence, continue to rotate in the cycle of life and death. However, those who may have undertaken some Vedic rituals, as its fruit, go to the celestial abodes. But this position is also part of the material world, thus temporary. When their merits are exhausted, they have to return to earth. Ultimately all humans born on earth, upon death, have to pass along either of the two paths, the path of light or the path of darkness. It is their karmas that decide which path they would take eventually.
The jeeva is guided on this path by the deities who preside over the smoke of the pyre, night, the dark lunar fortnight and the six months between summer and winter. Having travelled through the lunar path, these jeevas attain a lower realm called Chandraloka or the abode of the moon. In modern language, this is nothing but heaven. The jeeva enjoys heavenly pleasures, which are the fruits of its earthly actions. Unlike the jeeva in Lord Brahma’s abode, this jeeva returns to earth once the fruits of its good actions have depleted.
Both the dark lunar fortnight and the period between summer and winter are relatively less auspicious than their brighter counterparts. But many festivals including Maha Shivraatri and Krishna Janmaashtami are celebrated during the dark lunar fortnight.
Any mental sādhanā is supposed to be of higher quality than any physical sādhanā; Because mental sādhanā is more difficult; because mind runs all over; physical sādhanā you can do pūjā very fast;physical sādhanā, mind can be anywhere; so therefore mere ritalists would get puṇyam but of a lower order and therefore he goes through tatra; Kṛṣna mārgēna; and reaches us chandramasam jyothiḥ; he reaches only svarga lōkā, otherwise known as chandra lōkā, which is lower than Brahma lōkā, because in the purāṇās.
Shri Krishna summarizes the difference between the two paths in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
देश और काल की दृष्टि से जितना अधिकार अग्नि अर्थात् प्रकाश के देवता का है, उतना ही अधिकार धूम अर्थात् अन्धकार के देवता का है। वह धूमाधिपति देवता कृष्णमार्ग से जानेवाले जीवों को अपनी सीमा से पार कराकर रात्रि के अधिपति देवता के अधीन कर देता है। रात्रि का अधिपति देवता उस जीव को अपनी सीमा से पार कराकर देश-काल को लेकर बहुत दूर तक अधिकार रखनेवाले कृष्णपक्ष के अधिपति देवता के अधीन कर देता है। वह देवता उस जीव को अपनी सीमा से पार कराकर देश और काल की दृष्टि से बहुत दूरतक अधिकार रखने वाले दक्षिणायन के अधिपति देवता के समर्पित कर देता है। वह देवता उस जीव को चन्द्रलोक के अधिपति देवता को सौंप देता है। इस प्रकार कृष्णमार्ग से जानेवाला वह जीव धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके देश को पार करता हुआ चन्द्रमा की ज्योति को अर्थात् जहाँ अमृत का पान होता है, ऐसे स्वर्गादि दिव्य लोकों को प्राप्त हो जाता है। फिर अपने पुण्यों के अनुसार न्यूनाधिक समय तक वहाँ रह कर अर्थात् भोग भोगकर पीछे लौट आता है।
प्रथम दो प्रकार के योगी जो जीवन मरण से मुक्त हो कर परमात्मा में विलय हो जाते है इस को दोहराते हुए प्रथम जो ब्रह्मरंध से प्राण त्यागते है, द्वितीय जो स्मरण करते हुए निष्काम अनन्या भक्ति से प्राण त्यागते है, अब हम उन जीव के बारे जानेगे जो सुख भोग की कामना के साथ परमात्मा एवम जन की सेवा करते है। यह कर्मयोगी अन्य लोक में सुख मिले इस आशा से दान, अस्पताल, स्कूल आदि बनवाते है।
साधना और धर्म में पुण्य को सामाजिक और भौतिक स्वरूप में करना सरल है, जैसे रोज मंदिर जाना, तीर्थ करना, गरीब को भोजन और धन का दान, अस्पताल, स्कूल या धर्मशाला बनवाना आदि। इस में त्याग तो है किंतु मन और बुद्धि में कामनाओं और आसक्ति का त्याग नही होता। द्वितीय यदि जो मानसिक या आध्यात्मिक पूजा या ध्यान करते है, वे आत्मशुद्धि या चित्तशुद्धी करते है जो पहले की अपेक्षा कठिन है। इसलिए जो जीव निर्लिप्त और निष्काम भाव से युक्त नही होता, वह पुण्य तो अवश्य कमाता है किंतु जीवमुक्ति या मोक्ष नहीं।
यहाँ सकाम मनुष्यों को भी ‘योगी’ क्यों कहा गया है? इस के अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे –,(1) गीता में भगवान ने मरने वाले प्राणियों की तीन गतियाँ बतायी हैं – ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति। इन में से ऊर्ध्वगति का वर्णन इस प्रकरण में हुआ है। मध्यगति और अधोगति से ऊर्ध्वगति श्रेष्ठ होने के कारण यहाँ सकाम मनुष्यों को भी योगी कहा गया है।,(2) जो केवल भोग भोगने के लिये ही ऊँचे लोकों में जाता है, उसने संयमपूर्वक इस लोक के भोगों का त्याग किया है। इस त्याग से उस की यहाँ के भोगों के मिलने और न मिलने में समता हो गयी है। इस आंशिक समताको लेकर ही उसको यहाँ योगी कहा गया है।
(3) जिन का उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का है, पर अन्तकाल में किसी सूक्ष्म भोग-वासना के कारण वे योग से, विचलित मना हो जाते हैं, तो वे ब्रह्मलोक आदि ऊँचे लोकों में जाते हैं और वहाँ बहुत समयतक रहकर पीछे यहाँ भूमण्डल पर आकर शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेते हैं। ऐसे योगभ्रष्ट मनुष्यों का भी जानेका यही मार्ग (कृष्णमार्ग) होने से यहाँ सकाम मनुष्य को भी योगी कह दिया है।
इन की मृत्यु का मार्ग सूर्य के दक्षिणायन का मार्ग होता है। जिसे सावन से पोष माह तक कहा जाता है, इस मे रात्रि बड़ी एवम दिन छोटे होते है। यहां छह माह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर विकार का द्योतक है।
गीता में यह दोनों मार्ग मुख्यतः पृथ्वी के उत्तरी धुर्व एवम दक्षिण धुर्व है, जो उस काल से ऋषि मुनियों से लंबे दिन या लंबी रातों को ध्यान में रखते हुए लिखे होंगे किन्तु वास्तव में यह जीव के मृत्यु के बाद की गति है। इस मे तिथि, काल, माह, दिन या रात से कोई सबन्ध नही है। इस का मुख्य उद्देश्य यही है कि जीव को निष्काम कर अपने कर्म करते हुए परमात्मा का स्मरण करे।
सामान्य मनुष्य मरकर मृत्युलोक में जन्म लेते हैं, जो पापी होते हैं, वे आसुरी योनियों में जाते हैं और उन से भी जो अधिक पापी होते हैं, वे नरक के कुण्डों में जाते हैं – इन सब मनुष्यों से कृष्णमार्गसे जानेवाले बहुत श्रेष्ठ हैं। वे चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होते हैं – ऐसा कहने का यही तात्पर्य है कि संसार में जन्म मरण के जितने मार्ग हैं उन सब मार्गों से यह कृष्णमार्ग (ऊर्ध्वगतिका होनेसे) श्रेष्ठ है और उनकी अपेक्षा प्रकाशमय है।
चतुर्थ प्रकार में वो जीव के जो कर्म बंधन में ही सांसारिक सुख भोग में विस्वास रखते है यह अपने अपने कर्मो के अनुसार मृत्यु के पश्चात पुनः अपने कर्म फल अनुसार पुनः जन्म विभिन्न योनि में लेते है।
सामान्य मनुष्यों की यह धारणा है कि जो दिन में, शुक्ल पक्ष में और उत्तरायण में मरते हैं, वे तो मुक्त हो जाते हैं, पर जो रात में कृष्ण पक्ष में और दक्षिणायन में मरते हैं उन की मुक्ति नहीं होती। यह धारणा ठीक नहीं है। कारण कि यहाँ जो शुक्लमार्ग और कृष्ण मार्ग का वर्णन हुआ है, वह ऊर्ध्व गति को प्राप्त करने वालों के लिये ही हुआ है। इसलिये अगर ऐसा ही मान लिया जाय कि दिन आदि में मरने वाले मुक्त होते हैं और रात आदि में मरने वाले मुक्त नहीं होते, तो फिर अधोगति वाले कब मरेंगे? क्योंकि दिन-रात, शुक्लपक्ष- कृष्णपक्ष और उत्तरायण- दक्षिणायन को छोड़ कर दूसरा कोई समय ही नहीं है। वास्तव में मरनेवाले अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही ऊँच-नीच गतियों में जाते हैं, वे चाहे दिन में मरें, चाहे रात में; चाहे शुक्लपक्ष में मरें, चाहे कृष्णपक्ष में; चाहे उत्तरायण में मरें, चाहे दक्षिणायन में – इसका कोई नियम नहीं है।अतः इन दो श्लोक का वास्तविक अर्थ चार प्रकार् के भक्तों में निष्काम और कामना के साथ स्मरण करते हुए प्रयाण करने वाले योगी पुरुष को उर्ध्व और निम्न गति को ही मान लेते है। इसे हम आगे स्पष्ट रूप में पढ़ते है।
पुनःश्च: गीता पढ़ते हुए कुछ बुद्धि जीवी नास्तिक विचारों में इस प्रकार के मार्ग आदि में विश्वास नहीं रखते। ब्रह्मांड अत्यंत विशाल है, उस में सौर मंडल जैसे सैंकड़ों मंडल है। इस विशाल में जीवन जैसी कोई प्रक्रिया एक मात्र पृथ्वी ग्रह में ही है, यह अभी तक की खोज है, आगे का पता नही, किंतु ब्रह्म के अंश में जीव की धारणा हमारे शास्त्रों में विभिन्न ऋषि मुनियों से विभिन्न चौदह लोकों में अनुभव से प्राप्त की है। जन्म – मृत्यु और मृत्यु के बाद भी अस्तित्व को नास्तिक विचार धारा में नकारा भी है किंतु फिर भी पृथ्वी में जीवन का पाया जाना अभी तक ब्रह्मांड में सब से बड़ी मान्यता है। अन्य लोक में भी जीवन होगा, यह हम नही जानते इसलिए साक्ष्य के अभाव में जो अनुभव हमारे पूर्वजों ने समय समय शास्त्रों में लिखे है, उस के अनुसार पुनः जन्म की बात भी सत्य है।
।। हरि ॐ तत सत।।8.25।।
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