।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.24 II Additional II
।। अध्याय 08.24 II विशेष II
।। स्वामी राम सुख दास द्वारा मनुष्य की गति पर विवेचन ।।गीता – विशेष 8.24 ।।
(1) जिन का उद्देश्य परमात्मा प्राप्ति का है परन्तु सुख भोग की सूक्ष्म वासना सर्वथा नहीं मिटी है वे शरीर छोड़कर ब्रह्मलोक में जाते हैं। ब्रह्मलोक के भोग भोगने पर उन की वह वासना मिट जाती है तो वे मुक्त हो जाते हैं। इनका वर्णन यहाँ चौबीसवें श्लोकमें हुआ है।
जिन का उद्देश्य परमात्मा प्राप्ति का ही है और जिन में न यहाँ के भोगों की वासना है तथा न ब्रह्मलोक के भोगों की परन्तु जो अन्तकाल में निर्गुण के ध्यान से विचलित हो गये हैं वे ब्रह्मलोक आदि लोकों में नहीं जाते। वे तो सीधे ही योगियों के कुल में जन्म लेते हैं अर्थात् जहाँ पूर्वजन्मकृत ध्यानरूप साधन ठीक तरह से हो सके ऐसे योगियों के कुल में उन का जन्म होता है। वहाँ वे साधन करके मुक्त हो जाते हैं उपर्युक्त दोनों साधकों का उद्देश्य तो एक ही रहा है पर वासना में अन्तर रहने से एक तो ब्रह्मलोक में जाकर मुक्त होते हैं और एक सीधे ही योगियों के कुल में उत्पन्न होकर साधन करके मुक्त होते हैं।
जिन का उद्देश्य ही स्वर्गादि ऊँचेऊँचे लोकों के सुख भोगने का है वे यज्ञ आदि शुभकर्म कर के ऊँचेऊँचे लोकों में जाते हैं और वहाँके दिव्य भोग भोगकर पुण्य क्षीण होने पर पीछे लौटकर आ जाते हैं अर्थात् जन्ममरण को प्राप्त होते हैं।
जिस का उद्देश्य तो परमात्मा प्राप्ति का ही रहा है पर सांसारिक सुखभोग की वासना को वह मिटा नहीं सका। इसलिये अन्तकाल में योग से विचलित होकर वह स्वर्गादि लोकों में जाकर वहाँ के भोग भोगता है और फिर लौटकर शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है। वहाँ वह जबर्दस्ती पूर्वजन्मकृत साधन में लग जाता है और मुक्त हो जाता है।
उपर्युक्त दोनों साधकों में एक का तो उद्देश्य ही स्वर्ग के सुखभोग का है इसलिये वह पुण्यकर्मों के अऩुसार वहाँ के भोग भोगकर पीछे लौटकर आता है। परन्तु जिस का उद्देश्य परमात्मा का है और वह विचारद्वारा सांसारिक भोगों का त्याग भी करता है फिर भी वासना नहीं मिटी तो अन्तमें भोगों की याद आने से वह स्वर्गादि लोकों में जाता है। उसने जो सांसारिक भोगों का त्याग किया है उसका बड़ा भारी माहात्म्य है। इसलिये वह उन लोकोंमें बहुत समयतक भोग भोगकर यहाँ श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
(2) सामान्य मनुष्योंकी यह धारणा है कि जो दिनमें शुक्लपक्षमें और उत्तरायणमें मरते हैं वे तो मुक्त हो जाते हैं पर जो रात में कृष्णपक्ष में और दक्षिणायन में मरते हैं उन की मुक्ति नहीं होती। यह धारणा ठीक नहीं है। कारण कि यहाँ जो शुक्लमार्ग और कृष्णमार्गका वर्णन हुआ है वह ऊर्ध्वगति को प्राप्त करनेवालों के लिये ही हुआ है। इसलिये अगर ऐसा ही मान लिया जाय कि दिन आदिमें मरनेवाले मुक्त होते हैं और रात आदि में मरने वाले मुक्त नहीं होते तो फिर अधोगतिवाले कब मरेंगे क्योंकि दिन रात शुक्लपक्ष कृष्णपक्ष और उत्तरायण दक्षिणायन को छोड़ कर दूसरा कोई समय ही नहीं है। वास्तव में मरने वाले अपने अपने कर्मों के अनुसार ही ऊँचनीच गतियों में जाते हैं वे चाहे दिनमें मरें चाहे रात में चाहे शुक्लपक्ष में मरें चाहे कृष्णपक्ष में चाहे उत्तरायण में मरें चाहे दक्षिणायन में इसका कोई नियम नहीं है।जो भगवद्भक्त हैं जो केवल भगवान् के ही परायण हैं जिन के मन में भगवद्दर्शन की ही लालसा है ऐसे भक्त दिन में या रात में शुक्लपक्ष में या कृष्णपक्ष में उत्तरायण में या दक्षिणायन में जब कभी शरीर छोड़ते हैं तो उन को लेनेके लिये भगवान् के पार्षद आते हैं। पार्षदों के साथ वे सीधे भगवद्धाममें पहुँच जाते हैं।यहाँ एक शङ्का होती है कि जब मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही गति पाता है तो फिर भीष्मजी ने जो तत्त्वज्ञ जीवन् मुक्त महापुरुष थे दक्षिणायन में शरीर न छोड़कर उत्तरायण की प्रतीक्षा क्यों की इस का समाधान यह है कि भीष्मजी भगवद्धाम नहीं गये थे। वे द्यौ नामक वसु (आजान देवता) थे जो शापके कारण मृत्युलोकमें आये थे। अतः उन्हें देवलोक में जाना था। दक्षिणायनके समय देवलोकमें रात रहती है और उस के दरवाजे बंद रहते हैं। अगर भीष्मजी दक्षिणायन के समय शरीर छोड़ते तो उन्हें अपने लोक में प्रवेश करने के लिये बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती। वे इच्छामृत्यु तो थे ही अतः उन्होंने सोचा कि वहाँ प्रतीक्षा करनेकी अपेक्षा यहीं प्रतीक्षा करनी ठीक है क्योंकि यहाँ तो भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन होते रहेंगे और सत्सङ्ग भी होता रहेगा जिससे सभी का हित होगा वहाँ अकेले पड़े रहकर क्या करेंगे ऐसा सोचकर उन्होंने अपना शरीर दक्षिणायन में न छोड़ कर उत्तरायण में ही छोड़ा।
जीव के पुनः जन्म का रुपांतर भी किस प्रकार होता है उसे भी यहां इस प्रकार से बताया गया है।
कृष्णमार्ग से लौटते समय वह जीव पहले आकाश में आता है। फिर वायु के अधीन होकर बादलों में आता है और बादलों में से वर्षा के द्वारा भूमण्डल पर आकर वनस्पति द्वारा अन्न में प्रवेश करता है। फिर कर्मानुसार प्राप्त होने वाली योनि के पुरुषों में अन्न के द्वारा प्रवेश करता है और पुरुष से स्त्रीजाति में जाकर शरीर धारण कर के जन्म लेता है। इस प्रकार वह जन्ममरण के चक्कर में पड़ जाता है।
।। हरि ॐ तत सत।। गीता विशेष 8.24 ।।
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