।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 08.21 II
।। अध्याय 08.21 II
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 8.21॥
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
“avyakto ‘kṣara ity uktas,
tam āhuḥ paramāḿ gatim..।
yaḿ prāpya na nivartante,
tad dhāma paramaḿ mama”..।।
भावार्थ:
जिसे वेदों में अव्यक्त अविनाशी के नाम से कहा गया है, उसी को परम-गति कहा जाता हैं जिसको प्राप्त करके मनुष्य कभी वापस नहीं आता है, वही मेरा परम-धाम है। (२१)
Meaning:
He who is called unmanifest and imperishable, he who has been spoken of as the supreme goal; having attained him (beings) do not return, that is my supreme abode.
Explanation:
Earlier in this chapter, Shri Krishna had mentioned that those who attain Ishvara are not subject to further rebirth. In this shloka, he says that the “another unmanifest” that remains unaffected by the day and night of Lord Brahma is nothing but Ishvara. He also mentions the nature of Ishvara as imperishable, unmanifest and supreme.
With this shloka, we come back to the main theme that began in chapter seven – Ishvara. After having explained that this universe is subject to cycles of creation and dissolution, and that unless we take effort, we are stuck in this infinite cycle, Shri Krishna reiterates the need for the pursuit of Ishvara as the means of liberation.
The spiritual realm has a divine sky called the Paravyom, where all the different forms of God have their eternal abodes called the Lokas. The Supreme Lord resides in His various divine forms in these Lokas along with His eternal associates. Golok is the divine abode of Lord Krishna, Saket Lok is the abode of Lord Ram, Vaikunth Lok is the abode of Lord Vishnu, Shiv Lok is the abode of Lord Shiv, Devi Lok is the abode of Divine Mother Durga, etc. These divine forms are non-different from the Supreme Lord; they are all divine forms of the same one God. A devotee may worship any of the forms of God and strive to attain Him. Once God-realized, their soul will reach the divine Lok of that form of God and remain there forever. It receives a divine body and participates in the divine pastimes and activities of the Lord.
Krishna talks more about God, the limitless goal; the real goal of life, which is worth attempting; which is avyakataḥ; avyaktha, mentioned in the previous verse means Consciousness principle and this consciousness or caitanyam; also known in the scriptures as akṣaraḥ; literally means imperishable means, imperishable means timeless.
Arjuna accomplishing such Brahman is the real goal; because only then you will go beyond time and space; any located place you go, then you are within space; whether you call it Vaikuntha; whether you call it Kailasa, whether you call it Brahma lōkā, you have a concept of a particular place, it is within space and therefore time, therefore it cannot be called liberation. That is why we say liberation is not going to any place at all. So then what is that liberation? Liberation is going to Brahman.
So therefore, for the seeker who performs karma yoga and upaasanaa or devotion towards Ishvara attains Ishvara after he has completed his time on earth and in the abode of Lord Brahma. Shri Krishna summarizes the means of attaining Ishvara in the next shloka, which also concludes the topic of liberation from rebirth.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक एवम अब तक के अध्ययन के जब भी अव्यक्त प्रकृति का सम्बंध आया तो वो पुनरवर्तन से संबंधित था। किंतु जिस अक्षर ब्रह्म का अव्यक्त भाव हम ने पढ़ा वो सनातन है।
परमात्मा ने अपनी उपस्थिति के तीन स्थान बताए है। 1) अपरा प्रकृति जो जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि एवम अहंकार द्वारा प्रथम पांच में व्यक्त है 2) परा प्रकृति में परमात्मा से परिच्छिन्न हो कर आत्मा या चेतन स्वरूप जो अव्यक्त है। यही अव्यक्त स्वरूप में प्रकृति अपना संबंध अपरा प्रकृति से बना लेती है जिस के कारण वो कर्मबन्धन में पड़ कर बार जन्म लेती है। 3) तीसरा परमात्मा का स्वयं का अव्यक्त स्वरूप है जो ब्रह्मा के सृष्टि लोक से परे अविनाशी एवम सनातन है।
परा प्रकृति की परिच्छिन्न अवस्था जब तक परमात्मा के मूल अव्यक्त रूप से नही मिलती, उस का जन्म मरण का चक्र समाप्त नही होता। अतः साकेत लोक में राम, गोकुल में कृष्ण, वैकुंठ में विष्णु, कैलाश में शिव और ब्रह्मलोक में ब्रह्मा किसी में भी जाए, यह सब काल खंड में बंधे समय और स्थान मात्र है। जीव कितना भी समय वहां व्यतीत करे, उसे मुक्ति तो अव्यक्त ब्रह्म में विलीन होने से ही मिलेगी।
जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसे कहा गया है उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम श्रेष्ठ गति कहते हैं। जिस परम भाव को प्राप्त होकर ( मनुष्य ) फिर संसार में नहीं लौटते वह मेरा परम श्रेष्ठ स्थान है अर्थात् मुझ विष्णु का परमपद है। जिसे हम लोक परमधाम भी कह सकते है।
जिसे सनातन अव्यय भाव कहा गया है जो अविनाशी रहता हैं उसे ही यहाँ अक्षर शब्द से इंगित किया गया है। अध्याय के प्रारम्भ में कहा गया था कि अक्षर तत्त्व ब्रह्म है जो समस्त विश्व का अधिष्ठान है। ॐ या प्रणव उस ब्रह्म का वाचक या सूचक है जिस पर हमें ध्यान करने का उपदेश दिया गया था। यह अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा ही अव्यक्त प्रकृति को सत्ता एवं चेतनता प्रदान करता है जिस के कारण प्रकृति इस वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करने में समर्थ होती है। यह सनातन अव्यक्त अक्षर आत्मतत्त्व ही मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य परम लक्ष्य है। संसार में जो कोई भी स्थिति या लक्ष्य हम प्राप्त करते हैं उस से बारम्बार लौटना पड़ता है। संसार शब्द का अर्थ ही है वह जो निरन्तर बदलता रहता है।
निद्रा कोई जीवन का अन्त नहीं वरन् दो कर्मप्रधान जाग्रत अवस्थाओं के मध्य का विश्राम काल है उसी प्रकार मृत्यु भी जीवन की समाप्ति नहीं है। प्रायः वह जीव के दो विभिन्न शरीर धारण करने के मध्य का अव्यक्त अवस्था में विश्राम का क्षण होता है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि इस लोक से ले कर ब्रह्मलोक तक के सभी लोक पुनरावर्ती हैं जहाँ से जीवों को पुनः अपनी वासनाओं के क्षय के लिए शरीर धारण करने पड़ते हैं। पुनर्जन्म दुःखालय कहा गया है इसलिए परम आनन्द का लक्ष्य वही होगा जहाँ से संसार का पुनरावर्तन नहीं होता।प्रायः वेदान्त के जिज्ञासु विद्यार्थी प्रश्न पूछते हैं कि आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् पुनरावर्तन क्यों नहीं होगा यद्यपि ऐसा प्रश्न पूछना स्वाभाविक ही है तथापि वह क्षण भर के परीक्षण के समक्ष टिक नहीं सकता। सामान्यतः कारण की खोज उसी के सम्बन्ध में की जाती है जो वस्तु उत्पन्न होती है या जो घटना घटित होती हैं और न कि उस के सम्बन्ध में जो अनुत्पन्न या अघटित है कोई मुझे उत्सुकता से यह नहीं पूछता कि मैं अस्पताल में क्यों नहीं हूँ जबकि अस्पताल में जाने पर उसका कारण जानना उचित हो सकता है।
हम यह पूछ सकते हैं कि अनन्त ब्रह्म परिच्छिन्न कैसे बन गया परन्तु इस प्रश्न का कोई औचित्य ही सिद्ध नहीं होता कि अनन्त वस्तु पुनः परिच्छिन्न क्यों नहीं बनेगी यह प्रश्न अत्युक्तिक इसलिए है कि यदि वस्तु अनन्तस्वरूप है तो वह न कभी परिच्छिन्न बनी थी और न कभी भविष्य में बन सकती है। एक छोटी सी बालिका को हम वैवाहिक जीवन के शारीरिक और भावुक पक्ष के सुखों का वर्णन करके नहीं बता सकते हैं और न समझा सकते हैं। उस में उस विषय को समझने की शारीरिक और मानसिक परिपक्वता नहीं होती। बचपन में वह केवल यह चाहती है कि उस की माँ उस का विवाह करे परन्तु वही बालिका युवावस्था में पदार्पण करने पर उस विषय को समझने योग्य बन जाती है। इसी कारण अन्तःकरण की अशुद्धि रूप गोबर के ढेर के अशुद्ध वातावरण में पड़ा हुआ व्यक्ति खुले आकाश में मन्दमन्द प्रवाहित समीर की सुगन्ध को कभी नहीं जान सकता। जब वह व्यक्ति उपदिष्ट ध्यानविधि के अभ्यास से उपाधियों के साथ हुए मिथ्या तादात्म्य को दूर कर देता है तब वह अपने शुद्ध अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। स्वप्न से जागने पर ही स्वप्न के मिथ्यात्व का बोध होता है अन्यथा नहीं और एक बार जाग्रत् अवस्था में आने के पश्चात् स्वप्न के सुख और दुःख के प्रभाव से मनुष्य सर्वथा मुक्त हो जाता है।यहाँ शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को महर्षि व्यास जी ने काव्यात्मक शैली द्वारा श्रीकृष्ण के निवास स्थान के रूप में वर्णित किया है तद्धाम परमं मम। अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट किया गया है कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण मैं शब्द का प्रयोग आत्मस्वरूप की दृष्टि से करते हैं। अतः यहाँ भी धाम शब्द से किसी स्थान विशेष से तात्पर्य नहीं वरन् उनके स्वरूप से ही है। यह आत्मानुभूति ही साधक का लक्ष्य है जो उसके लिए सदैव उपलब्ध भी है।
यहां ध्यान देने योग्य बात है कि अव्यक्त शब्द का प्रयोग ब्रह्मा में लीन प्रलय के समय द्रव्य के लिये श्लोक 18 में किया गया था जिस से दिन में सृष्टि की रचना ब्रह्मा करते है, इस को साख्यो की प्रकृति भी बोला गया है। यही शब्द अब अक्षर ब्रह्म परम अध्याय के प्रारम्भ में परमात्मा के परम धाम के लिये भी प्रयुक्त हुआ है जहां मनुष्य यानि जीव पहुच के पुनरवर्तन को प्राप्त नही होता। अतः अव्यक्त शब्द ब्रह्म लोक एवम परमात्मा के सनातन धाम दोनों के लिये विभिन्न अर्थों के साथ कभी सांख्यों की प्रकृति के लिये और कभी प्रकृति से परे परब्रह्म के लिये प्रयोग किया गया है।
गीता में अव्यक्त, अविनाशी और अक्षर का प्रयोग यद्यपि सात्विक गुणों से युक्त व्यक्ति या जीव के लिये भी चन्द्रलोक, स्वर्ग या ब्रह्मलोक को प्राप्ति के लिये भी प्रयुक्त हुआ है किंतु वेद का आधार ले कर भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट कहते है कि वास्तविक अर्थ आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु भक्ति जो कामना एवम अहम के साथ है एवम जो कर्म कांड, दान-पुण्य आदि को ले कर की गई है, वह संसार मे पुनरावर्ती श्रेणी की है। वास्तविक अर्थ उस परमधाम अर्थात परब्रह्म में जीव के विलय से लेना चाहिये, जिस में पुनरावर्ती नही है और जीव जन्म-मरण से पूर्णतयः मुक्त होता है। यह भक्ति निष्काम कर्म सन्यास योग से प्राप्त होती है।
व्यवहारिक जगत में ऊर्जा सब क्रियाओं और पदार्थों का स्तोत्र है किंतु ऊर्जा का स्तोत्र क्या है, उसे ही वेदांत में अव्यक्त ब्रह्म कहा गया है। प्रकृति, आत्मा परमात्मा, ब्रह्म और परब्रह्म ऊर्जा के विभिन्न स्तोत्र एक दूसरे से ऊर्जा को प्राप्त करते है। ऊर्जा के स्तोत्र से द्रव्यमान और द्रव्यमान से ऊर्जा के सापेक्षवाद के सिद्धांत को हम परखे तो अव्यक्त ब्रह्म से सृष्टि की रचना और फिर सृष्टि का पुनः इस में विलीन होना समझ सकते है। इस में महान वैज्ञानिक आल्बर्ट आइन्स्टाइन (जर्मन: Albert Einstein; 14 मार्च 1879 – 18 अप्रैल 1955) एक विश्वप्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिकविद्, जो सापेक्षता के सिद्धांत और द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण E = mc² के लिए जाने जाते हैं। उन्हें सैद्धांतिक भौतिकी, खास कर प्रकाश- विद्युत ऊत्सर्जन की खोज के लिए 1921 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
आइन्स्टाइन ने विशेष सापेक्षिकता (1905) और सामान्य आपेक्षिकता के सिद्धांत (1916) सहित कई योगदान दिए। उन के अन्य योगदानों में- सापेक्ष ब्रह्मांड, केशिकीय गति, क्रांतिक उपच्छाया, सांख्यिक मैकेनिक्स की समस्याऍ, अणुओं का ब्राउनियन गति, अणुओं की उत्परिवर्त्तन संभाव्यता, एक अणु वाले गैस का क्वांटम सिद्धांत, कम विकिरण घनत्व वाले प्रकाश के ऊष्मीय गुण, विकिरण के सिद्धांत, एकीकृत क्षेत्र सिद्धांत और भौतिकी का ज्यामितीकरण शामिल है। आइन्स्टाइन ने पचास से अधिक शोध-पत्र और विज्ञान से अलग किताबें लिखीं। 1999 में टाइम पत्रिका ने शताब्दी-पुरूष घोषित किया।एक सर्वेक्षण के अनुसार वे सार्वकालिक महानतम वैज्ञानिक माने गए। यह वर्णन वस्तुत: सृष्टि की रचना में ब्रह्म और अव्यक्त परमब्रह्म का ही एक छोटा सा विश्लेषण कहना चाहिए। जो हम भगवान श्री कृष्ण से सुन रहे है।
वेद और उपनिषद में जो ज्ञान अनुभव के आधार पर हमारे पूर्वज महान ऋषि – मुनियों ने दिया है, वह उचित अनुसंधान के अभाव में लुप्त होता गया। हमारी आस्था श्रद्धा, विश्वास, प्रेम में अधिक होने से, ज्ञान का मार्ग अवरूद्ध हो गया, इसलिए गीता के ज्ञान के अध्याय को भी लोग धर्मग्रंथ की भांति परमात्मा की स्तुति की भांति पढ़ने लगे और उस से उन्हें अपने भौतिक लाभ और चमत्कार की आशा ज्यादा हो गई। ज्ञान की दृष्टि में गीता को अध्ययन करने का अर्थ समस्त वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करना है, जो प्रत्येक मनुष्य के संभव नही होने से, अक्सर गीता को ज्ञान की दृष्टि से बोधगम्य करना कठिन है, इसलिए अक्सर लोग गीता अध्ययन को बीच में ही छोड़ देते है। जब कि गीता समझने के लिए ही बार बार पढ़नी पड़ती है।
अगला श्लोक यद्यपि इस का प्रायः श्लोक है किंतु हम अगले श्लोक में परमात्मा के धाम एवम प्राप्ति को प्राप्त करने विषय मे पढेंगे।
।। हरि ॐ तत सत।।8.21।।
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