Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the wordpress-seo domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/fwjf0vesqpt4/public_html/blog/wp-includes/functions.php on line 6131
% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  08.16 II

।। अध्याय     08.16 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 8.16

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥

“ā-brahma-bhuvanāl lokāḥ,

punar āvartino ‘rjuna..।

mām upetya tu kaunteya,

punar janma na vidyate”..।।

भावार्थ: 

हे अर्जुन! इस ब्रह्माण्ड में निम्न-लोक से ब्रह्म-लोक तक के सभी लोकों में सभी जीव जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रह्ते हैं, किन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझे प्राप्त कर के मनुष्य का पुनर्जन्म कभी नहीं होता है। (१६)

Meaning:

O Arjuna, all worlds including the abode of Brahma (are subject to) return. But having obtained me, O Kaunteya, rebirth does not occur.

Explanation:

According to the scriptures, there exist heavens or worlds subtler than our visible universe. All beings on this earth who perform meritorious deeds go to one of those heavens after death. The abode of Lord Brahma (Brahma- loka) is considered the highest among the heavens. Shri Krishna says that all beings who end up in these heavens, including the world of Lord Brahma, do not stay there permanently. They have to return to earth at some point. Only those who attain Ishvara gain permanent liberation.

According to the Vedic scriptures, there are fourteen worlds in our universe. Seven planes of existence beginning with earth and higher —bhūḥ, bhuvaḥ, swaḥ, mahaḥ, janaḥ, tapaḥ, satyaḥ. The higher planes are the celestial abodes called the Swarga. The remaining seven planes that are lower than earth are the hellish abodes called narak. These are —tal, atal, vital, sutal, talātal, rasātal, pātāl. Similar references are made by other religions as well. Islam mentions the seventh sky or the sātvāñ āsmān as the highest of the seven heavens. The Talmud, the book of Jewish law and theology, has also enumerated seven heavens, the highest being Araboth.

These fourteen planes of existence are called the lokas or various worlds of our universe. The satyaḥ lok, also known as Brahma Lok, the abode of Brahma is the highest among them, and pātāl lok is the lowest. However, all these lokas are under the realm of Maya, the material energy of God.

Therefore, he says: Hey Arjuna, all the 14 lōkās, exist within time and space. There is only one thing which is beyond time and space, which is Īśvaraḥ; otherwise called Brahman in vēdāntic language; he will talk about that later. There is only one thing, which is unlocated; whereas the other lōkās are within time and space, that is why you have to travel to reach them. So the very fact that you have to travel indicates that it is not available here.

And what about brahma lōkā? He says up to brahma.

lōkā, even Brahmaji is not permanent. Even Brahmāji, the creator is not permanent.

The first half of the shloka is applicable to seekers who perform karma yoga diligently and worship Ishvara as well. Depending upon the sincerity of their deeds and worship, they will attain the appropriate heaven. A select few attain the abode of Lord Brahma which is the highest possible heaven. Here, it is said that the residents only enjoy pleasure. There is no sorrow or suffering whatsoever.

Once they attain the abode of Lord Brahma, they are faced with a choice. They can continue to remain interested in pleasure seeking or attain liberation. Attainment of Ishvara is the same as liberation. If they continue to remain interested in pleasure seeking, if they think of Brahma loka as yet another realm of space and time, they will eventually come back to earth and start life all over again. If they are interested in liberation, they will attain it when Brahma loka is dissolved along with all of the other worlds. This kind of liberation is called “krama mukti”.

Now, the questions arise, why do all of these world’s end? The topic of cosmic creation and dissolution is taken up next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

मुक्ति क्या है, सुख किसे कहे। जीवन का क्या लक्ष्य हो, जब तक वस्तु विषय का गहन अध्ययन न हो तो संशय की संभावना बनी रहती है। इसलिये गीता जीवन के समस्त रहस्य स्पष्ट करते हुए कहती है कि मृत्यु लोक से ब्रह्म लोक तक के 14 लोक काल के अंतर्गत आते है, इसलिये कोई भी नित्य नही है। जब ब्रह्मा जी, जिन्होंने परब्रह्म की आज्ञा से इस संसार की रचना की, नित्य नही है तो जीव किंतने भी पुण्य फल के अनुसार मृत्यु के बाद किसी भी लोक में जाये, उसे अपने पुण्य फल को भोग कर मुक्ति के लिये पुनः मृत्युलोक आना हो होगा। इसलिये मुक्ति क्या है, इस को तुलसीदास जी कहते है।

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं।। जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी।।

तुलसीदास जी यह पंक्ति इसी बात को कहती है कि जो व्यक्ति राम कहते हुए शरीर छोड़ता है वो भगवान के समीप पहुंच कर पुनः नही आता। भगवान श्री कृष्ण जी कहते है यज्ञ देवता राधन और वेदाध्ययन प्रभृति कर्मो से यद्यपि इंद्रलोक, वरुण लोक, सूर्यलोक अर्थात स्वर्ग से ले कर वैकुण्ठ लोक और यहां तक की ब्रह्म लोक भी प्राप्त हो जाये किन्तु जैसे ही पुण्य कर्मों के फलो अर्थात पुण्याश की समाप्ति होगी, पुनरावर्तन के नियमानुसार उसे भूलोक में आना ही पड़ेगा। ज्ञान द्वारा केवल मेरी प्राप्ति से ही पुनर्जन्म एवम पुनरावृति से छुटकारा संभव है, इस के सिवा अन्य कोई उपाय न हुआ है और न होगा।

वैदिक ग्रंथों में पृथ्वी लोक से नीचे सात लोकों-तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल,और पाताल के अस्तित्व का वर्णन किया गया है। इन सबको नरक या नरक लोक कहा जाता है। पृथ्वी लोक से आरम्भ होकर इसके उपर सात लोक-भूः, भूवाः, स्वाः, महाः, जनः, तपः, और सतयः लोक अस्तित्व में हैं। इन सबको ‘स्वर्ग’ या ‘देवलोक’ भी कहा जाता है। अन्य धार्मिक परंपराओं में भी सात स्वर्गों का वर्णन मिलता है। यहूदी धर्म के तलमुड ग्रंथ में अराबोथ नाम के उच्च लोक सहित सात स्वर्गों का उल्लेख किया गया है (सॉल्म-68.4)। इस्लाम में भी सात स्वर्ग लोकों का उल्लेख किया गया है जिसमें ‘सातवाँ आसमान’ की गणना सबसे उच्च लोक के रूप में की गई है। सृष्टि में भिन्न-भिन्न ग्रह जिनका अस्तिव है, उन्हें विभिन्न लोक कहा गया है। हमारे भौतिक ब्रह्माण्ड में 14 लोक हैं। इसमें सबसे उच्चतम ब्रह्मा का लोक है जिसे ब्रह्मलोक कहा जाता है। इन सभी लोकों में माया का प्रभुत्व रहता है। इन लोकों के निवासी जन्म-मृत्यु के चक्र के अधीन होते हैं। श्रीकृष्ण ने पिछले श्लोक में इन्हें ‘दुःखालयम और अशाश्वतम्’ अस्थायी एवं दुखों से भरा भी कहा है।

मात्र पृथ्वी मण्डल का राजा हो और उस का धन धान्य से सम्पन्न राज्य हो स्त्री पुरुष परिवार आदि सभी उस के अनुकूल हों उस की युवावस्था हो तथा शरीर नीरोग हो, यह मृत्युलोक का पूर्ण सुख माना गया है। मृत्युलोक के सुख से सौ गुणा अधिक सुख मर्त्य देवताओं का है। मर्त्य देवता उन को कहते हैं जो पुण्यकर्म कर के देवलोक को प्राप्त होते हैं और देवलोक के प्रापक पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं। इन मर्त्य देवताओं से सौ गुणा अधिक सुख आजान देवताओं का है। आजान देवता वे कहलाते हैं जो कल्प के आदि में देवता बने हैं और कल्प के अन्त तक देवता बने रहेंगे। इन आजान देवताओं से सौ गुणा अधिक सुख इन्द्र का माना गया है। इन्द्र के सुख से सौ गुणा अधिक सुख ब्रह्मलोक का माना गया है। इस ब्रह्मलोक के सुख से भी अनन्त गुणा अधिक सुख भगवत्प्राप्त तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष का माना गया है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीमण्डल से ले कर ब्रह्मलोक तक का सुख सीमित परिवर्तनशील और विनाशी है। परन्तु भगवत्प्राप्तिका सुख अनन्त है अपार है अगाध है।

ब्रह्मलोक में जानेवाले पुरुष दो तरह के होते हैं–एक तो जो ब्रह्मलोक के सुख का उद्देश्य रख कर यहाँ बड़े-बड़े पुण्यकर्म करते हैं तथा उस के फल स्वरूप ब्रह्मलोक का सुख भोगने के लिये ब्रह्मलोक में जाते हैं और दूसरे, जो परमात्मप्राप्ति के लिये ही तत्परतापूर्वक साधन में लगे हुए हैं; परन्तु प्राणों के रहते-रहते परमात्मप्राप्ति हुई नहीं और अन्तकाल में भी किसी कारण- विशेष से साधन से विचलित हो गये, तो वे ब्रह्मलोक में जाते हैं और वहाँ रहकर महाप्रलय में ब्रह्माजी के साथ ही मुक्त हो जाते हैं। इन साधकों का ब्रह्मलोक के सुखभोग का उद्देश्य नहीं होता; किन्तु अन्तकाल में साधन से विमुख होने से तथा अन्तःकरण में सुखभोग की किञ्चिन्मात्र इच्छा रहने से ही उन को ब्रह्मलोक में जाना पड़ता है। इस प्रकार ब्रह्मलोक का सुख भोग कर ब्रह्माजी के साथ मुक्त होने को ‘क्रम-मुक्ति’ कहते हैं। परन्तु जिन साधकों को यहीं बोध हो जाता है वे यहाँ ही मुक्त हो जाते हैं। इस को ‘सद्योमुक्ति’ कहते हैं। सदाहरण भाषा में जीव की कर्म मुक्ति और जीव मुक्ति दो मुक्ति होने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।

परमात्मा अत्यंत सूक्ष्म से अति सूक्ष्म नित्य एवम अविनाशी है। जीव के पुनरावर्तन अर्थात जन्म मरण का चक्र तभी समाप्त होता है जब परमात्मा से निकला हुआ जीव पुनः परमात्मा में विलय हो जाये। अतः आर्त, अर्थार्थी एवं जिज्ञासु भक्त सात्विक वृति के होने से दान-पुण्य, धर्म-कर्म एवम योग और भक्ति से विभिन्न लोक में पहुंच कर सुख को प्राप्त होते है किंतु जीवात्मा की मुक्ति तो तब तक नही है, जब तक वह परब्रह्म में पुनः विलीन न हो जाये। यह 14 लोक कामना और आसक्ति से परिपूर्ण जीवन के कारण कर्म फल भोगने के विभिन्न लोक ही कहे जा सकते है, इसलिए सभी त्रिगुणात्मक प्रकृति और माया के अंतर्गत ही कार्य करते है।

ज्ञान का व्यवहारिक स्वरूप जीवन का वो आदर्श होता है, जिन को धारण कर के हम अपना जीवन व्यतीत करते है, अतः पहले हम परिणाम पढ़कर, उन जीवन के आदर्शों को भी पढ़ेंगे, जो अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व की पहचान होती है। किसी महल को देख कर ही उस के निर्माण को समझा जा सकता है इसलिये मुक्ति को समझ कर ही हम समझ सकते है कि उस के हमारा चरित्र, आस्था, कर्म, श्रद्धा एवम धर्म का क्या स्वरूप होना चाहिए। इसलिये भगवान हमे पंक्ति डर पंक्ति हर बात को एक एक कह के समझा रहे है।

ब्रह्म लोक भी अनित्य क्यों है इस को हम इस लोक के काल की गणना द्वारा आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।।08.16।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

Leave a Reply