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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  08.13 II

।। अध्याय     08.13 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 8.13

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌ ।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌॥

“oḿ ity ekākṣaraḿ brahma,

vyāharan mām anusmaran..।

yaḥ prayāti tyajan dehaḿ,

sa yāti paramāḿ gatim”..।।

भावार्थ: 

इस प्रकार ॐकार रूपी एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मनुष्य मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है। (१३)

Meaning:

He who departs the body while chanting Om, which is the one-syllable (name of) brahman, and also remembers me, he attains the supreme state.

Explanation:

The sound “Om” has been praised in the scriptures as an indicator of brahman, the eternal essence. Shri Krishna concludes the second technique of meditation, meditation on the name of Ishvara, by saying that one who performs meditation on the sound of Om attains Ishvara during the time of departure.

The sound Om pervades the entire creation; it is imperishable and infinite like God Himself. Hence, it is also called anāhat nād. In the Vedic philosophy, it is conferred as the mahā vākya, or the Great Sound Vibration of the Vedas and often attached to the beginning of the Vedic mantras, as bīja (seed or core) mantra similar to hrīṁ, klīṁ, etc.

Like we saw in the previous instance, the symbolic meaning of this shloka also uses death as a metaphor to indicate death of the ego. Therefore, meditation on the sound of Om helps the seeker sever his connection to the finite ego and take him towards the infinite eternal essence.

The key thing, however, is to associate the sound “Om” to our understanding of Ishvara. In other words, meditation on the sound of Om without associating it to our favourite deity will not yield any result. In fact, Adi Shankaraachaarya in his commentary says that meditation on Om should only be performed by one who has diligently heard (“shravana”) and analyzed (“mananam”) the knowledge of the eternal essence. This is why Shri Krishna adds “remember me as Ishvara” to the instruction that we chant Om.

So, what does this Niṣkāma Omkāra upāsakaḥ will do at the time of death is the topic. And you should remember throughout this discussion, this upāsakaḥ has never come to nirguṇa īśvara; he has not come to vēdānta jñānam; therefore, he does not have aham brahmāsmi iti jñānam and therefore from vēdāntic angle, this person will come under ajñāni only. Even though he is a very informed person, with regard to all other things, even though he is very informed with regard to upāsana, he is ignorant with regard to one particular thing; what is that? the essential oneness between the jīvātma and paramātma, he does not know. And if he has already that knowledge, he need not bother about kṛama mukthi at all, because with this knowledge itself liberation is guranteed here and now.

Ajñāni Niṣkāma upāsakaḥ uses Omkāra for remembering the Lord in his own concept with his own attributes; om iti vyāharan. So he utters the word Om which is ekākṣaram Brahma; which is ekākṣaram, which is mono syllabled word revealing Brahman. So ekākṣaram means a word of one syllable, because Om is only one syllable, and which reveals Brahman that ekākṣaram Brahman om iti vyāharan; utters. It does not mean that everyone has to utter Om; whatever he has practiced throughout the life, that nāma he has to utter.

And suppose a person says I have not practiced anything; that is why Krishna is warning, start practising now itself; Rāma Rāma Rāma start; that is why in our culture, even when they yawn they say Krishna Krishna Krishna, anything practice; and therefore whatever nama I have practiced, that I have to utter; the Omkāra upāsakaḥ utters Om iti vyaharan; vyāharan means uttering the word; and through this word anusmaran; he remembers, not any finite thing in the world, because none of them is going to accompany him.

To recap, the first technique was meditation upon the grand cosmic form of Ishvara, and the second technique was meditation upon Om. However, both techniques require us to develop control of our praanaas.

The time of death is the final test of our meditation. As death is said to be intensely painful and despite the pain, those who are able to focus on God even at that last moment; attain Him. And on leaving the body, their souls reach His divine abode. However, to achieve such a state is very difficult; it requires continuous practice throughout one’s life. The merciful Lord Krishna shows us an easier path in the next verse.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जिस अक्षर ब्रह्म श्लोक 11 में भगवान ने बताने की बात की थी वो अक्षर ब्रह्म जो नित्य, अविनाशी एवम एक मात्र परमात्मा है उसे उपनिषदों के आधार पर ॐ माना गया है।

एक व्यक्ति को प्रयाण काल में उस अक्षर ब्रह्म का ज्ञान कैसे हो, जो भक्ति या कर्मयोग से चिदाभास अर्थात शुद्ध चित्त को तो प्राप्त कर लेता है किंतु उसे ज्ञान की प्राप्ति नही होती। वह निर्गुण ब्रह्म की उपासना शब्द अर्थात नाम जप से परमात्मा के नाम राम राम या कृष्ण कृष्ण आदि करते हुए करता है या ॐ का पाठ जप के आधार से करता है। यह सगुण उपासना से स्मरण करते रहने से प्रयाण काल में ॐ या परमात्मा के उच्चारण करते रहने से वह उस के स्वभाव का भाग हो जाता है, जिस से उसे कर्म मुक्ति प्राप्त होती है और अंत काल में ब्रह्म लोक को प्राप्त हो जाता है। वहां उपासना से ज्ञान की प्राप्ति द्वारा जीवमुक्ती को प्राप्त करता है। अतः जप या परमात्मा के नाम के निरंतर जाप से यदि वह ज्ञान की उच्चतम स्थिति “अहम ब्रह्मास्मि” या “तत् त्वं असि” की स्थिति को नही भी प्राप्त करे किंतु अक्षर ब्रह्म के जप से मुक्ति के मार्ग को अवश्य प्राप्त कर लेता है। इसलिए यह श्लोक अक्षर ब्रह्म की उपासना प्रयाण काल में सगुण उपासक के द्वारा कैसे की जाए, तो बतलाता है।

पूर्व श्लोक में योग धारणा की स्थिति को प्राप्त करने के बाद जब मन को ह्रदय में रोक कर प्राणों को उर्ध्वगामी नाडी से ब्रह्मरंध (इस को दशम द्वार भी कहा गया है) तक पहुचा दिया जाता है तो ब्रह्म अर्थात परमात्मा से एकाकार करने के लिए ॐ को जपने का निर्देश दिया गया है। जपने का अर्थ स्वयं को ब्रह्म से एकाकार करना। इस एकाकार करते हुए योगी योग धारणा में ॐ के साथ शरीर को त्याग देता है तो उसे परम पुरुष का पद प्राप्त होता है और वह जन्म मरण से मुक्त हो कर परमात्मा में विलय कर जाता है।

ॐ अक्षर वर्ण का वाचक है, ब्रह्म नही । इस का वाच्य ही ब्रह्म है। अतः ॐ शब्द का जप एवम उस के स्वरूप ब्रह्म का ही ध्यान रखना चाहिये। इस प्रकार देह त्याग कर के योगी परम् गति अर्थात प्रकृति मुक्त आत्मा जन्म मरण रहित मुक्त आत्मा को प्राप्त करता है। श्री त्रिदंडी महाराज की गीता की व्याख्या के अनुसार परमात्मा एवम परम गति प्राप्त आत्मा दोनों भिन्न भिन्न है। अर्थात गीता के अनुसार गीता में ॐ तीन अक्षर उपनिषद की देन है यह जप के लिये “राम” या “शिव” भी हो सकते है। किंतु ॐ ब्रह्म का वाच्य रूप सही ज्यादा लगता है।

जीव परमात्मा का ही स्वरूप है, उस से अलग हो कर जब पंच तत्व के साथ मन, बुद्धि एवम अहंकार शरीर को धारण करता है तो सांसारिक सुखों के कारण अहम एवम मोह द्वारा कर्म बंधन में फस जाता है। जीवन मरण से मुक्ति एवम अपने परम पुरुष स्वरूप को प्राप्त करना ही मुक्ति है।

ध्यान के अभ्यास में मन को सफलता और कुशलतापूर्वक एकाग्र करने के लिए साधक को तीन कार्यों को सम्पादित करना होता है। इन तीनों का वर्णन इन श्लोकों में किया गया है जो उक्त क्रम में अभ्यसनीय है।(क) इन्द्रियों के द्वारा मन को संयमित करके इन्द्रिय अवयव स्थूल शरीर में स्थित हैं। श्रोत्र त्वचा चक्षु जिह्वा और घ्राणेन्द्रिय (नाक) ये वे पाँच द्वार हैं जिनके माध्यम से बाह्य विषयों की संवेदनाएं मन में प्रवेश करके उसे विक्षुब्ध करती हैं। विवेक और वैराग्य के द्वारा इन इन्द्रिय द्वारों को अवरुद्ध अथवा संयमित करना प्रथम साधना है जिसके बिना ध्यान में प्रवेश नहीं हो सकता। इनके द्वारा न केवल बाह्य विषय मन में प्रवेश करते हैं वरन् इन्हीं के माध्यम से मन बाह्य विषयों में विचरण एवं भ्रमण करता है। विक्षेपों की इन सुरंगों को अवरुद्ध करने पर नयेनये विक्षेपों का प्रवाह ही रुद्ध हो जाता है।(ख) मन को हृदय में स्थापित करके यद्यपि इन्द्रियों के संयमित होने पर मन बाह्य विषयों से क्षुब्ध नहीं हो सकता तथापि भूतकाल के विषयोपभोगों से अर्जित वासनाओं के स्मरण से वह स्वयं ही विक्षुब्ध हो सकता है। इसलिए मन को हृदय में स्थापित करने का उपदेश दिया गया है। नकारात्मक विचार वह है जिसके कारण मन क्षुब्ध और चंचल हो जाता है।(ग) प्राणशक्ति को मस्तक अर्थात् बुद्धि में स्थापित करने का अर्थ है बुद्धि को सभी निम्न स्तरीय विचारों एवं वस्तुओं से निवृत्त करना। विषय ग्रहण आदि के द्वारा बुद्धि का इनसे तादात्म्य रहता है। सतत आत्मानुसंधान की प्रक्रिया से बुद्धि को विषयों से परावृत्त किया जा सकता है। उपर्युक्त तीन कार्यों के सम्पन्न होने पर मन की आत्मानुसंधान में जो दृढ़ स्थिति होती है उसे ही यहाँ योगधारणा कहा गया है।

शान्त मन में उठ रहीं ओंकार वृत्तियों को जो साक्षी होकर देख सकता है वही पुरुष प्रणवोपासना के योग्य है। श्लोक की अगली पंक्ति इस तथ्य को स्पष्ट करती है।देह त्याग कर जो जाता है ॐ के उच्चारण तथा उसके लक्ष्यार्थ पर मनन करने के फलस्वरूप साधक मिथ्या जड़ उपाधियों के साथ हुये अपने तादात्म्य से ऊपर उठ जाता है जिसके कारण अहंकार का लोप हो जाता है। यही वास्तविक मृत्यु है। देह त्याग का अभिप्राय है देहात्मभाव का त्याग।

वेदान्तिक मनुष्य के लिए शंकराचार्य जी द्वारा ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप की उपासना का आधार कैसे करे, इस विषय को श्लोक 8.03 में हम ने कुछ भाग में पढ़ा, अब चिंतन के लिए वे कहते है।

“देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी ब्रह्म नहीं है। इन का अधिष्ठानभूत विशुद्ध सत्, अद्वितीय जो ब्रह्म है; वह मैं ही हूँ।”

“देश, काल, दिशा ब्रह्म नही कहै; स्थूल-सूक्ष्म आदि कोई वस्तु ब्रह्म नहीं है; किन्तु इन सबका आधारभूत शुद्ध, अद्वितीय, सत्स्वरूप जो परब्रह्म है, वही मैं हूँ।”

“जो ज्ञानी पुरुष सदा चलते, बैठते और  सोते में बाहरी वस्तुओं से सम्बन्धवाले इस नामरूपात्मक दृश्य जगत को अधिष्ठानभूत सत्य, सत्स्वरूप   ब्रह्मरूप देखता है; वह ब्रह्मस्वरूप मैं ही हूँ।”

“संन्यासी, अध्यस्त नाम और रूप आदि को विलीन करके, ऐसा चिन्तन करे कि अद्वितीय आनन्दस्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ।”

“मैं निर्विकार, निराकार, निरंजन, अनामय, जन्म – मरण से रहित, पूर्ण ब्रह्म हूँ, इसमें संशय नहीं है।”

“मैं निष्कलंक, शुद्ध, निर्भय, देश – काल – वस्तु से शून्य, आनन्दरूप, अक्षर, मुक्त ब्रह्म ही हूँ; ऐसा चिन्तन करना चाहिए।”

“मैं निर्विशेष, आभासरहित, नित्यमुक्त, अविनाशी,  अविकारी, अद्वितीय, प्रज्ञानरस, सत्स्वरूप ब्रह्म ही हूँ  – ऐसी भावना करनी चाहिए।”

“मैं शुद्ध, बोधरूप, तत्त्वसिद्ध, परम, व्यापक, पूर्ण, स्वयं प्रकाश, परमआकाशरूप ब्रह्म ही हूँ – ऐसा विचार करना चाहिए।”

“मैं परमसूक्ष्म, सत्तामात्र, निर्विकल्प, महत्तम्, शुद्ध, परमअद्वैत ब्रह्म ही हूँ  – ऐसा चिन्तन करना चाहिए।”

“पूर्वोक्त सूत्रों में वर्णित विधि अनुसार,  निर्विकार शब्द ॐ आदि मात्र से जाने हुए शुद्ध वस्तु अर्थात ब्रह्म का ध्यान करनेवाले का अन्तःकरण लक्ष्य में प्रतिष्ठित हो जाता है।”

सामान्य व्यक्ति जिसे अपना अंत काल का ज्ञान नहीं एवम अंत काल मे उस की शारीरिक अवस्था भी योग के योग नहीं रहती, यहां तक कि मानसिक अवस्था भी बुद्धि एवम चेतन रह कर स्मरण कर सके नहीं रहती। जिसके पास योग का बल होता है और जिस का प्राणों पर अधिकार होता है उस को तो निर्गुण- निराकार की प्राप्ति हो जाती है; परन्तु दीर्घकालीन अभ्यास-साध्य होने से यह बात सब के लिये कठिन पड़ती है। इसलिये भगवान् आगे के श्लोक में अपनी अर्थात् सगुण-साकार की सुगमता-पूर्वक प्राप्ति की बात कहते हैं। इन के लिये क्या करना चाहिए इसे हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 8.13।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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