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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  08.09 II

।। अध्याय     08.09 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 8.9

कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌॥

“kaviḿ purāṇam anuśāsitāram,

aṇor aṇīyāḿsam anusmared yaḥ..।

sarvasya dhātāram acintya- rūpam,

āditya- varṇaḿ tamasaḥ parastāt”..।।

भावार्थ: 

मनुष्य को उस परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना चाहिये जो कि सभी को जानने वाला है, पुरातन है, जगत का नियन्ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है, सभी का पालनकर्ता है, अकल्पनीय-स्वरूप है, सूर्य के समान प्रकाशमान है और अन्धकार से परे स्थित है। (९)

Meaning:

He who is omniscient, timeless, the commander, subtler than the subtlest, protector of all, incomprehensible, brilliant like the sun, beyond darkness, (one) contemplates (him).

Explanation:

As part of the series of shlokas that help us meditate on Ishvara’s form, Shri Krishna here gives us a beautiful poetic shloka that describes Ishvara’s grandeur. This is the description of the “parama purusha”, the supreme divine person Ishvara that was referenced in the previous shloka. Note that this shloka has a different meter for added emphasis.

1. Kavi: Like a poet who knows the entirety of his creation, God is omniscient. He is the seer who knows the past, present, and future, as mentioned in verse 7.26.

2. Purāṇam:  God is the most ancient, and nothing predates Him. He is the origin of the entire material and spiritual world, but He has not originated from anything. God is without a beginning or an end.

3. Anuśhāsitāram: God is the governor or the ruler. He administers His regime through the celestial gods that He has appointed or sometimes directly. He is the creator, and everything in this universe is under His control and run by His law.

4. Aṇoraṇīyān: Here God is said to exist in the subtlest or subatomic form. The soul is subtler than matter, but God is even subtler than the soul, as He is seated within every soul.

5. Sarvasya Dhātā: God is the source of sustenance. Similar to an ocean that sustains the waves and its vast marine ecology. God is the support for His entire creation.

6. Achintya rūpa: God exists in inconceivable forms. Our mind and intellect are material in nature, and God is divine, thus, beyond our understanding. It is only through His grace one can understand Him. He bestows His divine grace and makes our mind divine by His Yogmaya power; only then can we know Him.

7. Āditya varṇa:  Āditya is one of the names of the sun god. Here, God is said to be dazzling like the sun.

8. Tamasaḥ Parastāt: Similar to the sun that eradicates darkness, God with His effulgence eliminates ignorance. On a cloudy day, the sun is not visible, but it is an optical illusion for us. The sun is where it is, unaffected by the clouds in the earth’s atmosphere. Similarly, during His Leelas or pastimes, God may seem to be covered by His material energy, Maya. However, He is unaffected by it.  He is beyond darkness and ignorance.

So therefore, we should try to contemplate on this form of Ishvara throughout our lives, so that we can remember this picture during our final moments.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व श्लोक में परमात्मा के स्मरण की बात को आगे बढ़ाते हुए भगवान श्री कृष्ण परमात्मा के स्वरूप का स्मरण  कराते हुए कहते है। वे ब्रह्म का वर्णन प्रकृति के अनुसार जिन को हम पहचानते है, उस से तुलनात्मक स्वरूप में कहते है।

जो आकारहीन होता है, जिस में जन्म और मृत्यु का नामोनिशान तक नही होता, जो सब कुछ देखने वाला है, जो आकाश से भी पुरातन है, जो परमाणु से भी अति सूक्ष्म है, जिस के सानिध्य से समस्त जगत को चैतन्यता मिलती है, जिस के कारण यह समस्त विश्व  जीवंत है, जिस के समक्ष कार्य- कारण का सम्बन्ध टिक नही है अर्थात जो कल्पनातीत है, जो अगोचर है और जो पूर्ण रूप से निर्मल किये हुए सूर्य की रश्मियों का पुंज है, वही परब्रह्म है।

आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भी ब्रह्म के स्वरूप के बारे में कहा है।

सब उपाधियों से छूटा हुआ सत्- चित्- आनन्दरूप अद्वितीय, निर्विशेष, एकरूप, आभासरहित (प्रतिबिंबरहित), जिस को  ‘वह’ या ‘यह’ नहीं कह सकते, जिस को अंगुली से नहीं चला सकते, आदि और अन्त से रहित, व्यापक, शान्त, कूटस्थ, तर्क और ज्ञान का अविषय निर्गुण ब्रह्म ही शेष रहता है ।।

देखे हुए को देखना आदि, भ्रान्ति से उत्पन्न हुए विकल्पों के द्वारा स्वप्न और जागरण- दोनों में भेद देखने में नहीं आता है। इसलिए स्वप्न और जागरण दोनों ही मिथ्या हैं । स्वप्न और जाग्रत- दोनों ही अवस्थायें अविद्या का कार्य हैं। दोनों में दृष्टा, दर्शन, दृश्य आदि की कल्पना ही मिथ्या है। सबके द्वारा ही सुषुप्तिकाल में स्वप्न और जाग्रत- दोनों ही अवस्थाओं के अभाव का अनुभव किया जाता है। दोनों में कुछ भी भेद नहीं होता, इसलिए स्वप्न और जाग्रत  – दोनों ही मिथ्या हैं ।।

निद्रा के समय– पुत्र, शरीर के धर्म, सुख-दुख आदि,जगत और जीव और ईश्वर का भेद भी जो प्रतीत होता है; उसका किसी के भी द्वारा, कहीं भी सिद्ध करना अशक्य होता है । माया से कल्पित देश, काल,  जगत  और ईश्वर  आदि का भ्रम भी वैसे ही मिथ्या है, फिर जीव और ईश्वर में कैसा भेद ? अन्य कारण से कौनसा पदार्थ सत्य हो सकता है ?

जीव और ब्रह्म की उपाधि , विशिष्टता, उसके धर्म से युक्त होना, विचित्रता, यह सब अज्ञान की कल्पना है; इसलिए स्वप्न में देखे हुए पदार्थ के समान यह सब मिथ्या ही है; जाग्रत अवस्था में भी कदापि सत्य नहीं है।।

जिस अवस्था में अन्य को नहीं देखता है; यह श्रुति भ्रम से ब्रह्म में कल्पना किए हुए के ( आरोपित वस्तु के ) मिथ्यापन- ज्ञान बताने के लिए, द्वैत का निषेध करती है । क्योंकि श्रुति द्वैत का निषेध करती है; इसलिए सदैव अद्वितीय, उपाधिरहित, शुद्ध, निरन्तर आनन्दमूर्ति, इच्छाशून्य, किसी का आश्रय न रखनेवाला, स्वप्रतिष्ठ  और केवलमात्र एक ही ब्रह्म है।।

भूत, भविष्य और वर्तमान  – तीनों काल में भ्रान्ति से प्रतीत होनेवाला सजातीय, विजातीय और स्वगत रूप कोई भी भेद वास्तव में ब्रह्म में नहीं है।।

ब्रह्म में कोई भेद नहीं है, उसमें गुणों का अनुभव नहीं है, उसमें वाणी का व्यापार नहीं है और मन का व्यापार भी नहीं है। वह केवल शुद्ध, अत्यंत शान्त, व्यापक, अनादि काल से विद्यमान, अद्वितीय है और वह आनन्दमात्र ही प्रकाशित होता है । यह जो जरा- मरण- रहित, सत्- चित्- आनन्दस्वरूप  परम सत्यस्वरूप वस्तु ( ब्रह्म  )  है, यह नित्य है।

भगवान श्री कृष्ण जी भी कुछ इसी भाव में कहते है

सम्पूर्ण प्राणियों को और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों को जानने वाले होने से उन परमात्मा का नाम कवि अर्थात् सर्वज्ञ है। भूत, भविष्य और वर्तमान की स्थूल, सूक्ष्म, और कारण किसी भी जगत की ऐसी कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बात नही जिसे वह यथार्थ रूप में न जानता हो। कवि का अर्थ यहाँ कविता लिखने वाले कवि न हो कर सर्वज्ञ है और पुराण का अर्थ समय से परे है।

वे परमात्मा सब के आदि होने से पुराण कहे जाते हैं। उस से पहले न कोई था, न हुआ है और न ही उस का कोई कारण है अपितु वह ही सब का कारण है इसलिये सनातन है।

हम देखते हैं तो नेत्रों से देखते हैं। नेत्रों के ऊपर मन शासन करता है मन के ऊपर बुद्धि और बुद्धि के ऊपर अहम् शासन करता है तथा अहम् के ऊपर भी जो शासन करता है जो सब का आश्रय प्रकाशक और प्रेरक है वह (परमात्मा) अनुशासिता है। दूसरा भाव यह है कि जीवों का कर्म करने का जैसा जैसा स्वभाव बना है उस के अनुसार ही परमात्मा (वेद शास्त्र गुरु सन्त आदि के द्वारा) कर्तव्य कर्म करने की आज्ञा देते हैं और मनुष्यों के पुराने पाप पुण्य रूप,कर्मों के अनुसार अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति भेज कर उन मनुष्यों को शुद्ध निर्मल बनाते हैं। इस प्रकार मनुष्यों के लिये कर्तव्य अकर्तव्य का विधान करने वाले और मनुष्यों के पाप- पुण्य रूप पुराने कर्मों का (फल देकर) नाश करनेवाले होने से परमात्मा अनुशासिता है। वह सब का स्वामी है, सर्व शक्तिमान है, सर्वांन्तर्यामी है और सब का नियंत्रण कर्ता है।

अत्यंत शक्तिशाली हो कर भी परमात्मा अत्यंत सूक्ष्म ही है। परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। जितने भी सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्व है यह उन सब से सूक्ष्म है। इसलिये सब मे व्याप्त है। तात्पर्य है कि परमात्मा मनबुद्धि के विषय नहीं हैं मनबुद्धि आदि उन को पकड़ नहीं पाते। मनबुद्धि तो प्रकृति का कार्य होने से प्रकृति को भी पकड़ नहीं पाते फिर परमात्मा तो उस प्रकृति से भी अत्यन्त परे हैं अतः वे परमात्मा सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं अर्थात् सूक्ष्मता की अन्तिम सीमा हैं। इसलिये सूक्ष्मदर्शी पुरुषों की सूक्ष्म से सूक्ष्म बुद्धि ही उस का अनुभव मात्र करती है।

अत्यंत सूक्ष्म होने बाद भी परमात्मा  अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों को धारण करनेवाले हैं उन का पोषण करनेवाले हैं।इतना सूक्ष्म होने पर भी समस्त विश्व- ब्रह्मांड का आधार वही है। उन सभी को परमात्मा से ही सत्तास्फूर्ति मिलती है। अतः वे परमात्मा सब का धारण पोषण करने वाले कहे जाते हैं।

परमात्मा अज्ञान से अत्यन्त परे हैं अज्ञान से सर्वथा रहित हैं। उन में लेशमात्र भी अज्ञान नहीं है प्रत्युत वे अज्ञान के भी प्रकाशक हैं। मन से उन का यथार्थ स्वरूप का चिंतन संभव  नही। मन और बुद्धि में जो चिंतन और विचार करने की शक्ति आती है वो उस से ही आती है।

परमात्मा का वर्ण सूर्य के समान है अर्थात् वे सूर्य के समान सब को मन बुद्धि आदि को प्रकाशित करनेवाले हैं। उन्हीं से सब को प्रकाश मिलता है। सभी मे शक्ति का संचार उन्ही से होता है। वो ही सब की ओर देखता है उस को कोई नही देख पाता। इसलिये अचिंत्यस्वरूप है। स्वयं प्रकाशवान होने से अपनी अखंड ज्ञानमयी दिव्य ज्योति से सदा सर्वदा सब को प्रकाश प्रकाशित करता है। उस के अंदर अज्ञान या अंधकार की कल्पना तक भी नही की जा सकती।

मन को आत्मा के चिन्तन में एकाग्र करने के फलस्वरूप साधक भक्त के मन में अध्यात्म संस्कार दृढ़ हो जाते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे साधक को अन्तकाल में भी आत्मस्वरूप का स्मरण होगा ।अविद्याजनित विपरीत धारणाओं तथा तज्जनित गर्व मद आदि विकारों का समूल नाश तभी संभव हो सकता है जब साधक ध्यानाभ्यास के द्वारा देहादि जड़ उपाधियों के साथ अपने मिथ्या तादात्म्य का सर्वथा परित्याग कर दे। आत्मा का ध्यान परम दिव्य पुरुष के रूप में करना चाहिए। परन्तु इन शब्दों का पूर्ण अर्थ जाने बिना उस पर ध्यान करना संभव नहीं हो सकता क्योंकि उस दशा में वे केवल अर्थहीन ध्वनि या शब्द मात्र होंगे।

प्राणिमात्र उन परमात्मा की जानकारी में हैं उन की जानकारी के बाहर कुछ है ही नहीं अर्थात् उन परमात्माको सब का स्मरण है अब उस स्मरण के बाद मनुष्य उन परमात्मा को याद कर ले। वह परमात्मतत्त्व चिन्तन में नहीं आता – अतः ऊपर जो लक्षण या परमात्मा का स्वरूप बताया गया है उस का स्मरण मात्र ही चिंतन है। उस स्मरण मात्र करने अज्ञान रूपी अंधकार दूर हो जाता है।

परमात्मा के स्वरूप कार्य का यह वर्णन स्मरण करने के लिये किया है कि उस परम पुरुष को जिसे कोई देख नहीं सकता, सुन नही सकता उस को स्मरण किस प्रकार करे। जिस से वो हमारे मन- बुद्धि के चेतन्य को जाग्रत करे और अपनी कृपा से हमारे स्मरण में आये।

श्लोक 9 से 11 उपनिषदों से परब्रह्म के स्वरूप का वर्णन है। यह श्वेताश्वतर और कठौनिषद से लिये हुए वर्णन के समान है। निर्गुणकार परमेश्वर परमात्मा का सगुणाकार स्वरूप वह नही है तो हम जीव के रूप स्त्री या पुरुष के रूप में देखते है। अतः हमारी दृष्टि में परमात्मा के एक स्वरूप की अत्यंत सुंदर रचना इस श्लोक के माध्यम से की गई है। परमात्मा का वर्णन करना और प्रत्यक्ष अनुभव करना दोनो में अंतर है। जो प्रत्यक्ष में अनुभव होता है, उसे शब्दो के माध्यम से अनुभव करवा पाना पूर्णतः संभव नही, खास तौर पर उन के सामने जो परमात्मा को पुरुष के समान समझते है।

आधुनिक विज्ञान भी भारत के परमात्मा तत्व को स्वीकार कर बिग बैंग सिंद्धान्त द्वारा ब्रह्मांड के निर्माण को स्वीकार करता है। परम तत्व को हिंग्स बोसन अर्थात गॉड पार्टिकल के नाम से अनुसंधान किया जा रहा है। जिस में आठ देशों के मध्य बनी विशाल प्रयोग शाला में ब्रह्मांड के निर्माण के प्रयोग किये जा रहे है।

परमात्मा का चिंतन अर्थात स्मरण मन- बुद्धि से योगयुक्त योगी निरंतर किस प्रकार करता है यह अगले श्लोक में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। 8.09।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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