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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  07. 30 II

।। अध्याय     07. 30 II

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 7.30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥

“sādhibhūtādhidaivaḿ māḿ,

sādhiyajñaḿ ca ye viduḥ..।

prayāṇa-kāle ‘pi ca māḿ te,

vidur yukta-cetasaḥ”..।।

भावार्थ: 

जो मनुष्य मुझे अधिभूत (सम्पूर्ण जगत का कर्ता), अधिदैव (सम्पूर्ण देवताओं का नियन्त्रक) तथा अधियज्ञ (सम्पूर्ण फ़लों का भोक्ता) सहित जानता हैं और जिसका मन निरन्तर मुझ में स्थित रहता है वह मनुष्य मृत्यु के समय में भी मुझे जानता है। (३०)

Meaning:

Those who know me with “adhibhoota”, “adhidaiva” and “adhiyagnya” with a focused mind during the time of departure, they realize only me.

Explanation:

Studying the Gita is akin to taking off in an airplane. Each chapter takes us to a higher and higher level of understanding. In this, the final shloka of the seventh chapter, we are taken from the level of the individual to the level of the cosmic. Shri Krishna introduces a topic that all of us have to confront: how should we prepare ourselves for death?

We cannot begin to answer this question unless we gain an understanding of the cosmos, where did it come from, how is it sustained, where is it going and so on. Therefore, Shri Krishna in the eighth chapter shifts gears to address these questions.

 Here, he introduces three additional terms: “adhibhoota”, “adhidaiva” and “adhiyagnya”. These terms along with the 3 terms from the previous shloka will be explained in the beginning of the next chapter. He also says that the wise devotee who has his mind focused on Ishvara realizes or attains Ishvara.

Brahma, karma, adhyātmaṃ, ādhi bhutam; ādhi daivam; ādhi yajñām; all these six factors they know. But you know what the secret is? all these six factors is nothing but parā Prakruti plus aparā Prakruti; but the very parā- and- aparā- Prakruti- mixture Krishna is presenting in the form of these six technical terms.

Wise person, this wise person will not only know these six factors completely; wise person will remember them at the time of death also.

Shree Krishna mentions that those enlightened souls who know Him are truly devoted to Him, and even at the time of their death, they are in full consciousness of Him. Such true devotees attain His divine abode. But how can one remember God even at the time of death? Death is said to be a very painful journey, comparable to 2000 scorpions biting at the same time. Such extreme pain is beyond the tolerance of any normal human; a person loses consciousness; the mind and the intellect stop working much before the end.

Those enlightened beings who have attained true knowledge are ever filled with devotion to God, their mind and intellect, all surrendered and attached to Him alone. Thus, their bodies are beyond pleasure and pain even at the time of death.

Let’s say we only think of chocolate ice cream for an entire day, non-stop. We do not let any other thought come into our mind. When we wake up the next day, what would be our first thought? Chocolate ice cream, of course. Similarly, Shri Krishna says that whatever we think just before we die shapes our destiny after we die. If we think of something worldly during the time of death, our destiny will be worldly. But if we think of Ishvara during our time of dying, we will attain Ishvara.

Now, although we like to plan our lives to the nth degree, none of us knows when we will die. If that is the case, the thought that is top priority in our minds will become our final thought. If we are worried about our job all the time, that will be our last thought. If we are worried about our family all the time, that will be our last thought. If we are worried about our the state of the world all the time, that will be our last thought.

Therefore, the practical lesson here is that we should learn to direct our attention towards Ishvara while we are performing our duties on this world. How exactly we should do this, as well as how the cosmos came into existence, is the topic of the eighth chapter.

।। हिंदी समीक्षा ।।

श्लोक 29-39 को साथ मिला कर ले तो ईश्वर का कहना है जो पुरुष मेरे परायण हो कर जन्म मरण रूप दुख से छूटने के लिये दृढ़ पुरुषार्थ करते है वे ही उस ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म, सम्पूर्ण कर्म, सम्पूर्ण अधिभूत, सम्पूर्ण अधिदेव तथा सम्पूर्ण अधियज्ञ एवम समचित्त वाले है वो ही मुझे जानते है और अंतकाल मे मुझे स्मरण कर सकते है अर्थात अध्यात्म- आधिदेवादि अखिल भाव ब्रह्मरूप ही है, वह ब्रह्म मैं अर्थात परमात्मा ही है। यह सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी जड़ से चेतन पदार्थ या क्रियाए जानने या अनुभव में आती है, वह ब्रह्म ही है। इसलिये अंत समय तक जो इस ब्रह्मात्मैक्य को जान लेता है, वह ब्रह्म अर्थात योग चित्त हो जाता है। अंत समय तक जानना, ब्रह्म में योगयुक्त होना है, यदि अंत समय कोई भी काम-वासना, आसक्ति या मोह, अहम आ गया तो योगयुक्त छूट जाता है, जो अंत समय सोचा जाए, वही अगले जन्म का कारक बन जाता है।

धर्मशास्त्रों एवम उपनिषदों के सिद्धांतों को माने तो मरण काल मे मनुष्य की बुद्धि एवम मन मे जो कुछ भी प्रबल होता है उस के अनुसार ही उस का अगला जन्म होता है। किंतु परमात्मा का ज्ञान जीवन काल मे यदि नही है तो मरते वक्त या अंत काल मे भी यह ज्ञान नही हो सकता। क्योंकि मन एवम बुद्धि उसी ज्ञान को अंत काल तक रख सकती है जो मनुष्य में अपने जीवन काल मे प्राप्त किया हो।

मृत्यु किसी ने नहीं देखी अर्थात महसूस की है, इसलिए उस समय की मानसिक और शारीरिक स्थिति का यथार्थ वर्णन कर पाना संभव नहीं। परंतु मृत्यु से सभी को डर लगता है चाहे वह प्रकृति का कितना भी तुच्छ जीव क्यों न हो। इस का कारण भी पुनर्जन्म का अनुभव ही बताया गया है क्योंकि पूर्व जन्म में मृत्यु को जिस ने भोगा है, उसे ही इस जन्म में मृत्यु से भय भी लगता है। ऐसा भी कहा गया है जीव तो नित्य, अकर्ता, साक्षी है किंतु वह प्रकृति के सूक्ष्म शरीर से लिपटा है। यह सूक्ष्म शरीर मन की भावनाओ की तरंगों पर अधिक कार्य करता है इसलिए मृत्यु के समय जीव की आसक्ति जिस वस्तु पर होती है उसी प्रकार की या मिलती जुलती नई देह में मृत्यु के बाद यह सूक्ष्म शरीर तुरंत प्रवेश प्राप्त कर के नव जीवन प्राप्त कर लेता है। इस से वो ही बच सकता है, जो कामना और आसक्ति से रिक्त हो। यदि यह आसक्ति परमात्मा की हो, तो जीव को मुक्ति भी मिल जाती है।

यहाँ अधिभूत नाम भौतिक स्थूल सृष्टि का है जिसमें तमोगुण की प्रधानता है। जितनी भी भौतिक सृष्टि है उस की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उस का क्षणमात्र भी स्थायित्व नहीं है। फिर भी यह भौतिक सृष्टि सत्य दीखती है अर्थात् इसमें सत्यता स्थिरता सुखरूपता श्रेष्ठता और आकर्षण दीखता है। यह सत्यता आदि सब के सब वास्तव में भगवान् के ही हैं क्षणभङ्गुर संसार के नहीं। तात्पर्य है कि जैसे बर्फ की सत्ता जल के बिना नहीं हो सकती ऐसे ही भौतिक स्थूल सृष्टि अर्थात् अधिभूत की सत्ता भगवान् के बिना नहीं हो सकती। इस प्रकार तत्त्व से यह संसार भगवत्स्वरूप ही है ऐसा जानना ही अधिभूत के सहित भगवान् को जानना है। अधिदैव नाम सृष्टि की रचना करने वाले हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी का है जिन में रजोगुण की प्रधानता है। भगवान् ही ब्रह्माजी के रूप में प्रकट होते हैं अर्थात् तत्त्व से ब्रह्माजी भगवत्स्वरूप ही हैं ऐसा जानना ही अधिदैव के सहित भगवान् को जानना है।अधियज्ञ नाम भगवान् विष्णु का है जो अन्तर्यामीरूप से सब में व्याप्त हैं और जिन में सत्त्वगुण की प्रधानता है। तत्त्व से भगवान् ही अन्तर्यामी रूप से सब में परिपूर्ण हैं ऐसा जानना ही अधियज्ञ के सहित भगवान् को जानना है।अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान् को जानने का तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर के किसी एक अंश में विराट् रुप है और उस विराट् रुप में अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड) अधिदैव (ब्रह्माजी) और अधियज्ञ (विष्णु) आदि सभी हैं जैसा कि अर्जुन ने कहा है हे देव मैं आप के शरीर में सम्पूर्ण प्राणियों को जिन की नाभि से कमल निकला है उन विष्णु को कमल पर विराजमान ब्रह्म को और शंकर आदि को देख रहा हूँ । अतः तत्त्व से अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीकृष्ण ही समग्र भगवान् हैं। जो संसार के भोगों और संग्रह की प्राप्ति अप्राप्ति में समान रहनेवाले हैं तथा संसार से सर्वथा उपरत होकर भगवान् में लगे हुए हैं वे पुरुष युक्तचेता हैं। ऐसे युक्तचेता मनुष्य अन्तकाल में भी मेरे को ही जानते हैं अर्थात् अन्तकाल की पीड़ा आदि में भी वे मेरे में ही अटलरूप से स्थित रहते हैं। उन की ऐसी दृढ़ स्थिति होती है कि वे स्थूल और सूक्ष्मशरीर में कितनी ही हलचल होने पर भी कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होते।

आत्मानुभवी पुरुष न केवल मन के स्वभाव (अध्यात्म) और कर्म ऋ़े स्वरूप को ही जानते हैं वरन् वे अधिभूत (पंच विषय रूप जगत्) अधिदैव (इन्द्रिय मन और बुद्धि की कार्य प्रणाली) और अधियज्ञ अर्थात् उन परिस्थितियों को भी जानते हैं जिनमें विषय ग्रहण रूप यज्ञ सम्पन्न होता है।ईश्वर के किसी रूप विशेष के भक्त के विषय में सम्भवत यह धारणा उचित हो सकती है कि भक्तजन अव्यावहारिक होते हैं और उनमें सांसारिक जीवन को सफलतापूर्वक जीने की कुशलता नहीं होती। एक सगुण उपासक अपने इष्ट देवता का ध्यान करने में ही इतना भावुक और व्यस्त हो जाता है कि उसमें संसार को समझने की न रुचि होती है और न क्षमता। परन्तु वेदान्त शास्त्र में आत्मज्ञानी पुरुष का जो चित्रण मिलता है उसके अनुसार वह पुरुष न केवल आत्मानुभव में दृढ़निष्ठ होता है वरन् वह सर्वत्र सदा एवं समस्त परिस्थितियों में अपने मन का स्वामी बना रहता है और ऐसी सार्मथ्य से सम्पन्न होता है जिसे सम्पूर्ण जगत् को स्वीकार करना पड़ता है।ऐसा स्वामित्व प्राप्त पुरुष ही जगत् को नेतृत्व प्रदान कर सकता है। सब प्रकार के असंयम एवं विपर्ययों से मुक्त वह ज्ञानी पुरुष अध्यात्म और अधिभूत को जानते हुए जगत् में ईश्वर के समान रहता है। सारांशत इस अध्याय की समाप्ति भगवान् की इस घोषणा के साथ होती है कि जो पुरुष मुझे जानता है वह सब कुछ जानता है। 

सातवें अध्याय का यह अंतिम श्लोक आठवें अध्याय का प्रारंभ है। गीता भी शनेः शनेः अध्यात्म के उस स्तर को छू रही है जिसे परमात्मा के नाम से हम जानते है एवम जन्म, मरण और संसार को जानने की उच्च स्तर का ज्ञान अब धीरे धीरे सामने आ रहा है। यह विधिवत लिखा ग्रंथ होने से मन मे जितनी भी शंका रहती है उस का निवारण आप पढ़ने वालों का क्रम बद्ध किया गया है जिसे हम अब आगे आठवें अध्याय से पढेंगे।

यहां यह कहना अनुचित नहीं है कि वेदान्तिक संस्कृति मात्र कल्पना पर आधारित नही है यह ज्ञान और विज्ञान दोनो है इसलिए संसार में एक मात्र सनातन संस्कृति ही आज वैज्ञानिक युग के समांतर है और इस के प्रत्येक सिद्धांत विज्ञान की कसौटी में भी परखे जा सकते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। 7.30।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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