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% - Shrimad Bhagwat Geeta
।। Shrimadbhagwad Geeta ।।  A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  07. 25 II Additional II

।। अध्याय     07. 25  II विशेष II

।। प्रसंग कथा माया II विशेष 7.25 ।। माया को समझने के लिये एक प्रसंग भी है। एक बार नारद ऋषि ने भगवान विष्णु जी से आग्रह किया कि प्रभु आप जिसे योग माया कहते है जो इस संसार मे प्रत्येक जीव को भ्रमित कर के रखती है, उसे देखने की इच्छा है। विष्णु जी ने कहा कि कभी वक्त आएगा तो योग माया से मिला देंगे। इस बात को वक्त हो गया। एक बार नारद जी विष्णु भगवान के साथ टहल रहे थे कि उन को प्यास लगी और उन्होंने नारद जी से कहा कि पानी की व्यवस्था करो। नारद जी लौटा ले कर पानी लेने चले कि एक कुटिया देख कर दरवाजा खड़खड़ाया। बाहर अत्यंत सुंदर षोडस वर्षी कन्या आई और पूछा कि आप को क्या चाहिए। परंतु नारद जी उस कन्या के रूप एवम यौवन को देख कर सब कुछ भूल गए और उस को एक टक निहारने लगे एवम उस के साथ बात करने लगे। बात यहां तक पहुच गयी कि उन्होंने उस से शादी का प्रस्ताव भी रख दिया। आश्चर्यजनक यही कि उस कन्या ने लज्जाते हुए प्रस्ताव भी स्वीकार् कर लिया। नारद जी विवाह कर उस के साथ रहने लगे और घर गृहस्थी चलाने के लिये काम मे भी लगे। उन का हरि भजन भी लगभग छूट से गया। कालांतर में उन को दो बच्चों का सुख भी मिला। तभी गांव में अनहोनी होती है, और खूब बारिश के साथ पास में बह रही नदी में बाढ़ आ जाती है। नारद जी बाढ़ से बचने के लिए दोनों बच्चों को कंधे पर लाद कर अपनी पत्नी से साथ नदी से पार जाने की तैयारी करते है। किंतु नदी के बहाव से उन का शरीर हिल जाता है और दोनों बच्चे नदी में गिर कर बहने लगते है। नारद से पीड़ा से चिल्ला उठते है और पत्नी का हाथ छोड़ कर बच्चों को पकड़ने की चेष्टा करते है। किंतु बच्चे हाथ नही लगते और इधर पत्नी का हाथ छोड़ देने से पत्नी भी बह जाती है। जैसे तैसे खुद को नदी के किनारे ला कर सर पटक पटक कर रोने लगते है और भगवान को कोसने लगते है। तभी उन के कंधे पर कोई हाथ रखता है और वो उस व्यक्ति की देखते है। अरे! यह तो विष्णु भगवान है, वो रो रो कर उन को अपना दुखड़ा सुनाने लगते है। तब विष्णु भगवान उसे झंझोड़ते हुए होश के लाते है और पूछते है। हे नारद! यह क्या हाल बना रखा है तुम तो मेरे लिये पानी लेने गए थे। तुरंत नारद जी को होश आ जाता है और वो नत मस्तक हो कर बोल उठते हैं कि प्रभु आप की योग माया क्या है, मुझे समझ भी गया और दिख भी गया। अपरा एवम परा प्रकृति में यह जीव आप ही है। पांच तत्व, मन, बुद्धि एवम अहंकार से जैसे ही आप मिलते हो आप भूल कर इच्छा और उस उतपन्न राग-द्वेष में फस जाते हो। आप परमात्मा स्वरूप हो यह भूल कर प्रकृति की त्रियामी गुण शक्ति एवम योग माया में कर्मबन्धन को ही सत्य समझ कर सांसारिक जीवन जीने के मजबूर हो जाते है। यह तन्त्रा जब अंत समय आता है तो ही समझ मे आता है कि हम किस काम को निकले थे और क्या करने लग गए। राजा जनक कहते हैं कि अपने सम्पूर्ण आकार, नामरूप के सहित यह संसार वास्तविक रूप में कुछ भी नहीं है, यह निश्चित है । और यह भी निश्चित है कि आत्मा शुद्ध चिन्मात्र है । यदि ऐसा है तो फिर यह संसार जो अस्तित्वहीन है, तो दिखाई क्यों देता है? वह जगत इस समय किसमें कल्पित है ! परम-शुद्ध – आत्मा के परम सौन्दर्य का श्रवण करने के बाद भी; अपने आसपास, इर्द-गिर्द रहनेवाले विषयों में अत्यंत आसक्त हुआ पुरुष मलिनता ( मूढ़ता ) को प्राप्त होता है । पवित्र- अद्वैत- तत्त्व में स्थित होने के बाद  भी और मुमुक्षु पुरुष,  काम के वशीभूत होकर काम भोगों के लिए बेचैन  ( विकल ) होता है । यह बहुत आश्चर्यजनक बात है । आश्चर्य है, जो व्यक्ति इस संसार और परलोक में मिलनेवाले सभी प्रकार के वैषयिक सुखों के प्रति पूर्णतया विरक्त है, जो यह विवेक कर सकता है कि नित्य क्या है और अनित्य क्या है, जो मुक्ति का कामना करता है, मुक्त होना चाहता है , वही मोक्ष से डरा हुआ है । सच में उससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है ! बन्धन तभी है जब हमारा चित्त कुछ चाहता हो, शोक करता हो, कुछ छोड़ता हो, कुछ  पकड़ता हो, कुछ पानेपर प्रसन्न होता हो अथवा चाही हुई वस्तु न मिलने पर क्रोधित होता हो । ये सारे कार्य  मन ( चित्त  ) के हैं।  अतः मन का होना ही प्राणी का सबसे बड़ा बन्धन है । मुक्ति का अर्थ है जब चित्त कुछ भी न चाहे, किसी की भी चिन्ता न करे, न कुछ पकड़े और न कुछ छोड़े , न प्रसन्न हो और  न क्रोधित हो । अर्थात मन की शान्त स्थिति ही मोक्ष है । संसार मन के चाहने की अवस्था है और किसी प्रकार की कोई चाह न होने की स्थिति ही मोक्ष है । कहा जाता है कि हमे ज्ञान की आवश्यकता है, जब कि वास्तविक सत्य यही है कि आप स्वयं प्रकाशवान और ज्ञानवान पूर्णब्रह्म है। आप के ऊपर परब्रह्म की योगमाया का पर्दा गिरने से आप के अंदर प्रकृति के संग जुड़े रहने का अज्ञान का कर्तृत्व एवम भोक्तत्व भाव है। यही अज्ञान को हटाना ही ज्ञान है। जैसे ही आईने से धूल हटाने से सामने खड़े इंसान का अक्स स्पष्ट दिखने लगता है, वैसे ही योगमाया का पर्दा हटते ही, जीव को अपने प्रकाशवान एवम ब्रह्म स्वरूप दिखने लग जाता है। यही संसार और ईश्वर की रचना का मूल रहस्य है कि हम किस प्रकार अपने अज्ञान से बाहर आये। ।। हरि ॐ तत सत ।। 7. 25 – माया ।। Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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