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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  07. 24 I Additional II

।। अध्याय     07. 24 ।। विशेष II

।। व्यक्त – अव्यक्त परब्रह्म ।। विशेष – 7.24 ।।

स्वामी चिन्मयानंद के द्वारा इस श्लोक की व्याख्या काफी सरल होते हुए भी गंभीर है

समस्त नामरूपों की वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि में प्रकाशित हो रहे परम सत्य को ग्रहण करने की विवेकसार्मथ्य जिन में नहीं है वे लोग अव्यय अविनाशी आत्मतत्त्व का साक्षात् नहीं कर पाते। अनित्य दृश्यमान जगत् में अत्यन्त आसक्ति के कारण वे यह नहीं जान पाते कि यह सम्पूर्ण नामरूपमय जगत् सूत्र में मणियों के समान परमात्मा में पिरोया हुआ है। जिस चैतन्य के प्रकाश में सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित हो रहा है उस परम सत्य को ही यहाँ अव्यक्त शब्द से इंगित किया गया है। इस शब्द का लक्ष्यार्थ समझना आवश्यक है। जो वस्तु इन्द्रियगोचर है या मन और बुद्धि के द्वारा जानी जा सकती है जैसे भावना या विचार वह व्यक्त कहलाती है। अत इन तीनों उपाधियों के द्वारा जिसे जाना नहीं जा सकता वह वस्तु अव्यक्त है। आत्मतत्त्व ही अव्यक्त हो सकता है क्योंकि वही एकमात्र चेतन तत्त्व है जिस के कारण इन्द्रियां मन और बुद्धि स्वविषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मा इन सब का द्रष्टा है और इसलिए कभी दृश्यरूप में नहीं जाना जा सकता। वह अव्यक्त है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति के लोग केवल स्थूल भौतिक रूप को ही देख पाते हैं। अविवेक के कारण वे गुरु अथवा अवतार के शरीर को और सार्मथ्य को देखकर उतने मात्र को ही सनातन सत्य समझ लेते हैं।

इस में कोई सन्देह नहीं कि चित्त की एकाग्रता के लिए अथवा उपासना के लिए किसी उपास्य की प्रतीक या प्रतिमा के रूप में आवश्यकता होती है किन्तु वह प्रतिमा स्वयं परमार्थ सत्य नहीं हो सकती। यदि वही सत्य वस्तु होती तो पाषाण से मूर्ति बनाने के पश्चात् या गुरु के पास पहुँचने मात्र से साधक को सत्य की प्राप्ति हो जाने से उसे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती मूर्ति पूजा का प्रयोजन चित्त की शुद्धि एवं एकाग्रता प्राप्त करना है जिस के द्वारा ध्यान का अभ्यास कर के आत्मा का साक्षात् अनुभव किया जा सकता है। यह श्लोक स्पष्ट रूप से हमें बताता है कि बोतल को औषधि समझना शरीर को ही गुरु और मूर्ति को ही भगवान् समझ लेना व्यर्थ है सभी श्वेत काष्ठ चन्दन नहीं और आकाश में प्रत्येक चमकीली वस्तु तारा नहीं होती। हो सकता है कि किसी ऊँचे स्तम्भ से आ रहे प्रकाश को देखकर अतिमूढ़ पुरुष उसे सूर्य समझ ले परन्तु कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति उस की धारणा को गम्भीरता से नहीं लेगा।

अवतार का सिद्धांत हिन्दू धर्म में स्वीकार किया जाता है। किसी न किसी मात्रा में प्रत्येक व्यक्ति ही अवतार कहा जा सकता है। एक ही सत्य सर्वत्र सब में व्याप्त है। मन और बुद्धि की उपाधियों में वह व्यक्त होता है। जितना ही अधिक शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा उतना ही अधिक चैतन्य का प्रकाश उस में व्यक्त होगा। जिस पुरुष का अन्तकरण अत्यन्त शुद्ध एवं स्थिर होता है और जिस ने अपरा प्रकृति पर पूर्ण विजय पा ली होती है वह ऋषि मुनि या पैगम्बर कहलाता है। ये पुरुष आत्मस्वरूप को पहचान कर कि वही भूतमात्र की आत्मा है उस में स्थित होकर दिव्य जीवन जीते हैं। उन के शरीर मन और बुद्धि को ही परम सत्य समझना ऐसी ही त्रुटि है जैसे कि तरंगों को ही समुद्र समझ लेना है यही कारण है कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ ऐसे अविवेकी लोगों के लिए अबुद्धय जैसे कठोर शब्द का प्रयोग करते हैं।

भौतिक विज्ञान और अध्यात्म में अंतर प्रमाण का है। जो हम इन्द्रियों से देख, सुन, स्पर्श, सूंघ या चख सकते है वह हमारे लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है। जिसे हम बुद्धि के ज्ञान से सीखते है वह हमारा अप्रत्यक्ष प्रमाण होता है, किन्तु जो इन्द्रिय, मन और बुद्धि से परे है, जिसे प्रमाणित नही किया जा सकता और जिसे अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है, वह नित्य परब्रह्म ही सत्य माना गया है। क्योंकि जहां इन्द्रिय, मन और बुद्धि का योग नही है, वहां हर जन नही पहुच सकता। भगवान भी कहते है, चौथे प्रकार् के ज्ञानी योगी भक्त विरले ही होते है।

अर्जुन के रथ के सारथी के रूप में कृष्ण ने परब्रह्म के स्वरूप को अव्ययम अर्थात कभी भी नहीं बदलने वाले स्वरूप को बताया है, जब की स्वयं कृष्ण मानव रूप में परब्रह्म के व्यक्त और प्रकृति स्वरूप को दर्शा रहे है। जो की अनित्य है। इसलिए कृष्ण और राम व्यक्त और अव्यक्त शुद्ध चैतन्य स्वरूप दोनो का उदाहरण है। यह अव्यक्त स्वरूप जीव की चेतना शक्ति है जो जन्म से पहले और मृत्यु के बाद भी रहेगी। इस शक्ति का प्रत्यक्ष अनुभव नींद से उठे व्यक्ति से कर सकते है। सोने से पहले, सोने के बाद जो सब कुछ भूल जाने की अवस्था है, फिर स्वप्न की अवस्था फिर उस के बाद नींद से उठने के बाद जो तारतम्य जीव का जुड़ा हुआ है, वह चेतना शक्ति है। जन्म से वृद्ध अवस्था तक जो कुछ भी नही भुला हुआ है, वह चेतना ही है। अतः जो अव्यक्त होते हुए भी नित्य है और स्थूल शरीर के बदलने से भी नही बदलता, वही नित्य है।

अधिकांश भक्त अज्ञानी, कामना और आसक्ति के कारण अपनी अपनी कामना के अनुसार मेरे व्यक्त स्वरूप के पूजा करते है और अपनी कामनाओं की पूर्ति करते है। उन देवताओं के द्वारा मैं ही उन की कामनाओं की पूर्ति करता हूँ, यह भी नही जानते। भगवान के व्यक्त स्वरूप की आराधना अधिक सरल भी है, किन्तु परमात्मा का व्यक्त स्वरूप प्रकृति और परब्रह्म की माया ही है, इसलिये नित्य नही होता। यह माया क्या है, इसे हम आगे पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत ।। 7.24 विशेष ।।

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