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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  07. 23 I

।। अध्याय     07. 23 ।।

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 7.23

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥

“antavat tu phalaḿ teṣāḿ,

tad bhavaty alpa-medhasām..।

devān deva-yajo yānti,

mad-bhaktā yānti mām api”..।।

भावार्थ: 

परन्तु उन अल्प-बुद्धि वालों को प्राप्त वह फल क्षणिक होता है और भोगने के बाद समाप्त हो जाता हैं, देवताओं को पूजने वाले देवलोक को प्राप्त होते हैं किन्तु मेरे भक्त अन्तत: मेरे परम-धाम को ही प्राप्त होते हैं। (२३)

Meaning:

But those with finite intellect obtain a perishable result. Worshippers of deities obtain those deities, (and) my devotees obtain me alone.

Explanation:

We saw that there were two kinds of devotees – those who pursue finite goals and those who pursue the infinite. Earlier, Shri Krishna said that there was nothing wrong with pursuing finite goals as long as such devotees eventually involve towards pursuing the infinite.

Some commentators on the Bhagavad-gita say that one who worships a demigod can reach the Supreme Lord, but here it is clearly stated that the worshipers of demigods go to the different planetary systems where various demigods are situated, just as a worshiper of the sun achieves the sun or a worshiper of the demigod of the moon achieves the moon. Similarly, if anyone wants to worship a demigod like Indra, he can attain that particular god’s planet. It is not that everyone, regardless of whatever demigod is worshiped, will reach the Supreme Personality of Godhead. That is denied here, for it is clearly stated that the worshipers of demigods go to different planets in the material world, but the devotee of the Supreme Lord goes directly to the supreme planet of the Personality of Godhead.

Why do most devotees contact a deity, someone or something that is higher than them? It is to acquire or obtain a goal that will relieve them of their finitude. Let’s say they worship a deity and manage to obtain the object that they desire. Shri Krishna says that no matter what object is acquired, it will perish at some point. In other words, that object will be time- bound or space- bound. It will make the person happy for a short amount of time, after which he will begin to feel finite and consequently unhappy. The cycle of seeking another finite goal will start all over again.

Devotees who do not see the folly of repeatedly acquiring finite things are termed “alpa- medhasaa” or finite- minded by Shri Krishna. They will never be free of sorrow but will manage to suppress it temporarily. They are deprived of the knowledge which indicates the true nature of Ishvara. That is why we should never stop enquiring into the reality of things and try to look beyond the material world for the real answers to our problems.

Shri Krishna goes on to say that those who worship deities may eventually obtain the favour of the deity, who will shower them with his grace. Though commendable, this outcome will still be futile, because the deity is still a finite entity. Only those who seek the infinite Ishvara will gain infinitude by which their sense of finitude or incompleteness will be taken care of once and for all.

Why other God are able to fulfil infinite desire, because according to the scripture, all the Gods in heaven are none other than the ordinary jīvās only; who have got the exalted position because of their puṇya karma. Even yama dharma rāja is a post; you can become yama dharma rāja; already you might be yama. Similarly, you can become Indra; you can become anyone; it is a finite post, even Brahmāji is a finite dēvathā post. You can become; and even that Brahmāji will have to vacate that post; there will be a last day; he will have to get down.

Further, here Me means Shri Krishna does not represent infinite Krishna śarīram; Krishna’s śarīram is finite or Krishna’s body is finite; therefore, going to Krishna is attainment of the infinite represented by finite śarīram; Krishna’s body symbolises the infinite brahman. Whatever, Demi God you worship, only Braham is infinite and other than Braham is finite.

So then, there has to be reason why most people do not seek infinitude. This is taken up next.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व अध्याय में श्री कृष्ण में कहा कि तुम इस यज्ञ द्वारा देवी सम्पद की उन्नति करो। उन्नति करते करते परमश्रेय को प्राप्त कर लो। देवी सम्पद मोक्ष के लिये है। देवता हृदय के अंतराल में परम देव परमात्मा को अर्जित करने का सदगुण का नाम है जिसे कालांतर में बाहर का रूप दे कर मूर्तिया, कर्मकांड आदि में बदल दिया गया। इसलिये भगवान स्पष्ट घोषणा करते है कि कोई देवी देवता नहीं होता, वहां मैं ही होता हूँ और मैं ही श्रद्धा एवम विस्वास को कायम रखने के लिये नाशवान फल भी देता हूँ। इसलिये जब फल नष्ट होता है तो उस देवी देवता के प्रति विस्वास भी नष्ट होता है क्योंकि हमारी कामना एवम अहम पर श्रद्धा एवम विस्वास है, न कि उस देवी देवता के प्रति जिस को हम प्रतीक बना कर पूजा करते है। अतः जो नाशवान है वो शाश्वत हो नहीं सकता। इसलिये देवी देवता से प्राप्त फल भी नाशवान होता है । यही कर्मो का बंधन है जिस से प्रत्येक मनुष्य को मुक्त होना है।

मनुष्य अज्ञान के कारण यह जानते हुए भी कि समस्त देवी देवताओं की आराधना का स्वरूप मैं ही हूँ एवम मैं ही उन्हें उन की कामना की वस्तु प्रदान करता हूँ। मनुष्य यह भी भूल जाता है और अपनी कामना में उलझ जाता है एवम देवी देवताओ से प्रदत वस्तु अनित्य होने से उन का सुख स्थायी नही होता और फिर इस कारण सुख भोग कर दुःखो को भोगता है। सांसारिक सुखों के भोगने से उस की शक्ति का ही ह्रास होता है। भगवान इन लोगो को इसी अज्ञान के कारण अल्पज्ञानी भी बोलते है, क्योंकि सद्भाव रखते हुए भी अहम एवम कामना के कारण यह लोग परमात्मा के परमतत्व को न पहचान कर  नाशवान वस्तुओं की प्राप्ति की कामना में लगे रहते है, जिस के स्थायी न होने के कारण क्षणिक सुख भोग कर दुख को प्राप्त होते है। सांसारिक सुख से संतुष्टि भी नही मिलती और इस से कामना ही अधिक बलवती होती जाती है और मनुष्य को कुमार्ग पर ले जाती है।

संसार में जैसा विज्ञापनों में अक्सर देखने को मिलता है कि वस्तु के गुण अधिक से अधिक बताते हुए, जो नही भी है, वे गुण भी बता कर लोगो को आकर्षित किया जाता है और उस की बुराइयों को इतना छोटा और बेढंगे तरीके से प्रस्तुत किया जाता है, जिसे कोई समझ भी न सके। अक्सर ज्योतिषी, प्रवक्ता और स्वामी लोग अपना प्रचार करते हुए छोटे छोटे टोटके बताते है, जिस से आप की सांसारिक कामनाओं की पूर्ति हो सके। यह सब इन सभी सीमित देवी देवताओं का प्रचार ही है। इसलिए अविवेकी और लोभी जीव इस में फस कर दुख भोगता है।

वे कामी और अविवेकी पुरुष विनाशशील साधन की चेष्टा करनेवाले होते हैं इसलिये उन अल्पबुद्धिवालों का वह फल नाशवान् विनाशशील होता है। देवयाजी अर्थात् जो देवों का पूजन करनेवाले हैं वे देवों को पाते हैं और मेरे भक्त मुझ को ही पाते हैं। बड़े दुःख की बात है कि इस प्रकार समान परिश्रम होने पर भी लोग अनन्त फल की प्राप्ति के लिये केवल मुझ परमेश्वर की ही शरणमें नहीं आते। 

भगवान् के द्वारा विधान किया हुआ फल तो नित्य ही होना चाहिये फिर उनको अनित्य फल क्यों मिलता है इसका समाधान यह है कि एक तो उनमें नाशवान् पदार्थों की कामना है और दूसरी बात वे देवताओं को भगवान् से अलग मानते हैं। इसलिये उन को नाशवान् फल मिलता है। परन्तु उन को दो उपायों से अविनाशी फल मिल सकता है एक तो वे कामना न रखकर (निष्कामभाव से) देवताओं की उपासना करें तो उन को अविनाशी फल मिल जायगा और दूसरा वे देवताओं को भगवान् से भिन्न न समझ कर अर्थात् भगवत्स्वरूप ही समझ कर उन की उपासना करें तो यदि कामना रह भी जायगी तो भी समय पाकर उन को अविनाशी फल मिल सकता है अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो सकती है। यहाँ कहने का तात्पर्य है कि फल तो मेरा विधान किया हुआ ही मिलता है पर कामना होने से वह नाशवान् हो जाता है।

यहां कृष्ण भी नाशवान शरीर के साथ प्रकट है, उसी प्रकार अन्य देवी देवता ब्रह्मा, शिव, विष्णु, इंद्र, यम आदि भी है। यह सब परब्रह्म से ही उत्पन्न अपने श्रेष्ठ गुणों से है किंतु सृष्टि के प्रलय के साथ ही समाप्त होने वाले है। जीव यदि गुणातित हो कर माया को नियंत्रित करता है तो देवता और प्रकृति के गुणों में रहता हुआ माया से नियंत्रित रहता है तो जीव कहलाता है। अतः प्रकृति के देवता भी जीव ही है। इसलिए मनुष्य भी अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से देवता हो सकता है, किंतु वह देवता नित्य नही होगा। इसलिए जो स्वयं नित्य नही है, वह नित्य का आर्शीवाद या मार्ग कैसे बता सकता है।

क्योंकि इस जगत में परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नही। इस का प्रतिपादन वेदांत सूत्र एवम उपनिषद भी करते है। इसलिये भिन्न भिन्न देवताओं की भक्ति करते करते बुद्धि स्थिर और शुद्ध होने लग जाती है और फिर अंत मे एक मात्र नित्य परमात्मा का ज्ञान एवम ध्यान होने लगता है। यही एक मात्र उद्देश्य भिन्न भिन्न देवी देवताओं एवम धर्मो की उपासना पद्धिति का उपयोग है। इसलिये भगवान कहते है कि प्रत्येक भक्त को अपने अपने देवी देवताओं से जो भी फल मिलता है वो अनित्य ही है, उन फलो की आशा में न उलझ कर ज्ञानी भक्त होने की उमंग कायम रखनी चाहिए। क्योंकि यह भक्ति की उमंग ही उसे ज्ञान मार्ग पर ले कर जाएगी। यह ठीक है कि भगवान सब कुछ करने वाले एवम सब चीजों के दाता है, तो भी जिस के जैसे कर्म होते है वो उस के फल कर्मानुसार भोगता ही है। परमात्मा सभी वस्तुओं का कर्ता होते हुए भी अकर्ता ही है। वो कर्मो के फल भोगने वाले हर प्राणी का साक्षी मात्र ही है। इसलिये यदि कोई किसी विशिष्ट देवी देवताओं की आराधना कर के कुछ प्राप्त करना चाहता है या कामना एवम अहम में किसी कर्म को करने लग जाता है तो यह उस का कर्म बंधन का ही क्रम है। उसे ही इस को त्याग कर निष्काम होना है। उसे याद रखना चाहिये कि देवी  देवताओं की आराधना से सकाम फल अनित्य या नाशवान है।

अतः यह स्पष्ट है मुक्ति या मोक्ष का वास्तविक अर्थ जीव का परब्रह्म में विलीन होना है, इसलिये इस के अतिरिक्त इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवम चेतन से हम जो भी पूजा, अर्चना, यज्ञ, ध्यान , दान, भजन -कीर्तन आदि करते है यदि वह किसी भी कामना, आसक्ति या अहम से प्रेरित हो तो परमात्मा हमे वह प्रदान करता है, किन्तु नित्य नही होने से उस का प्रभाव सीमित रहता है और वह उस के अनुसार सुख भोग कर वापस मृत्यु लोक में आ जाता है। यह सुख भोग की कामना पृथ्वी को छोड़ कर स्वर्ग, पितृलोक, चन्द्रलोक या वैकुण्ठ या ब्रह्मलोक भी हो सकता है। परमात्मा की यह रचना सम्पूर्ण ब्रह्मांड है और परब्रह्म का ही स्वरूप है। परमात्मा कहते है यह सारे ब्रह्मांड  में मैं ही हूँ किन्तु यह ब्रह्मांड परब्रह्म नही है। इसलिये सात्विक ज्ञान, पूजा, समर्पण, स्मरण, दान-तीर्थ आदि क्षणिक सुख के साधन है, यह सीढ़ी है, ब्रह्मविद होने के लिये, इसलिये परब्रह्म से पोषित है, किन्तु कामना के साथ  समर्पण करने से इस का उद्देश्य ही बदल जाता है।

अतः यह स्पष्ट है जब तक हम पूजा पाठ परब्रह्म को प्राप्ति के लिये नही करते, तो कामना चाहे कैसी हो, अंततः व्यापार है, लेनदेन ही है। आप पूजा करते है, जिस देवता से जो मांगते है, वह आप को देता है और समय पूरा होने पर वापस ले लेता है। इसलिये कामना- आसक्ति के साथ पूजा करने वालो को अल्पबुद्धि कहा गया है, क्योंकि जिस मार्ग से मुक्ति या मोक्ष मिल सकता है, वहां सुख की कामना या याचना करना, ठीक वैसा है, जैसा हीरे की खान से पत्थर उठा कर लाना।

यह मेरा निजी विचार और अनुभव है कि स्वार्थ, लोभ, जीवन के संघर्ष, सुख की लालसा, सीमित साधन और असंतुष्टि व्यक्ति को अतिभौतिक जीव बना देती है।  84 लाख योनियों के गुजर कर मिला मनुष्य शरीर सांसारिक सुखों के प्रति लालायित रहता है और मोक्ष की बाते या ज्ञान सरदर्द या अवांछित एवम समय खराब करने वाला विषय बन कर रह जाता है। मोक्ष की कामना अवश्य सभी में रहती है, किंतु सभी को यह भी बाबा जी का प्रसाद को भांति बिना कुछ चाहिए। लाखो में कोई एक इस राह पर चलने वाला होता है, शेष यदि सन्यास या वैराग्य अपना भी ले, तो वह भी व्यवसायिक या कामना और अहम से परिपूर्ण होता है।

भगवान द्वारा अपने विभिन्न प्रकार के भक्तों का वर्णन करने के बाद हम आगे पढ़ेंगे कि क्यों इतना सब कुछ जानने के बाद भी सर्व सदाहरण लोग ईश्वर की शरण को प्राप्त नही होते।

।। हरि ॐ तत सत।। 7.23।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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