।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 22 ।I Additional II
।। अध्याय 07. 22 ।। विशेष II
।।देवता और श्रद्धा-विश्वास।। विशेष – 7.22 ।।
परब्रह्म अव्यक्त, निर्गुण, निराकार, अदृश्य और अकर्ता है। जब की उस से संकल्प से रचित सृष्टि सगुण – निर्गुण, व्यक्त – अव्यक्त, निराकार – साकार होने के साथ निरंतर क्रियाशील है। इसलिए इस में सभी जीव प्रकृति की माया से मुक्त हो कर अपने ब्रह्म स्वरूप को नही जानते। अतः आज के युग मे यदि ईश्वर के भक्त है, तो इन प्रथम तीन ही प्रकार के ही है। सुबह से शाम तक की दिनचर्या सामाजिक, व्यावसायिक, पारिवारिक एवम शारीरिक अधिक और आध्यात्मिक काम हो कर रह गयी। अध्यात्म भी माया में व्यवसाय या जीवन भरण का साधन हो गया है। इसलिए अधिकांश मनुष्य अपनी पूजा या पाठ या ईश्वर की आराधना की विशिष्ट लाभ या कष्ट के निवारण के लिए करता है। इस के वह अपनी कल्पना शक्ति से उस देवता या देवी को ध्यान लगाता है जिस की शक्ति उस की कामना को पूर्ण करने योग्य होती है। क्योंकि यह देवता या देवी जीव की अपनी उपज है जो ज्ञान की वृद्धि के साथ साथ विभिन्न रूपों में परिवर्तित और उन्नत होते गए और देवता प्रकृति से ले कर अपरा और परा प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों में स्थापित हो गए। अतः ईश्वर भी हम अपनी आवश्यकताओं के इर्द गिर्द ही तलाश करते है। इसलिये योगी होना लगभग आत्मा से सम्मानित है किंतु योगी कोई होना नही चाहता।
हम अपनी आवश्यकताओ के अनुसार विशिष्ट मत, विश्वास, धार्मिक पुस्तकों, गुरु, देवताओं आदि को मानते है। यह विश्वास ही है वेद भगवान की वाणी है और कुरान अल्लाह द्वारा रचित है। आसमान से कोई पुस्तक उतरी होगी या देवता ने धरती पर आ कर वेद का ज्ञान दिया होगा, सभी कल्पना और मानव रचित उन्नत और निम्न रचनाएं ही है।किंतु जिस की जितनी श्रद्धा और विश्वास जिस बात पर अधिक होगा, उसे वही एकमेव सत्य प्रतीत होता है। श्रद्धा और विश्वास के अंदर पर हम कभी वास्तविक तथ्यों को भी स्वीकार नही करते और अपने अंदर एक आत्मविश्वास जगाए रखते है। किंतु जो भी काल के अधीन है, वह प्रकृति के तीन गुणों से बाहर नही हो सकता। इसलिये श्रद्धा-विश्वास जब विवेक से परे हो जाता है तो उस का फायदा धर्म गुरु उन्मादी बना कर स्वहित या अपने अहंकार के करते है। फिर यह गुरुधर्मिक वेशभूषा में हो या सामाजिक नेतृत्व की। इन का अनुशरण करने वाला इन की आसक्ति और कामना का ही दास हो जाता है।
इतिहास परमात्मा के नाम पर गुमराह करने वालो के नामो से भरा पड़ा है और अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये नेतृत्व करने वाले अत्याचारियों से भी। इन के नामो का यहाँ उल्लेख करना का कोई औचित्य नही। किन्तु यहां भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सावधान करते है कि अज्ञानी लोग नही जानते कि जिस कामना और आसक्ति की पूर्ति के लिये वह विशिष्ट देवी, देवता की आराधना करते है, उसे वह ही उन की कामना पूर्ति के अधिकार इसी उद्देश्य से देते है, कि सात्विक एवम रज भाव रखते हुए, जीव अपने उच्चतर स्तर को प्राप्त करे। इसलिये अपने आत्म विश्वास को सात्विक बनाये रखना भी जीव का कर्तव्य है।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा स्पष्ट घोषणा है कि संपूर्ण सृष्टि का सूत्रधार केवल एक मात्र परब्रह्म है, जो प्रकृति और माया से यह खेल खेलता है। जीव ब्रह्म का ही अंश है किंतु अज्ञान में वह अपने शरीर को ही सत्य समझता हुआ, कर्ता और भोक्ता मानता है।
अतः अज्ञान में ही सही, जीव का ब्रह्म उसे अपने स्वरूप का अहसास दिलाता रहता है और वह जानता है कि इस संसार में सभी क्रियाएं अपनी नियमित गति से कार्य करती है किंतु प्राकृतिक और आध्यात्मिक आनंद के लिए उस का विश्वास और श्रद्धा अपने अपने देवी देवताओं पर बना रहता है।
गीता का यह अध्याय इसी ज्ञान को अत्यंत व्यावहारीक तरीके से प्रस्तुत कर रहा है। भगवान अपने सर्वव्यापी होने की घोषणा के साथ मनुष्य को उन की कामनाओं के साथ उन द्वारा पूजे जाने वाले देवताओं के रूप में भी उन की नाशवान कामनाओं की पूर्ति करते है।
एक छोटे बच्चे को अपने माँ बाप पर पूरा विस्वास एवम श्रद्धा होती है। इस लिये वो जिद कर के वो भी वस्तु मांगता है जो उस के लिये उपयोगी या लाभ दायक नही है। किंतु पिता उस के विस्वास को कायम रखने के लिये उस की जिद को भी इसी विस्वास के साथ पूरा करता है कि उस के विस्वास एवम श्रद्धा बना रहे। क्योंकि वो सोचता है यदि श्रद्धा एवम विस्वास बना रहा तो एक न एक दिन वो सही बात को समझ जाएगा।
परमात्मा भी पिता समान ही होता है इसलिये अहम एवम कामनाओं में डूबे इस जीव की इच्छा पूर्ति के लिये उस की श्रद्धा देवता में स्थित करते हुए उस की मनोकामना भी पूर्ण करता है। क्योंकि उस को लगता है कि यही श्रद्धा एवम विस्वास इस मोह ग्रस्त जीव को अहम एवम कामना से अलग कर के, तत्वविद बनाएगी। जीव को निष्काम हो कर योगारूढ़ करने के लिये परमात्मा, उस की कामना और आसक्ति को एक दम से नही नकारता किन्तु कर्मफल के माध्यम से उस को तत्वविद होने को कहता है।
यह मनोकामना जीव के द्वारा पूजे जाने वाले देवी देवता के सामर्थ्य के अनुसार, उन्ही के हाथो ही क्यों पूरी की जाती है तो इस का कारण है कि विश्वास पारिवारिक, सामाजिक और परिस्थितियों के उत्पन्न अवस्था है। इसलिए श्रद्धा, विश्वास और प्रेम उसी से उत्पन्न होता है। यदि उस को किसी अन्य की ओर धकेला जाए तो वहां श्रद्धा और विश्वास का अभाव और मजबूरी ज्यादा होगी। परिवार में बच्चे जिस हक से अपने माता और पिता से कुछ मांगते है, वह अन्य से नही मांगते। फिर चाहे मां – पिता किसी ओर से वह प्राप्त करे। यही इष्ट देव या कुल देवता के प्रति किसी की भी श्रद्धा और विश्वास होता है। इसलिए उस देवता या देवी के माध्यम से कामना या इच्छा ही सही, उस की आपूर्ति कर के परमात्मा उस की श्रद्धा और विश्वास को टूटने नही देता। श्रद्धा, विश्वास और प्रेम सत्व के गुण है, इसलिए जीव में यदि बने रहे तो वह कभी भी कामना और आसक्ति से मुक्ति पा कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में मोक्ष का मार्ग भी चुन लेगा।
अब भी यदि कोई जीव परमात्मा के प्रेम को न समझे एवम कर्म बंधन का रास्ता ही चुने तो भी परमात्मा उसे प्रकृति द्वारा विभिन्न कर्मो के फलो के परिणामो से गुजारता हुआ, मुक्ति का द्वारा उस के बंद नहीं करता। हम योगी की बजाय भोगी ही बने रहना चाहते है, हमे सुख इन सांसारिक वस्तुओं में खोजना ही अपनी मजबूरी लगता है क्योंकि तत्व ज्ञान को हम पढ़ते अवश्य है किंतु आत्मसात नही कर पाते। प्रकृति के कर्म बंधन में निष्काम होना नही चाहते। इन्ही बातों को यह अध्याय अत्यंत सुंदर तरीके है, एक एक श्लोक के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा है। यह भी उस परमात्मा की कृपा है। क्योंकि उस की प्रेरणा के बिना कौन उस को सुन या पढ़ सकता है।
।। हरि ॐ तत सत ।। विशेष 7.22 ।।
Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)