।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 22 ।I
।। अध्याय 07. 22 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 7.22॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥
“sa tayā śraddhayā yuktas,
tasyārādhanam īhate..।
labhate ca tataḥ kāmān,
mayaiva vihitān hi tān”..।।
भावार्थ:
वह भक्त सांसारिक सुख की कामनाओं से श्रद्धा से युक्त होकर उन देवी-देवताओं की पूजा-आराधना करता है और उसकी वह कामनायें पूर्ण भी होती है, किन्तु वास्तव में यह सभी इच्छाऎं मेरे द्वारा ही पूरी की जाती हैं। (२२)
Meaning:
Engaged with faith, that person worships that deity, and his desire is fulfilled, but that fulfilment is delivered only through me.
Explanation:
When someone chooses to pursue a finite or a worldly goal, they run towards a finite deity instead of going towards Ishvara. We saw this in the previous shlokas. Shri Krishna continues that point here by saying that Ishvara does not object when devotee seeks a finite goal from a finite deity. In fact, he strengthens that devotee’s faith by delivering what the devotee asks of the deity.
Shree Krishna reiterates in this verse that the celestial gods do not have the capacity to fulfil the material desires of their devotees. They can only grant wishes if God permits it. Labhate means “to obtain.” The devotees with mediocre understanding may think that they have obtained their desired material objects by pleasing the devatas (celestial gods). However, it is not the devatas, but God who facilitates everything.
Faith is a process that most of us do not fully comprehend. But it is a reality. Even in the medical profession, placebos or pills made of inactive ingredients such as sugar are known to cure patients by sheer power of faith.
So, Shri Krishna says that even if a devotee approaches a deity with a finite goal, Ishvara is ready to deliver that goal as long as the devotee’s faith in the deity is strong. By fulfilling finite desires through the lower deities, Ishvara hopes that the devotee will learn to further subdue his ego. One cannot have an increase in faith without a decrease in ego.
As desires are sought with greater and greater faith, and the corresponding desires are fulfilled, the devotee’s faith increases. This process has the potential to result in the spiritual evolution of that devotee. He will evolve from seeking finite goals to seeking the infinite – Ishvara himself.
This is the ideal state, but it is totally up to the devotee to make that transition. Unfortunately, most devotees get stuck in the pursuit of finite goals, as we shall see in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
अपने तीन प्रकार के भक्तों आर्त, अर्थार्थी एवम जिज्ञासु के बारे में भगवान अपने सर्वरूपेंण स्थापना को इस श्लोक से बताते है कि सब कुछ मेरे द्वारा ही सिद्ध होता है। भक्तों के हृदय में श्रद्धा और उन की भावनाओ एवम कामनाओं के अनुसार श्रद्धेय देव रूप मैं ही होता हूँ। अतः वे जिस भी रूप में देव अर्चना करते है वो मुझे मिलती है और मैं ही उन्हें फल सिद्धि प्रदान करता हूँ। इधर उन की भावना ही मेरी सत्ता स्फुर्तिसे देव रूप धारती है और उधर उन की भावना ही मेरी सत्ता स्फूर्ति से फलाकार होती है। किंतु अज्ञान वश यह भक्त मेरे द्वारा चेतन सत्ता स्फूर्ति अपने अपने आराध्य देव द्वारा प्रदत्त मान लेते है और मुझ सर्वात्मा से वंचित रह जाते है।
साधारण मनुष्य की समझ मे मोक्ष देने वाला परमात्मा है किंतु यदि सांसारिक सुख सुविधा एवम कष्ट निवारण चाहिये तो उसे विशिष्ट देवी देवताओं की पूजा अर्चना करनी चाहिये। तब वह अपनी सांसारिक कामनाओं के लिये पीपल, बड़, चबूतरा या मंदिर में विशिष्ट देवी देवताओं की पूजा मंत्र, तंत्र, व्रत, उपवास, यज्ञ, भजन, कीर्तन एवम सामूहिक प्रवचन आदि करने लग जाता है। भिन्न भिन्न देवताओं की आराधना से जो भी फल मिलता है, उसे आराधक समझते है उस को देने वाला वो ही विशिष्ट देवी देवता ही है। जब कि वो भूल जाता है कि कर्म फल से अनुसार मैं ही उस मे श्रद्धा से ले कर आराधना एवम देवी देवताओं से प्रदान फल देने वाला हूँ। क्योंकि अपरा एवम परा प्रकृति में मेरे सिवाय कुछ भी नही है।
जैसे सरकारी अफसरों को एक सीमित अधिकार दिया जाता है कि तुम लोग अमुक विभाग में अमुक अवसर पर इतना खर्च कर सकते हो इतना इनाम दे सकते हो। ऐसे ही देवताओं में एक सीमा तक ही देने की शक्ति होती है अतः वे उतना ही दे सकते हैं अधिक नहीं। देवताओं में अधिक से अधिक इतनी शक्ति होती है कि वे अपने अपने उपासकों को अपने अपने लोकों में ले जा सकते हैं। परन्तु अपनी उपासना का फल भोगने पर उन को वहाँ से लौटकर पुनः संसार में आना पड़ता है। जिस प्रकार अधिकार मनोवांछित सम्मान या भेंट न मिलने पर रुष्ट हो कर काम को बिगाड़ सकते है, वैसे ही सीमित अधिकारों वाले देवता का भी पूजा – अर्चना में त्रुटि होने पर रुष्ट होने का डर बना रहता है।
मेरे द्वारा स्थिर की हुई उस श्रद्धा से युक्त हुआ वह उसी देवता के स्वरूप की सेवा पूजा करने में तत्पर होता है। और उस आराधित देवविग्रह से कर्मफल विभाग के जानने वाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वर द्वारा निश्चित किये हुए इष्ट भोगों को प्राप्त करता है। वे भोग परमेश्वर द्वारा निश्चित किये होते हैं इसलिये वह उन्हें अवश्य पाता है यह अभिप्राय है। यहाँ पर यदि हितान् ऐसा पदच्छेद करें तो भोगों मे जो हितत्व है उस को औपचारिक समझना चाहिये क्योंकि वास्तव में भोग किसी के लिये भी हितकर नहीं हो सकते।
कामना-आसक्ति और अहम में क्षणिक सुख की लालसा में मूल तत्व श्रद्धा और विश्वास है कि यह हमें जिस पर विश्वास करते है, वह प्राप्त करा देगा। यह विश्वास व्यक्ति, धर्मगुरु, मजहब, धार्मिक पुस्तकों एवम कथित नियमो और कर्मकांडो पर हो सकता है और इतना सशक्त भी हो जाता है, जो हमे द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, हत्या और अपने को श्रेष्ठ स्थापित करने की आसुरी वृति में ने ढकेल सकता है। परमात्मा सात्विक वृति के श्रद्धा एवम विश्वास तक ही अपने को सीमित करता है और आसुरी वृति के श्रद्धा और विश्वास करने वाले तामसी गुणों वाले जीव का ज्ञान भी हरण कर लेता है, जिस से वह अपने कर्मों के फल को प्राप्त हो कर जन्म-मरण के दुख को भोगते है।
जिस की सीमा या उद्गम हो, उस का क्षय भी होना निश्चित है। इसलिये काल के सब अधीन है। जो कालातीत है, जो काल का भी रचियता है, एक जिस से सब है और वह सब से नही है, वही परब्रह्म ही एकमेव है, जिस में जीव का विलीन होना मुक्ति है। अतः सात्विक श्रद्धा एवम विश्वास से जो जिस देवता की पूजा और आराधना करता है, उसे यह भी समझना चाहिए कि इन सब को कामना पूर्ति करने का अधिकार भी उस एकमेव परब्रह्म से प्राप्त है। वह ही उस देवता, गुरु, कर्म कांड से उस को उस की कामना के अनुसार कर्मफल के अनुसार प्रदान करता है। वेद और वेदान्त सभी यही मानते है श्रद्धा एवम विश्वास से चाहे किसी भी देवी-देवता की आराधना करी जाए। कालांतर में इस से बुद्धि स्थिर एवम शुद्ध होने लगती है और वह अपनी अनित्य कामनाओं को छोड़ कर परब्रह्म की शरण मे चला जाता है।
अव्यक्त स्वरूप को छोड़ कर व्यक्त स्वरूप धारण कर लेने की युक्ति को कुछ लोग योग भी कहते है और वेदांती लोग इसे माया भी मानते है। इस प्रकार से फलो को प्राप्त करने से भक्त को क्या लाभ या हानि होती है यह हम अगले श्लोक में पढ़ते है।
।। हरि ॐ तत सत।। 7. 22।।
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