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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  07. 20 I

।। अध्याय     07. 20 ।।

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 7.20

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।

तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥

“kāmais tais tair hṛta-jñānāḥ,

prapadyante ‘nya-devatāḥ..।

taḿ taḿ niyamam āsthāya,

prakṛtyā niyatāḥ svayā”..।।

भावार्थ: 

जिन मनुष्यों का ज्ञान सांसारिक कामनाओं के द्वारा नष्ट हो चुका है, वे लोग अपने- अपने स्वभाव के अनुसार पूर्व जन्मों के अर्जित संस्कारों के कारण प्रकृति के नियमों के वश में होकर अन्य देवी- देवताओं की शरण में जाते हैं। (२०)

Meaning:

They, whose knowledge has been usurped by desires, seek refuge of other deities. They resort to rites, compelled by their own nature.

Explanation:

Krishna is going to classify Bhakthi broadly into two types, Sakāma bhakthi and Niṣkāma bhakthi; Sakāma bhakthi and Niṣkāma bhakthi; these are the two classifications of which Krishna is going to deal with Sakāma bhakthi; from verse No.20 up to verse 26

Shri Krishna praised the wise devotee’s quest for the infinite Ishvara in the previous shlokas. He now proceeds to describe the other category of devotees. These devotees feel a sense of incompleteness. They keep looking for finite things such as people, objects and situations to make themselves feel complete. Shri Krishna says that such devotees, compelled by their nature, seek the refuge of finite deities. They do so because their discrimination is usurped by the force of their desires.

Shree Krishna says that people worship the devatās (celestial gods) as per the prescribed rituals to attain material gains. Material desires have shrouded their knowledge. Hence, they forget that the Supreme Lord is the source of all that exists, including these celestial gods. As a president of a country appoints his officers among different departments. Similarly, these celestial gods also occupy different positions in the working of God’s creation. They derive their powers from God; they are not independent of Him. They can bestow on their devotees only material things that are under their control. But cannot liberate anyone from the bondage of Maya or the cycle of birth and death because; they themselves are not liberated from this cycle. God alone has the power to do so. The celestial gods are also souls like us. However, they have attained these positions in the celestial abodes as a result of their pious deeds from previous lives. Once their account of pious deeds depletes, they have to return to earth. Hence, even the celestial gods are perishable; God alone is eternal.

First, let us look at what is meant by usurping of knowledge by desires. We have seen the example earlier of a family walking through a shopping mall. The husband and the wife see the exact same shops. Both their intellects give them the same knowledge of objects. In other words, both of them recognize that “this is a nice outfit” and “this is an Ipod”. But their behaviour towards these objects will be different due to the difference in their respective desires. The husband will think “I want that Ipod” whereas the wife will think “I want that outfit”.

Now, unlike the wise devotees, such devotees still have not shifted their focus towards the ultimate goal that will give them infinitude – Ishvara. They still harbour desires for material objects, people and situations that prevents them from contacting the infinite. So then, due to the force of their desires, they look for something finite to give them happiness. To that end, they propitiate deities that will give them their finite objects of desire. They approach Lord Ganesha to remove obstacles in their line of work, for example.

Their situation is no different than a businessman who wants to build a factory. He will have to appease the local minister to get land clearances. He will have to appease the local union leader to ensure the smooth running of his factory. He will have to appease his customers so that they will keep placing orders for his goods. But in doing so, he will have to dance to their tune. He may have to give someone’s son-in-law a job in his factory, and so on and so forth. Similarly, in order to propitiate these deities, we may also have to follow prescribed rites and rituals that are specific to each deity.

Shri Krishna says that even if pursuing limited or finite goals is not the way to go, Ishvara will still demonstrate compassion towards such devotees, indicated by the next shloka.

।। हिंदी समीक्षा ।।

जीवात्मा एवम परमात्मा दोनो ही पुरुष है, किन्तु जीवात्मा में सांसारिक क्लेश, अविद्या, शुभ -अशुभ कर्म, कर्मों के फल और उस को भोगने की लालसा होती है, यह नही है तो जीव भी परमात्मा है। कोई भी इच्छा स्थायी या नित्य सुख नही दे सकती, क्योंकि इच्छाए बदलती रहती है, एक कि आपूर्ति, दूसरी इच्छा के जन्म का कारण बनती है, जब इच्छा की पूर्ति देवता करेंगे, उस की सत्ता भी स्थायी नही हो सकती। जीव माया से नियंत्रित होता है और माया को परमात्मा नियंत्रित करता है। माया का अर्थ सत – रज – तम गुण अर्थात कामना, आसक्ति, काम, क्रोध, राग – द्वैष, लोभ, मोह आसक्ति और कुल मिला कर धर्म, अर्थ और काम।

पूर्व श्लोक में ज्ञानी भक्त के बारे में पढ़ा, जिस ने अपनी कामनाओं एवम अहम को त्याग कर परमात्मा को प्राप्त किया एवम वासुदेव कहलाया। अब हम उन तीन भक्तों के बारे में पढेंगे जिन्हें हम आर्त, अर्थार्थी एवम जिज्ञासु के नाम जानते है। इसलिए श्लोक 20 से 26 तक हम भगवान श्री कृष्ण द्वारा सकाम भक्ति को समझेंगे।

कामना एवम अहम का त्याग न कर पाने के कारण उपरोक्त तीनो भक्त परमात्मा की उपासना विशेष प्रयोजन से करते है जिस में उन की कामनाये की पूर्ति की अपेक्षा जुड़ी रहती है। निर्मल बुद्धि एवम सात्विक या राजसी गुण युक्त प्रवृति होने के कारण यह ईश्वर की आराधना कामना विशेष के साथ करते है। इन का विवेक इन की कामनाओं एवम अहम के कारण सांसारिक आवश्यकताओ से जुड़ जाता है, तत्वज्ञान उन की कामनाओं के पीछे छुप जाता है। घर गृहस्थी, स्त्री, धन, सुरक्षा, मान सम्मान, पद, लाभ, निरोग, शत्रु विजय, व्यापार एवम व्यवसाय आदि अनेक कामनाये इस सांसारिक जीवन से ले कर मोक्ष, देव दर्शन, स्वर्ग एवम वैकुंठ आदि परा सांसारिक कामनाओं की पूर्ति हेतु जीव परमात्मा की आराधना करने लगता है।

यह सर्व जगत् आत्मस्वरूप वासुदेव ही है इस प्रकार न समझ में आने का कारण हैं पुत्र पशु स्वर्ग आदि भोगों की प्राप्ति विषयक नाना कामनाओं द्वारा जिन का विवेक विज्ञान नष्ट हो चुका है वे लोग अपनी प्रकृति से अर्थात् जन्मजन्मान्तर में इकट्ठे किये हुए संस्कारों के समुदायरूप स्वभाव से प्रेरित हुए अन्य देवताओं को अर्थात् आत्मस्वरूप मुझ वासुदेव से भिन्न जो देवता हैं उन को उन्हीं की आराधना के लिये जो जो नियम प्रसिद्ध हैं उन का अवलम्बन कर के भजते हैं अर्थात् उन की शरण लेते हैं।

पूर्व में ही हमने पढ़ा कि आसुरी प्रवृति के ज्ञान का मार्ग अवरुद्ध हो जाता, वैसे ही कामना के साथ परमात्मा को भजने, ध्यान लगाने से या पूजा पाठ करने से कामना की पूर्ति तो हो सकती है, किन्तु मोक्ष का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। जिस की जैसी भावना हो, कामना हो, भगवान उस को उसी रूप में दिखते है। अतः कामनाओं की पूर्ति के विशिष्ट देवता तय हो जाते है, जो अपने अपने आराध्य को उस की श्रद्धा-भक्ति से प्रसन्न हो कर उसे उस की कामना के अनुसार और उन के अपने सामर्थ्य के अनुसार वरदान देते है। यह सभी देवताओं को वरदान देने की शक्ति भी परब्रह्म से ही प्राप्त है। याद रहे जो अपना सम्बन्ध सीधे मालिक से रखता है, उसे मालिक जो सुविधा दे सकता है, वह उस का कर्मचारी नही दे सकता।

वासुदेव को छोड़ कर अन्य देवता का अर्थ यही है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में वासुदेव के अतिरिक्त कोई भी देवता मोक्ष नहीं दे सकता। वह अपने सामर्थ्य के अनुसार सांसारिक या प्रकृति की कामनाओं की पूर्ति कर सकता है। यदि हम शिव पुराण पढ़ते है तो शिव के बारे में, गणेश पुराण में गणेश के बारे ने और देवी भागवत में देवी के बारे आदि इसी प्रकार की गाथा कही गई है। तो इस का अर्थ हम यही समझे कि उस देवता के अतिरिक्त कोई भी देवता सीमित सामर्थ्य रखता है। इसलिए कौन देवता असीमित और कौन देवता सीमित है, इस प्रकार के तर्क –  वितर्क में नही फसना चाहिए। सनद रहे कि हम भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण को सुन रहे है तो हम यह बात वासुदेव के विषय में सुन रहे है। वास्तव में ब्रह्म कोई भी सगुण देवता या देवी नही है, परब्रह्म ही निर्गुण और नित्य स्वरूप है और जीव उस का अंश होने से ही ब्रह्म स्वरूप है, इसलिए वह जब सकाम हो कर धर्म, अर्थ और काम में जिस भी देवी – देवता की अर्चना, पूजा या भक्ति करता है और इस के लिए वह जो भी भोग, प्रसाद, रुपए, पैसे या शर्त रखता है तो वह देवी देवता भी सीमित हो कर उसे उस से अधिक प्रदान नही कर सकता। किंतु जब वह मोक्ष के लिए ज्ञान को प्राप्त करता है तो उस के समक्ष कोई भी देवी – देवता नही हो कर आत्मशुद्धि या चित्तशुद्धि का मार्ग उसे निर्गुण परब्रह्म की ओर ले जाता है। वह अपने ही अज्ञान के अध्यास को मिटाने की चेष्टा करता है, इसलिए मोक्ष या मुक्ति की आकांक्षा और धर्म, अर्थ और काम की इच्छा दोनो ही जीव के भाव है।

विवेक सार्मथ्य मानव जन्म की विशेषता है और यह सर्वथा असंभव है कि विवेक के प्रखर और सजग होने पर मनुष्य को आत्मज्ञान न हो सके। परन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और विषयभोग की कामनायें उस के विवेक को आच्छादित कर देती हैं।

देवता शब्द के अनेक अर्थ हैं जैसे प्रकृति के नियमों के अधिष्ठाता देवता इन्द्र वरुण आदि इन्द्रियां किसी कार्य क्षेत्र में निहित उत्पादन क्षमता आदि। यहाँ इन में से कोई भी अर्थ लेकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर यही ज्ञात होता है कि भोगी पुरुष इन की आराधना केवल वैषयिक सुख को प्राप्त करने के लिए ही करता है। वह कामना से प्रेरित होकर तत्पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न करता रहता है। शान्त मन में आत्मा का प्रतिबिम्ब स्पष्ट और स्थिर दिखाई देता है परन्तु कामनाओं के स्रोतों से प्रवाहित होने वाली विचारों की धारायें उस में विक्षेप उत्पन्न करके प्रतिबिम्ब को भी विचलित कर देती हैं। मन के क्षुब्ध होने पर बुद्धि की विवेक सार्मथ्य लुप्त हो जाती है और स्वभावत फिर मनुष्य सत्य असत्य का विवेक नहीं कर पाता है। जब मनुष्य की बुद्धि का आलोक कामना के मेघों से आवृत हो जाता है तब आसक्तियों और अवगुणों के उलूक मन के जंगल में शोर मचाने लगते हैं। मन में इच्छा के उदय मात्र से मनुष्य का पतन नहीं होता बल्कि पतन का कारण है, उत्पन्न इच्छा के साथ उस का तादात्म्य। इस तादात्म्य के द्वारा मनुष्य अनजाने में अपनी इच्छाओं को बढ़ावा देकर असंख्य विक्षेपों को जन्म देता हुआ स्वयं उनका शिकार बन जाता है।

अन्न के सूक्ष्म तत्त्व का ही रूप वृत्ति (विचार) है और इसलिए वह स्वयं जड़ है। वृत्तिरूप मन आत्मा से चेतनता प्राप्त करता है और कामी व्यक्ति से सार्मथ्य। विचारों के अनुसार कर्म होता है। एक बार मनुष्य के मन में कोई कामना दृढ़ हो जाये तो वह यह विवेक खो देता है कि उस कामनापूर्ति से उसे नित्य शाश्वत सुख मिलेगा या नहीं। क्षणिक सुख की आसक्ति के कारण वह अन्यान्य देवताओं को सन्तुष्ट करने में व्यस्त रहता है।

कामना से प्रेरित भक्ति के लिये देवता का चयन भी उस देवता की आदिशक्ति के अनुसार होता है। प्रायः पंडित, ज्योतिष और अपने को ज्ञानी समझने वाले लोग कामनाओं के अनुसार ही बताते है, इस के लिये किस देवता की पूजा करे और उस का क्या विधि विधान है, जिस से वह देवता प्रसन्न हो कर वरदान दे दे।

अब यह भी सर्वविदित तथ्य है कि प्रत्येक देवता को सन्तुष्ट करने के विशेष नियम होते हैं। सकाम भक्ति लेन – देन की भक्ति अर्थात व्यापारिक, व्यवसायिक होती है। भक्त प्रसाद, रुपए या नियम या त्याग, यात्रा, दर्शन आदि का प्रलोभन दे कर भगवान को रिझा कर अपनी कामनाओं की पूर्ति चाहता है। इन्द्रादि देवताओं को यज्ञयागादि के द्वारा इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के द्वारा तथा कार्यक्षेत्र की उत्पादन क्षमता को व्यक्त करने के लिए उचित उपकरणों और उनके योग्य उपयोग के द्वारा सन्तुष्ट करके इष्ट फल प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि वे अन्यान्य देवताओं को विशिष्ट नियमों का पालन करके भजते हैं।एक वासुदेव को त्यागकर लोग अन्य देवताओं को क्यों भजते हैं इसका कारण श्लोक की दूसरी पंक्ति में बताया गया है कि प्रकृत्या नियत स्वया। प्रत्येक मनुष्य अपनी पूर्व संचित वासनाओं के अनुसार भिन्नभिन्न विषयों की ओर आकर्षित होकर तदनुसार कर्म करता है। यह धारणा कि स्वर्ग में बैठा कोई ईश्वर हमारे मन में इच्छाओं को उत्पन्न कराकर हमें पाप और पुण्य के कर्मों में प्रवृत्त करता है केवल निराशावादी निर्बल और आलसी लोगों की ही हो सकती है। बुद्धिमान साहसी और उत्साही पुरुष जानते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों के अनुसार अपने वातावरण कार्यक्षेत्र आदि का निर्माण करता है।

संक्षेप में एक मूढ़ पुरुष शाश्वत सुख की आशा में वैषयिक क्षणिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है जबकि विवेकी पुरुष उसकी व्यर्थता पहचान कर पारमार्थिक सत्य के मार्ग पर अग्रसर होता है।

तात्पर्य है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिये जो विवेकयुक्त मनुष्य शरीर मिला है उस शरीर में आकर परमात्मा की प्राप्ति न करके वे अपनी कामनाओं की पूर्ति करने में ही लगे रहते हैं। संयोगजन्य सुख की इच्छा को कामना कहते हैं। कामना दो तरह की होती है यहाँ के भोग भोगने के लिये धनसंग्रह की कामना और स्वर्गादि परलोक के भोग भोगने के लिये पुण्यसंग्रह की कामना।धनसंग्रह की कामना दो तरह की होती है पहली यहाँ चाहे जैसे भोग भोगें चाहे जब चाहे जहाँ और चाहे जितना धन खर्च करें सुखआराम से दिन बीतें आदि के लिये अर्थात् संयोगजन्य सुख के लिये धनसंग्रह की कामना होती है और दूसरी मैं धनी हो जाऊँ धन से मैं बड़ा बन जाऊँ आदि के लिये अर्थात् अभिमानजन्य सुख के लिये धनसंग्रह की कामना होती है। ऐसे ही पुण्यसंग्रह की कामना भी दो तरह की होती है पहली यहाँ मैं पुण्यात्मा कहलाऊँ और दूसरी परलोक में मेरे को भोग मिलें। इन सभी कामनाओं से सत्असत् नित्य अनित्य सार असार बन्धमोक्ष आदि का विवेक आच्छादित हो जाता है। विवेक आच्छादित होने से वे यह समझ नहीं पाते कि जिन पदार्थों की हम कामना कर रहे हैं वे पदार्थ हमारे साथ कब तक रहेंगे और हम उन पदार्थों के साथ कब तक रहेंगे।

कामना पूर्ति के लिये अनेक उपायों और नियमों को धारण कर के मनुष्य अन्य देवताओं की शरण लेते हैं भगवान् की शरण नहीं लेते।

यहाँ अन्यदेवताः कहने का तात्पर्य है कि वे देवताओं को भगवत्स्वरूप नहीं मानते हैं प्रत्युत उन की अलग सत्ता को मानते हैं इसी से उन को अन्तवाला (नाशवान्) फल ही मिलता है। अतः यह भक्त लोग  वासुदेव अर्थात उस एकत्व परमात्मा  को त्याग के सरस्वती, शिव, हनुमान, दुर्गा या तामस या वाममार्ग आदि की यंत्र, मंत्र एवम तंत्र द्वारा आराधना करने वाले अपनी विशिष्ट कामनाओं की पूर्ति के लिये इस की विशिष्ट पद्धिति से इन देवी देवताओं की आराधना करते है और अपनी कामनाओं की पूर्ति करते है। वो इसे ही ज्ञान योग, ध्यान योग एवम भक्ति योग समझते है और इन का विवेक कामनाओं द्वारा हर लिया जाता है। हर देवी देवता में, अपरा-परा प्रकृति का भाग होने से, वासुदेव ही है, किन्तु यह विशिष्ट देवी देवता वासुदेव  नही है, इसलिये भगवान कहते है मुझे जो जिस रूप में पूजता है मैं उसे उसी रूप में स्वीकार करता हूँ एवम उसी प्रकार से उसे फल देता हूँ। किन्तु यदि कामना एवम अहम न हो तो ज्ञान युक्त आराधना किसी भी रूप में वासुदेव ही है। भगवान कृष्ण भी मानव अवतार में सीमित देवी देवता ही है, क्योंकि सीमित देवी – देवता का कार्यकाल भी सीमित ही होता है। ब्रह्म से उत्पन्न सृष्टि का जब महाप्रलय होगा तो उस के बाद जो शेष रहेगा, वह परब्रह्म है, जो असीमित है। इसलिए जो स्वयं असीमित है, उस से जो भी कामना या आसक्ति रखते हुए, भक्ति की जाती है, उस के फल भी सीमित हो प्राप्त होते है।

भगवान को भजने वाले इन तीनो प्रकार के भक्त जब भगवान को न पूजते हुए अन्य देवताओं की पूजा विशिष्ट पद्धिति से अपनी कामनाओं की पूर्ति हेतु करने लग जाते है तो परमात्मा उन के साथ क्या करता है यह हम अगले श्लोक में पढ़ते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 7.20।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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