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% - Shrimad Bhagwat Geeta

।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach  ।।

।। श्रीमद्भगवत  गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।

।। Chapter  07. 19 I

।। अध्याय     07. 19 ।।

॥ श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ॥ 7.19

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

“bahūnāḿ janmanām ante,

jñānavān māḿ prapadyate..।

vāsudevaḥ sarvam iti,

sa mahātmā su-durlabhaḥ”..।।

भावार्थ: 

अनेकों जन्मों के बाद अपने अन्तिम जन्म में ज्ञानी मेरी शरण ग्रहण करता है उसके लिये सभी के हृदय में स्थित सब कुछ मैं ही होता हूँ, ऎसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है। (१९)

Meaning:

At the end of several births, the wise one seeks my refuge knowing that Vaasudev is everything. Such an individual is supreme and extremely rare.

Explanation:

Shri Krishna previously pointed out that the wise devotee is special because he does not use Ishvara to gain anything else but Ishvara. He treats Ishvara no different than his own self. Here, Shri Krishna emphasizes the fact that such people, who know that the ultimate cause of everything is Ishvara, are extremely rare and exalted. In fact, it has taken them several lives worth of effort to get to this stage.

Shree Krishna says that jñānīs spend several lifetimes seeking true knowledge, and when their knowledge matures into true wisdom, that the Supreme Lord is all that is; they surrender to Him. However, He does not say this for the jñānīs, karmīs, haṭha-yogis, ascetics, etc. He declares this for the devotees or such exalted souls who have realized “God is all that is” and surrendered to Him. Nevertheless, such noble souls are very rare.

Let us examine the nature of this effort that has led to this vision of the wise devotee. This effort is of two types – the dawning of knowledge that there is a single cause behind everything, and the surrender of one’s ego to that single cause or Ishvara. There is no specific order in which these can happen first, but both are necessary. The individual who has gone through so much effort to get to this stage is most certainly rare and privileged.

Now, we need to be careful in how we interpret the second half of this shloka.

 “Vaasudev” means one who resides in all, as well as one in whom everything and everyone resides. In other words, the phrase “Vaasudev is everything” denotes “Ishvara is everything”. If we get stuck with the image of “Vaasudev”, if we forget that Vaasudev is an indicator for the one Ishvara, we will begin to develop a fanatic attitude towards people who worship other deities.

The Ramayan states:

“Without knowledge, there cannot be faith; without faith, love cannot grow.”

Similarly, if someone has acquired true knowledge and claims to know the Brahman, then love for Him comes naturally. Else their knowledge is merely theoretical if they do not feel the love that fosters devotion.

The living entity, while executing devotional service or transcendental rituals after many, many births, may become situated in transcendental pure knowledge that the Supreme Personality of Godhead is the ultimate goal of spiritual realization. In the beginning of spiritual realization, while one is trying to give up one’s attachment to materialism, there is some leaning towards impersonalism, but when one is further advanced, he can understand that there are activities in the spiritual life and that these activities constitute devotional service. Realizing this, he becomes attached to the Supreme Personality of Godhead and surrenders to Him. At such a time one can understand that Lord Sri Krishna’s mercy is everything, that He is the cause of all causes, and that this material manifestation is not independent from Him. He realizes the material world to be a perverted reflection of spiritual variegatedness and realizes that in everything there is a relationship with the Supreme Lord Krishna. Thus, he thinks of everything in relation to Vasudeva, or Sri Krishna. Such a universal vision of Vasudeva precipitates one’s full surrender to the Supreme Lord Sri Krishna as the highest goal. Such surrendered great souls are very rare.

So, he knows Krishna parāmathma, the formless Krishna is in the form of the entire creation; sarvam iti jñānavān. Such a jñāni alone is mahātma; greatest seeker; noblest soul; and such a person is extremely rare. Krishna has said in the beginning of this chapter.

Next, Shri Krishna elaborates on the topic of worship for finite gain.

।। हिंदी समीक्षा ।।

पूर्व के श्लोक में चारो प्रकार के भक्तों में ज्ञानी को ही सर्वश्रेष्ठ बताया एवम उसे वासुदेव अर्थात स्वयं का ही रूप बताया। वासुदेव यानि इस तत्त्व को समझने के दो प्रकार हैं (1) संसार का अभाव कर के परमात्मा को रखना अर्थात् संसार नहीं है और परमात्मा है (2) सब कुछ भगवान् ही भगवान् हैं। इस में जो परिवर्तन दीखता है वह भी भगवान् का ही स्वरूप है क्योंकि भगवान् के सिवाय उस की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।उपर्युक्त दोनों ही प्रकार साधकों के लिये हैं। जिस साधक का पदार्थों को लेकर संसार में आकर्षण (राग) है उसको यह सब कुछ नहीं है केवल परमात्मा ही है।

संसार का अभाव कर के परमात्म तत्त्व को जानना भी तत्त्व से जानना है और संसार को भगवत्स्वरूप मानना भी तत्त्व से जानना है। कारण कि वास्तव में तत्त्व एक ही है। फरक इतना ही है कि ज्ञानमार्ग में जानने की प्रधानता रहती है और भक्तिमार्ग में मानने की प्रधानता रहती है। इसलिये भगवान् ने ज्ञानमार्ग में मानने को भी जानने के अर्थ में लिया है और भक्तिमार्ग में जानने को भी मानने के अर्थ में लिया है। इस में एक खास बात समझने की है कि परमात्मा को जानना और मानना दोनों ही ज्ञान हैं तथा संसार को सत्ता देकर संसार को जानना और मानना दोनों ही अज्ञान हैं। संसार को तत्त्व से जानने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव हो जाता है और परमात्मा को तत्त्व से जानने पर परमात्मा का अनुभव हो जाता है। ऐसे ही संसार भगवत्स्वरूप है ऐसा दृढ़ता से मानने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव हो जाता है और फिर संसार रूप से न दीख कर भगवत्स्वरूप दीखने लग जाता है। तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्व का अनुभव होने पर जानना और मानना दोनों एक हो जाते हैं।

क्षर-अक्षर समस्त सृष्टि को अपना स्वरूप बताने के बाद, जीव को इस स्वरूप का ज्ञान हो जाये, तो ही वह वासुदेव है। जड़ शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि सभी प्रकृति के  भाग है, इसलिये प्रकृति के संयोग  होने के बाद जीव कर्ता भाव और भोक्ता भाव मे ही सुख या आनंद खोजता है। सुख पाने की यह कामना, अज्ञान की धारा में बहती है और वह यह सुख पृथ्वी से ले कर ब्रह्मलोक तक खोजता ही रहता है। जितने भी कर्म करता है, उस के फल की कामना रखता है। यही कारण है कि ब्रह्म ज्ञान जिस में कामना, आसक्ति और अहम को छोड़ कर ही प्राप्त किया जा सकता है, उसे प्राप्त करते करते अनेक जन्म तक भी लग जाते है। किंतु योगभ्रष्ट योगी का प्रयास निरर्थक नही होता, यह भगवान श्री कृष्ण पहले ही स्पष्ट बता चुके है।

सृष्टि में समस्त चेतन जीवों की तुलना में मानव की संख्या अत्यन्त कम अनुपात में है। मनुष्य जाति में भी सभी परिपक्व बुद्धि एवं उच्च भावनाओं से सम्पन्न नहीं होते हैं। अन्तकरण के श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न होने पर भी बहुत कम लोग हैं जो गम्भीरतापूर्वक शास्त्राध्ययन करते हैं और शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान को अपने जीवन में जीने वालों की संख्या तो नगण्य ही होती है। अनेक लोगों को केवल बौद्धिक ज्ञान से ही सन्तोष हो जाता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विकास के चरम लक्ष्य आत्मानुभूति तक पहुँचने वाले ज्ञानी पुरुष विरले ही होंगे। 

सर्वोच्च ज्ञान को प्राप्त हुए श्रेष्ठ महात्मा पुरुष जगत् में विरले ही होते हैं यह भगवान् श्रीकृष्ण का भी कथन है। इस से हम कल्पना कर सकते हैं कि अहंकार को हटाकर अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा प्राप्त हो सकने वाले विकास के सर्वोच्च लक्ष्य सम्पूर्ण आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए कितने जन्मों की तपस्या होनी चाहिए। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम इसी वर्तमान जन्म में ही जीवन के इस सर्वोच्च लक्ष्य ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते। गीता का कथन निराशाजनक नहीं वरन् उत्साहवर्धक है। यहाँ बताये गये असंख्य जन्म ज्ञान प्राप्ति के पूर्व के हैं पश्चात् के नहीं। अतः आप ने 84 लाख योनियों के जन्मों को पार कर के इस जन्म को प्राप्त किया है। यदि मनुष्य अपने जीवन की अनेक उपलब्धियों से भी असन्तुष्ट होकर जीवन का वास्तविक लक्ष्य जानने का प्रयत्न करता है तो यह स्वयं ही विकास की एक अवस्था है। अतः और अधिक लगन से प्रयत्न करने पर इसी जन्म में वह मानव जन्म के परम पुरुषार्थ आत्म संस्थिति को प्राप्त हो सकता है। ज्ञान और भक्ति में जीव अर्थार्थी, आर्त या जिज्ञासु किसी भी भाव में परमात्मा का ध्यान या स्मरण करें, वह कालांतर में परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को समझने के तैयार होता ही है।

यहां महात्मा शब्द का प्रयोग उस विरले ज्ञानी के लिए  किया है जिस ने अथक परिश्रम से अनेक जन्मों के पश्चात परमात्मा के स्वरूप को न केवल जान लिया है, अपितु स्वयं भगवद स्वरूप हो गया है। हम लोग शब्दो से भी व्यभिचार या बलात्कार तब करते है, जब ये महान शब्द उन लोगो के प्रयोग में लाए जाते है, जो उस के अनुसार योग्यता नहीं रखते। प्रवचन में बैठे प्रवक्ता, जो बिना पैसे लिए प्रवचन या भागवत करने के आते नही, उन्हे महान संत और व्यास पीठ का अधिकारी बता देते है या अक्सर राजनीति से प्रेरित हो कर वोट की कामना और आसक्ति या प्रसिद्धि पाने के सभा का आयोजन कर के माला और प्रमाणपत्र का वितरण करने वाले, एक से एक बढ़कर उपाधियां भी रेवड़ी जैसे बांट देते है। किंतु महात्मा शब्द का प्रयोग भगवान भी लाखो में किसी एक भक्त के लिए कर रहे है, जो उन के सम रूप हो गया है।

यहाँ यह भी समझना जरूरी है कि अज्ञान की संस्कृति इतनी सशक्त है कि भगवान को भी हम जड़ प्रकृति में ही तलाश करते है। भजन कीर्तन, यज्ञ, दान -धर्म, कर्म आदि जितने भी मार्ग है, उस मे भूलोक से ब्रह्मलोक में सुख की कामना में जीव वासुदेव के स्वरूप को नही देख पाता। वासुदेव के स्वरूप को वही देख सकता है जिस ने अपने को प्रकृति स्वरूप से अलग कर लिया हो और कामना, आसक्ति, अहम से रिक्त हो कर क्षर-अक्षर सभी मे परमात्मा को देख रहा हो। ऐसा जीव स्वयं ब्रह्मस्वरूप ही है। पतंजलि योग शास्त्र में इस के तप अर्थात निष्काम कर्मयोग आदि, स्वाध्याय से वेद, उपनिषदों और शास्त्रों का अध्ययन और मनन करना और ईश्वर प्राणिधान अर्थात निदिध्यासन करना सम्मलित है। यह तीनो यम, नियम आदि योग के अंगो के अंतर्गत किए जाते है। इस प्रकार वह अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नाम के क्लेशों से मुक्त भी होता है।

ज्ञानी को वासुदेव रूपम कहना और अनेक जन्मों के पश्चात ही ब्रह्म ज्ञान होना और लाखों जीव में कुछ ही ज्ञानी होना, क्यों कहा है तो हम अपनी सांसारिक आवश्यकताओं को अधिक महत्व पूर्ण कहते है। भूखे के लिये परमात्मा के ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण रोटी होती है, संकट में फसे व्यक्ति को सहायता संकट से निवारण की चाहिये और काम धंधे वाले व्यक्ति को आमदनी भी परमात्मा से ज्यादा जरूरी लगती है। यह जीवन जब तक सुरक्षित और साधन सम्पन्न न हो, परमात्मा की बाते बेमानी लगती है। इसलिये सारी मानवता, दया, धर्म, यज्ञ, दान आदि सुख की खोज में निकल जाते है। किंतु अच्छे के लिये किया प्रयास ही हमे ज्ञानी बनाता है और ज्ञानी बनते बनते अनेक जन्म व्यतीत हो जाते है। थोपा हुआ ज्ञान किसी को गुरु तेगबहादुर या गुरु अंगददेव नही बना सकता, जिसे कोई शारीरिक कष्ट दे कर परमात्मा की भक्ति से डिगा दे।

स्वामी विवेकानंद जी जीवन के इस सत्य को उजागर करते हुए कहा है कि भूखे और गरीब व्यक्ति के समझ यदि ज्ञान और रोटी में किसी एक को चुनने का विकल्प हो तो, वह रोटी को चुनेगा। अतः भक्ति का प्रारंभ आर्त भक्त से ही होता है, जो अपने कष्ट के लिए भगवान को याद करता है, किंतु उस का अंतिम पड़ाव ज्ञानी भक्त ही होता है और उस के लिए अनेक जन्म लेने पड़ सकते है।

अन्नीदेवत और एकांतिक भक्त जिस प्रकार निराशी अर्थात फल आशा रहित कर्म करता है, उस प्रकार अन्य तीन भक्त नही करते। वे मन मे कुछ न कुछ रख कर भक्ति करते है। अगले श्लोक में उन लोगो के बारे में पढेंगे जो वासुदेव न हो है अपनी कामनाओं एवम अहम में उन की पूर्ति के अन्य देवताओं को भजते है। हमे यह भी समझना जरूरी है जब परब्रह्म एक ही है तो यह भिन्न भिन्न प्रकार के देवता कौन है और  इन की उपासना क्या होती है और यह कैसे फल देते है।

।। हरि ॐ तत सत।। 7.19।।

Complied by: CA R K Ganeriwala ( +91 9422310075)

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