।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 18 ।I
।। अध्याय 07. 18 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 7.18॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
“udārāḥ sarva evaite,
jñānī tv ātmaiva me matam..।
āsthitaḥ sa hi yuktātmā,
mām evānuttamāḿ gatim”..।।
भावार्थ:
यधपि ये चारों प्रकार के भक्त उदार हृदय वाले हैं, परन्तु मेरे मत के अनुसार ज्ञानी-भक्त तो साक्षात् मेरा ही स्वरूप होता है, क्योंकि वह स्थिर मन-बुद्धि वाला ज्ञानी-भक्त मुझे अपना सर्वोच्च लक्ष्य जानकर मुझ में ही स्थित रहता है। (१८)
Meaning:
All those are certainly sincere, but only the wise one is my own self, in my opinion. For, he engages to become established in me only as the ultimate goal.
Explanation:
So far, Shri Krishna enumerated four types of devotees and singled out one of them, the wise one, as the most special type of devotee. This is because the wise devotee does not approach Ishvara for something else. He approaches Ishvara to gain only Ishvara and nothing else. Here, Shri Krishna adds another reason for singling out the wise devotee as special. The wise devotee considers Ishvara as his own self and not as another object.
He clarifies in this verse that whatever may be the reason for their devotion, all His devotees are privileged; even the other three kinds are blessed souls. But the devotees seated in knowledge worship God selflessly, without expecting any material gains in return. Hence, the unconditional love of such selfless devotees even binds God.
Parā bhakti or divine love is totally different. It is filled with the desire for the happiness of the Divine Beloved and sacrifice in His service. Divine love fosters a giving attitude without expecting anything in return. There is no give and take attitude, and there is no expectation of receiving something in return from the beloved.
First, let us look at the sense of oneness aspect. What is different between a good friend and an acquaintance? There is always a sense of “otherness” between us and the acquaintance, but there is a sense of oneness with the good friend. We see this in a lot of proverbs: “a friend in need is a friend indeed”, “my house is your house” on so on. The ultimate closeness with a friend is when we do not see any difference between doing something for ourselves and doing something for our friend. In other words, we see our friend as our own self.
Similarly, whenever we expect something from God, we are by definition treating him as someone different from our own self. Shri Krishna says that he prefers if we treat him as our own self. Such kind of devotion, where the seeker plants himself in Ishvara day in and day out, and melts his existence into Ishvara’s cosmic existence, is the greatest kind of devotion. This is also known as ekabhakti or advaita, where there is no duality between devotee and Ishvara.
However, the reality is different. Most of us consider Ishvara as different than ourselves. One colourful illustration of this is found in the Hindi phrase “bhee aur hee siddhanta” which means “also philosophy” vs “only philosophy”. In other words, we love material objects and Ishvara “also”. Shri Krishna says that we should love Ishvara “only” and not “also”.
Now, this does not mean that Ishvara gives second class treatment to the other three types of devotees. Shri Krishna says that those other devotees are “udaaraha” or sincere. Ishvara is affectionate towards all of them.
Having pointed out the unique aspects of the wise devotee, Shri Krishna highlights the scarcity of wise devotees in the next shloka.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में चार प्रकार से उत्तम कर्म करने वाले 1) आर्त, 2) अर्थार्थी 3) जिज्ञासु, 4) ज्ञानी जीव का वर्णन किया गया है जो भगवान को समर्पित है। इस में ज्ञानी को भगवान ने सर्व श्रेष्ठ बताया है क्योंकि वो ही अहंता एवम कामना से रहित हो कर स्वयं की आत्मा को परमात्मा में एवम परमात्मा में स्वयं की आत्मा को देखता है।
यहां भगवान अन्य तीनो भक्तों के बारे में बताते है कि यद्यपि चारो ओर मैं ही एकता से भरा हूँ किन्तु प्रकृति एवम पुरुष इन दोनों में मेरे स्वरूप की आराधना करना इन तीनो उपासकों के लिये ज्यादा सरल है क्योंकि इस मे मेरी पहचान हो सकती है। उपासना सभी को करनी चाहिए चाहे वो व्यक्त स्वरूप में हो या अव्यक्त स्वरूप में। किन्तु जब उपासना किसी विशेष हेतु या किसी भी वस्तु या स्थिति विशेष की प्राप्ति के लिए हो तो वो निम्न बुद्धि की स्वार्थ हेतु की ही मानी जायेगी। इसी प्रकार परमात्मा का ज्ञान प्राप्ति के लिये जिज्ञासु बन कर भक्ति करना भी अधूरा है क्योंकि इस मे अहम अर्थात जिज्ञासु तत्व बना रहता है, इस लिये इसे भी कमजोर ही समझना चाहिए।
अतः मेरी आराधना करने वाले प्रथम तीन प्रकार के भक्त परिपूर्ण नही होते। उन्हें परिपूर्ण होने के लिए ज्ञान या वस्तु प्राप्ति के बाद जगत में कुछ भी शेष न रहने के बाद जब निष्काम बुद्धि से ज्ञान युक्त भक्ति करना आवश्यक है। यह तीनों की भक्ति के पीछे कामना रहती ही है। यहां भगवान यह भी स्पष्ट कर देते है कि जो उसे जिस भी रूप एवम हेतु के लिये पूजता है, उस वो उसी रूप एवम हेतु को प्रदान कर के स्वीकार करते है क्योंकि वो ही सभी मे है।
परमात्मा के दृष्टिकोण में जीव के प्रति विभेद है, यदि हम आर्त भक्त या आलोचक के दृष्टिकोण से देखे। किंतु यदि योग के दृष्टिकोण से इसे देखे तो हमे समझ में आयेगा कि मुक्ति के लिए सब से बड़ा बंधन कामना, आसक्ति और अहम का है। इसलिए आर्त भक्त भी करुणा से भर कर दुख में भगवान को पुकारता है तो उसे बचाने भगवान को दौड़ कर आना पड़ता है, जिस का उदाहरण द्रोपति चीर हरण एवम गजेंद्र मोक्ष है। ऐसे ही अर्थार्थी जिज्ञासु किसी कार्य को करते है तो उसे भी उसी की मनोकामना के अनुसार फल परमात्मा ही देता है जिस का उदाहरण ध्रुव का है। फिर ज्ञानी तो कामना, आसक्ति और अहम के मुक्त होता है तो वह जिस ने अपने स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो स्वयं ब्रह्मसंध हो, वह तो परमात्मा के अत्यंत समीप होता है। इसलिए विभेद परमात्मा द्वारा नही हो कर, भक्त की भक्ति का होता है। परमात्मा तो सभी के लिए समान है। जो जीव पूर्णतयः तम गुण में रहता है अर्थात अज्ञान में ही रहता है, उस के ज्ञान का भी हरण हो जाता है।
व्यवहारिक दृष्टिकोण में किसी संस्थान में विभिन्न कर्मचारियों में जो सैलरी की आशा में मेहनत करता है या जो यह सोच कर मेहनत करता की उस के संकट पर मालिक सहायता करेंगे या फिर जो सीखने के लिये जी तोड़ मेहनत करता है, संस्थान का मालिक इन तीनो से संतुष्ट रहता है और उन की कामनाओं के अनुसार उन को सहायता भी करता है, किन्तु उस के सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी वही है जो संस्थान को अपना समझ कर कार्य करे। संस्थान के विकास, लाभ-हानि एवम व्यवसायिक चुनोतियो को बिना कोई आशा के मेहनत से करे। इस प्रकार का कर्मचारी यथा शीघ्र संस्थान के मालिक जैसे अधिकारों से सम्पन्न हो जाता है।
ब्रह्ममैक्य या युक्तात्मा की स्थिति मोक्ष की बताई जाती है, अर्थात जब तक जीव में कामना, आसक्ति या अहम है, तब तक भक्ति करने वाला कितनी भी भक्ति करे, उस का द्वैतभाव बना ही रहेगा। इसलिये आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु यह तीनों भक्त उदार ह्रदय वाले सात्विक गुणों से युक्त परमात्मा के प्रिय भक्त होते है किन्तु जिस ने ज्ञान से अपने अहम, आसक्ति और कामना का त्याग कर के, अपने आप को ब्रह्म के साथ युक्तात्मा कर लिया है, वह तो परमात्मा में लीन ज्ञानी ही सर्वश्रेष्ठ भक्त माना जाता है।
विशाल हृदय के भक्तानुग्रहकारक भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो कोई भी भक्त मेरी भक्ति करता है वह अन्य जनों की अपेक्षा उत्कृष्ट ही है फिर चाहे वह अपने कष्ट निवारणार्थ मेरा भक्त हो अथवा वह अर्थार्थी हो। किसी न किसी प्रकार से वह मुझ अनन्तस्वरूप की ओर ही अग्रसर हो रहा होता है। अत वह उत्कृष्ट है। भक्तों का लौकिक पारलौकिक कामना पूर्ति के लिये अन्य की तरफ किञ्चिन्मात्र भी भाव नहीं जाता। वे केवल भगवान् से ही कामना पूर्ति चाहते हैं। भक्तों का यह अनन्य भाव ही उन की उदारता है। ज्ञानी यानि प्रेमी भक्त की विलक्षणता बतायी है कि दूसरे भक्त तो उदार हैं ही पर ज्ञानी को उदार क्या कहें वह तो मेरा स्वरूप ही है। स्वरूप में किसी निमित्त से किसी कारण विशेष से प्रियता नहीं होती प्रत्युत अपना स्वरूप होने से स्वतः स्वाभाविक प्रियता होती है। ज्ञान मार्ग का जो अद्वैत भाव है वह नित्य निरन्तर अखण्ड रूप से शान्त सम रहता है। परन्तु प्रेम का जो अद्वैत भाव है वह एक दूसरे की अभिन्नता का अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है। प्रेम का अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक है। इसलिये प्रेमतत्त्व अनिर्वचनीय है। शरीर के साथ सर्वथा अभिन्नता (एकता) मानते हुए भी निरन्तर भिन्नता बनी रहती है और भिन्नता का अनुभव होने पर भी भिन्नता बनी रहती है। इसी तरह प्रेमतत्त्व में भिन्नता रहते हुए भी अभिन्नता बनी रहती है और अभिन्नता का अनुभव होने पर भी अभिन्नता बनी रहती है।
अतः भगवान की आराधना किसी भी उद्देश्य से की जाए उसे भगवान न केवल स्वीकार करते है वरन योग्यता के अनुसार फल भी देते है, किन्तु ज्ञानी भक्त कामना रहित होने से प्रेम से भगवान को बांध देता है।
ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त की वास्तविकता और उस के भजन का प्रकार आगे के श्लोक में पढ़ते हैं।
।। हरि ॐ तत सत।। 7.18।।
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