।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 11 ।I
।। अध्याय 07. 11 ।।
॥ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ 7.11॥
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥
“balaḿ balavatāḿ cāhaḿ,
kāma- rāga- vivarjitam..।
dharmāviruddho bhūteṣu,
kāmo ‘smi bharatarṣabha”..।।
भावार्थ:
हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! मैं बलवानों का कामना-रहित और आसक्ति-रहित बल हूँ, और सब प्राणीयों में धर्मानुसार (शास्त्रानुसार) विषयी जीवन हूँ। (११)
Meaning:
I am strength in the strong that is free from desire and attachment, and I am desire in beings that is consistent with duty, O scion of the Bharataas.
Explanation:
Shri Krishna further adds to the list of Ishvara’s vibhootis in this shloka. He says that Ishvara is the strength that is free of selfishness and attachment and the desire that is selfless.
Krishna wants to divide the strength into two types: One is positive strength, which is responsible for positive effects; constructive things; that also requires strength and the second is negative strength, brutal strength, adhārmic strength, which is the cause of all destruction and having divided this strength into these two; constructive and destructive strengths, in the purāṇās we will find all the rākṣasās also had strength, but it is destructive; the strength of Hiraṇyakaśipu; Hiraṇyākṣa; Rāvaṇā, all of them and we also see strength in Anjaneya; in Rāma etc. What is the difference? One is constructive and the other destructive and therefore Krishna very intelligently says I am the constructive strength in the strong people.
what is the definition of constructive strength. Dhārmica balam; positive strength. Krishna beautifully defines; it is free from kāma rāgaḥ vivarjitam; strength which is not backed by selfish desires. Only when selfishness dominates, the strength will become destructive, because to become great, I have to suppress and destroy others.
Desire is an active craving for things not attained. Fuelled with passion, one achieves and experiences the desired objects. But this causes attachment, which is a passive mental emotion that provokes the thirst for more. Selfish actions generate attachment which binds us to the material world. The more selfishly we act, the further we move away from Ishvara acting through us. Only when we act selflessly does Ishvara act through us. Shri Krishna says that Ishvara is that desire which is not selfish, or which is consistent with one’s duty. Therefore, when Shree Krishna states kāma- rāga- vivarjitam; He means “devoid of passion and attachment.”
Explaining the nature of His strength, He says that He is the serene and sublime strength in people, which empowers them; to successfully fulfil their duties and responsibilities.
In the Mahabharata, the Pandavaas knew that they could not target Drona directly because he was too powerful. Instead, they targeted someone whom he was deeply attached to – his son Ashwaththaamaa. The more we turn towards Ishvara, the less we get attached to people and worldly objects.
Now in the second line, Krishna says, I am desire also; that means what I am impurity also; because in the previous line desire is an impurity; how to resolve this problem? just as we divided strength into two types, we have to know that desires are also of two types; desires are also of two types one is called dhārmica desire or kāmaḥ; and the other is adhārmica kāmaḥ; those desires which will help me grow spiritually, constructive desires and those desires which will pull me down spiritually, destructive desires; adhārmica kāmaḥ.
Shri Krishna concludes the topic of his vibhootis with this shloka. A much more in-depth discussion on this topic is found in chapter ten of the Gita.
।। हिंदी समीक्षा ।।
पूर्व श्लोक में बुद्धि, विवेक और तेज को अपना स्वरूप बताने के बाद, भगवान किसी कार्य को करने के लिए दो गुण सामर्थ्य और इच्छा के विषय में कहते है।
प्रकृति में तामसी गुणों में राग – द्वेष को प्रमुख मानते हुए काम – क्रोध से बचने को कहा गया है। जीव जब प्रकृति के नियम में आलस्य त्याग कर परिश्रम करता है तो वह जो भी क्षेत्र हो, जैसे अध्ययन, व्यापार, अध्यात्म, भक्ति, शक्ति या जनहित का नेतृत्व आदि सभी में कुशलता और सामर्थ्य प्राप्त करता है। यह सामर्थ्य उसे कीर्ति, ऐश्वर्य, बल और आत्मविश्वास देता है। समाज में 5% लोग ही कुशलता और सामर्थ्य को प्राप्त कर पाते है। इसलिए यह बल यदि निकृष्ट हो जाए तो तामसी गुणों में परिवर्तित हो जाता है और जीव कामना, आसक्ति में भोग विलास की जिंदगी और लोगो को कष्ट देने लगता है। संसार में रावण, हिरणकाश्यप, कंस, हिटलर, सद्दाम आदि अनेक उदाहरण है। किंतु यही सामर्थ्य यदि सत्व गुण का हो तो जनहित में कार्य करने का बल प्रदान करता है।
आसक्ति व कामना सयुक्त बल तामसिक तथा आसुरी बल है क्योंकि उस का संबंध देह अभिमान एवम इस संसार से जुड़ा है। अतः बलवानों का जो कामना और आसक्ति से रहित सात्विक एवम देवी बल ओज सामर्थ्य है वह मैं हूँ। अभिप्राय यह कि अप्राप्त विषयों की जो तृष्णा है उसका नाम काम है और प्राप्त विषयों में जो प्रीति तन्मयता है उसका नाम राग है उन दोनों से रहित केवल देह आदि को धारण करने के लिये जो बल है वह मैं हूँ। जो संसारी जीवों का बल कामना और आसक्ति का कारण है वह मैं नहीं हूँ। प्राणियों में जो धर्म से अविरुद्ध शास्त्रानुकूल कामना है जैसे देह धारण मात्र के लिये खाने पीने की इच्छा आदि वह ( इच्छारूप) काम भी मैं ही हूँ।
सामान्यत मनुष्य में जब कामना व आसक्ति होती है तब वह अथक परिश्रम करते हुये दिखाई देता है और अपनी इच्छित वस्तु को पाने के लिये सम्पूर्ण शक्ति लगा देता है। कामना और आसक्ति इन दो प्रेरक वृत्तियों के बिना किसी बल की हम कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। यद्यपि सतही दृष्टि से काम और राग में हमें भेद नहीं दिखाई देता है तथापि शंकराचार्य अपने भाष्य में उसे स्पष्ट करते हुये कहते हैं. अप्राप्त वस्तु की इच्छा काम है और प्राप्त वस्तु में आसक्ति राग कहलाती है। मन की इन्हीं दो वृत्तियों के कारण व्यक्ति या परिवार समाज या राष्ट्र अपनी सार्मथ्य को प्रकट करते हैं। हड़ताल और दंगे उपद्रव और युद्ध इन सबके पीछे प्रेरक वृत्तियां हैं काम और राग। श्रीकृष्ण कहते हैं मैं बलवानों का काम और राग से वर्जित बल हूँ। यहाँ हम जिस बल की बात कर रहे है वो निष्काम कर्मयोगी के लोकसंग्रह के लिए कार्य की कामना एवम बल है।
कठिन से कठिन काम करते हुए भी अपने भीतर एक कामना आसक्ति रहित शुद्ध निर्मल उत्साह रहता है। काम पूरा होने पर भी मेरा कार्य शास्त्र और धर्म के अनुकूल है तथा लोकमर्यादा के अनुसार सन्तजनानुमोदित है ऐसे विचार से मन में एक उत्साह रहता है। इसका नाम बल है। यह बल भगवान् का ही स्वरूप है। अतः यह बल ग्राह्य है।
स्पष्ट है कि यहाँ सामान्य बल की बात नहीं कही गयी है। इस कथन से मानों उन्हें सन्तोष नहीं होता है और इसलिये वे आगे और कहते हैं प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ। जिस के कारण वस्तु का अस्तित्व होता है वह उस का धर्म कहलाता है। मनुष्य का अस्तित्व चैतन्य आत्मा के बिना नहीं हो सकता अत वह उस का वास्तविक धर्म या स्वरूप है। व्यवहार में जो विचार भावना और कर्म उसके दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है वे धर्म के अन्तर्गत आते हैं। जिन विचारों एवं कर्मों से अपने आत्मस्वरूप को पहचानने में सहायता मिलती है उन्हें धर्म कहा जाता है और इसके विपरीत कर्म अधर्म कहलाते हैं क्योंकि वे उसकी आत्मविस्मृति को दृढ़ करते हैं। उनके वशीभूत होकर मनुष्य पतित होकर पशुवत् व्यवहार करने लगता है। धर्म की परिभाषा को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। धर्म के अविरुद्ध कामना से तात्पर्य साधक की उस इच्छा तथा क्षमता से है जिसके द्वारा वह अपनी दुर्बलताओं को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है और आत्मोन्नति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता जाता है। भगवान् के कथन को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मैं साधक नहीं वरन् उसमें स्थित आत्मज्ञान की प्रखर जिज्ञासा हूँ।
अतः है अर्जुन ! मेरी प्राप्ति के लिये इच्छा कर। सब कामनाये वर्जित है किंतु मुझे पाने की कामना आवश्यक है। इस के साधन कर, क्योंकि मेरे पाने की साधना का बल एवम कामना मेरी ही देन है, वो मैं ही हूँ।
भगवान का यह ज्ञान उस दिव्य चक्षु के समान है जो उस के विराट स्वरूप के दर्शन कराता है। अभी अपने हृदय भाव मे यह भाव को और अधिक सरल करे की ईश्वर किस तरह हमारे चारो ओर प्रकट स्वरूप में विद्यमान है।
किसी भी कार्य के बल, बुद्धि, और प्रेरणा की आवश्यकता होती है, जब तक लक्ष्य नही हम कुछ नही करते। इस लक्ष्य को करते करते जब जीव अंदर आसक्ति और कामना घेर लेते है तो वह कर्म लोकसंग्रह का न हो कर, स्वार्थ पूर्ण हो जाता है। भगवान कहते है निष्काम भाव का बल और धर्म के अनुसार जो भी सीमित कामनाएं है जिस से यह संसार चलता रहता है, वह मैं हूँ। क्योंकि वह सृष्टि यज्ञ चक्र का भाग है जिस से यह प्रकृति अपना कार्य करती है। लेकिन जो बल लोभ, मोह, कामना एवम अहंकार से ग्रसित है, वह आसुरी है, इस उदाहरण हमारे सामने दुर्योधन का है। वह परब्रह्म का स्वरूप नही हो सकता।
प्रश्न यही है जब सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा से है तो यह आसुरी वृति क्यों नही। जल का सामान्य अर्थ स्वच्छ जल से होता है जो सामान्य जन के लिये उपयोगी हो। किन्तु दूषित या गंदगी से सना जल, यद्यपि जल तो है किंतु वह उपयोगी नही। प्रकृति से विकृत कोई भी वस्तु परमात्मा का स्वरूप नही होती, जब तक वह विकृति से मुक्त नही होती।
व्यवहार में जिंदगी में बुद्धि, तेज और बल होने से हम जिस भी क्षेत्र में कार्य करेंगे, सफलता हमें प्राप्त होगी। इस सफलता में जो लोग समझते है कि यह उन्हे भगवान से आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त हुई है क्योंकि इस में जितने भी संयोग और प्रेरणा जुड़ी है, वह उसी परमात्मा की देन है तो उन्हे अपने उत्थान और श्रेष्ठ होने का अभिमान नहीं होता और वे कामना और आसक्ति रहित हो कर अपने सामर्थ्य का उपयोग जनहित में करते है, इसी के साथ भगवान ने यह भी कहा कि मैं इन सब में धर्मयुक्त काम अर्थात इच्छा भी हूं। जिस से भगवान किसी भी व्यक्ति को बल और सामर्थ्य से प्राप्त धन, ऐश्वर्य और कीर्ति का सीमित उपभोग भी करने की भी बात कर रहे है। जो धन, कीर्ति और ऐश्वर्य बुद्धि, तेज और बल से प्राप्त किया है, वह सर्वथा त्यागने योग्य नहीं है उस से जीव को नैतिकता और धर्म युक्त हो कर उपभोग करे और शेष जनहित में लगाए। उस की उस तेज, बुद्धि और सामर्थ्य द्वारा अर्जित धन, ऐश्वर्य या कीर्ति के प्रति कोई कामना या आसक्ति ऐसी नही होनी चाहिए जो उसे रज या तमो गुण की ओर ले जाए और वह लोभ, मोह, काम और राग – द्वेष में फस जाए। भगवान श्री कृष्ण ने भी राज्य का सुख भोगा और भगवान राम ने भी। किंतु आसक्ति रहित उन का यह सामर्थ्य जनहित के लिए था। यदि कोई उच्च शिक्षा द्वारा डॉक्टर, इंजियर, वैज्ञानिक, खिलाड़ी, CA , CS, वकील आदि या सफल उद्योगपति, या व्यापारी या राजनेता या सैनिक बनने की इच्छा रखता है और उस के आलस्य त्याग कर प्रयास करता है, जो उस स्थान पर पहुंच कर उस पद के अनुरूप जीवन जीना और लोकहित में कार्य करना और अन्य किसी कामना आसक्ति से मुक्त होना भी परमात्मा का ही स्वरूप है। इसलिए जितना तेज हम योगी के मुख पर देखते है, उतना ही तेज कलाम, होमी जहांगीर, बाल गंगाधर तिलक या dr राधाकृष्णन, जय दयाल जी गोएनका, हनुमान जी पोद्दार आदि कर्मयोगी के चेहरे में देखते है। सादगी हमे सुधा और नारायण मूर्ति, रतन टाटा और बिल गेट्स आदि उद्योगपतियों में भी देखने को मिलती है। यह सब कर्मयोगी की बुद्धि, तेज और बल परमात्मा का स्वरूप है।
यदि अभी तक भगवान के द्वारा अपने प्रकट रूप को हम देखे तो उन्होंने अपरा अर्थात स्थूल रूप के सात्विक मूल को अपना स्वरूप बताया है। किंतु यह स्थूल रूप जिस में ईश्वर का स्वरूप बसता है वो भी प्रकृति का ही रूप है और प्रकृति भी अपरा होने से भगवान का स्वरूप है। इस को समझने के लिए अभी तक हम ने प्रकट स्वरूपो में भगवान को पाया अब इस को अगले श्लोक में उपसंहार करते हुए अप्रकट स्वरूप में ईश्वर को पाएंगे।
।। हरि ॐ तत सत ।। 7.11।।
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