।। Shrimadbhagwad Geeta ।। A Practical Approach ।।
।। श्रीमद्भगवत गीता ।। एक व्यवहारिक सोच ।।
।। Chapter 07. 05 ।I Additional II
।। अध्याय 07. 05 ।। विशेष II
।। चेतना शक्ति ।। विशेष – 07.05 ।।
चेतना कुछ जीवधारियों में स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के तत्वों का बोध होने, उन्हें समझने तथा उनकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति का नाम है। विज्ञान के अनुसार चेतना वह अनुभूति है जो मस्तिष्क में पहुँचनेवाले अभिगामी आवेगों से उत्पन्न होती है। इन आवेगों का अर्थ तुरंत अथवा बाद में लगाया जाता है।
चेतना मन के भीतर आंतरिक, या भौतिक या संवेदी दुनिया के भीतर किसी बाहरी चीज के प्रति जागरूक होने की स्थिति है। इसे किसी व्यक्ति की अपने विचारों, भावनाओं, संवेदी अनुभवों और पर्यावरण के प्रति अद्वितीय जागरूकता (अक्सर एक साथ) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। यद्यपि इसे परिभाषित करना एक कठिन शब्द हो सकता है, दार्शनिक आमतौर पर इस बात से सहमत हैं कि अधिकांश लोगों को चेतना की स्थिति की सहज समझ होती है।
योग में, यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है क्योंकि प्राचीन योगियों का मानना था कि ब्रह्मांड एक सर्वोच्च चेतना से उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार चेतना को भी ईश्वर माना जाता है।
चेतना का विषय
मूलत: भारतीय वेदों, दर्शनों, शास्त्रों इत्यादि में बताई, समझाई गई आध्यात्मिकता से जुडा है, इसलिए चेतना को इसी वैदिक,धार्मिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है, ना कि पाश्चात्य विचारको के मन्तव्यों पर. संक्षेप में कहें तो चेतना सारे ब्रह्माण्ड में जो व्याप्त परम शक्ति है, कुदरत से बनी हर वस्तु में जो स्पंदित है – पंच महाभूत, छोटे से छोटे जीव से ले कर जानवर, पेड़, पौधे, नदी, समंदर, मनुष्य, हर कुदरती वस्तु, अंतरिक्ष में घूमते विशालकाय, बृहद ग्रहों नक्षत्रों इत्यादि सभी में जो स्पंदित हैं। इसी चेतना के कारण पृथ्वि के उपर समंदर के भीतर का जीवन और समस्त अंतरिक्ष भी जीवंत है। जैसे विद्युत् शक्ति (electricity) के बिना कोई उपकरण नहीं चल सकता, उसी तरह बिना चेतना के कुछ भी संभव ही नहीं – कोई अस्तित्व संभव ही नहीं।
चेतना न तो कोई जड़ पदार्थ है और न ही कोई ऊर्जा। जड़ पदार्थ या ऊर्जा में परिवर्तन होता ही रहता है किंतु जिसे चेतना कहा गया है, वह अपरा प्रकृति के संचालन का दृष्टा होता है, वह स्वयं में कुछ भी नही करता है। इसलिये यह जीव में किस भाग में स्थित है, कहा नही गया है। क्योंकि इस को शरीर रूपी रथ का स्वामित्व प्राप्त है इसलिये यह भ्रमित हो कर स्वयं को कर्ता एवम भोक्ता समझता है। सभी ग्रन्थ इसी चेतन को अपने यथा स्वरूप को पहचान करने एवम परब्रह्म से जुड़ने का ज्ञान देते है।
इसीलिए, चेतना को समझने के लिए भारतीय वेदों और दर्शन शास्त्रों को, इस भारत भूमी की हजारों सालों से जीवंत संस्कृति को भी समझना आवश्यक है, केवल पाश्चात्य विचार धारा से चेतना को समझना नामुमकिन सा होगा।
चेतना का स्थान
बहुत पुराने काल से प्रमस्तिष्क प्रांतस्था (cerebral cortex) चेतना की मुख्य इंद्रिय, अथवा प्रमुख स्थान, माना गया है। इसमें से भी पूर्वललाट के क्षेत्र को विशेष महत्व दिया गया है। परंतु पेनफील्ड और यास्पर्स चेतना को नए तरीके से ही समझाते हैं। उनके मतानुसार चेतना का स्थान चेतक (thalamus), अधश्चेतक (hypothalamus) और ऊपरी मस्तिष्क के ऊपरी भाग के आसपास है। वे लोग मस्तिष्क के इन भागों को और उनके संयोजनों को स्नायुओं के संगठन का सर्वोच्च स्तर मानते हैं। पूर्व ललाट क्षेत्र तथा अधश्चेतक के बीच बहिर्गामी नाड़ियों द्वारा संयोजन है। संयोजन प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष है। परोक्ष संयोजन पृष्ठ केंद्रक के द्वारा होता है। इन नाड़ियों का संबंध पौंस (Pons) से भी है।
चेतना मनुष्य की वह विशेषता है जो उसे जीवित रखती है और जो उसे व्यक्तिगत विषय में तथा अपने वातावरण के विषय में ज्ञान कराती है। इसी ज्ञान को विचारशक्ति (बुद्धि) कहा जाता है। यही विशेषता मनुष्य में ऐसे काम करती है जिसके कारण वह जीवित प्राणी समझा जाता है। मनुष्य अपनी कोई भी शारीरिक क्रिया तब तक नहीं कर सकता जब तक कि उसको यह ज्ञान पहले न हो कि वह उस क्रिया को कर सकेगा। कोई भी मनुष्य किसी विघातक पदार्थ अथवा घटना से बचने के लिए अपने किसी अंग को तब तक नहीं हिला सकता, जब तक कि उसको यह ज्ञान न हो कि कोई घातक पदार्थ उसके सामने है और उससे बचने के लिए वह अपने अंगों को काम में ला सकता है। उदाहरणार्थ, हम एक ऐसे मनुष्य के बारे में सोच सकते हैं जो नदी की ओर जा रहा है। यदि वह चलते-चलते नदी तक पहुँच जाता है और नदी में घुस जाता है तो वह डूबकर मर जाएगा। वह अपना चलना तब तक नहीं रोक सकता और नदी में घुसने से अपने को तब तक नहीं बचा सकता जब तक कि उसकी चेतना में यह ज्ञान उत्पन्न नहीं होता कि उसके समने नदी है और वह जमीन पर तो चल सकता है, परंतु पानी पर नहीं चल सकता। मनुष्य की सभी क्रियाओं पर उपर्युक्त नियम लागू होता है चाहे, ये क्रियाएँ पहले कभी हुई हों अथवा भविष्य में कभी हों। मनुष्य केवल चेतना से उत्पन्न प्रेरणा के कारण कोई काम कर सकता है।
आत्मा (आत्मा) और चेतना (चेतना) के बीच क्या अंतर है? यदि आत्मा और चेतना अलग-अलग इकाई हैं तो इसकी अंतिम अवस्था क्या है?
आत्मा और चेतना में कोई अंतर नहीं है। आत्मा ईश्वर की चेतना का एक सूक्ष्म कण है।
चेतना के छह चरण हैं – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, ज्ञानमय, विज्ञानमय और आनंदमय।
अन्नमय तब होता है जब चेतना पूरी तरह से पोषण पर केंद्रित होती है, खाने पर केंद्रित होती है। यह शिशु अवस्था में एक इंसान की तरह है। ध्यान दें कि बच्चे हर चीज़ को चखकर कैसे पहचानते हैं। वे हमेशा चीजें अपने मुंह में रखते हैं।
प्राणमय वह है जब चेतना किसी के शरीर के प्रति जागरूक हो जाती है। वह शिशु-अवस्था की तरह है। इसके अलावा, जानवर चेतना के उस चरण से आगे नहीं बढ़ते हैं।
मनोमय तब होता है जब चेतना मन के प्रति जागरूक हो जाती है। यह किशोरावस्था की अवस्था की तरह है।
ज्ञानमय वह चरण है जहां व्यक्ति मन की सोच, भावना और इच्छुक प्रक्रियाओं के प्रति सचेत हो जाता है।
विज्ञानमय तब होता है जब चेतना आत्मा के प्रति जागरूक हो जाती है, अपने वास्तविक स्वरूप के प्रति जागरूक हो जाती है। यह जागरूकता की वयस्क अवस्था की तरह है। यहीं पर चेतना शरीर और अपनी संस्कृति से परे अपने वास्तविक, आध्यात्मिक स्व के प्रति जागरूक हो जाती है।
आनंदमय तब होता है जब चेतना ईश्वर और उसके बाद आने वाले आनंद के प्रति जागरूक हो जाती है। यह चेतना की उच्चतम अवस्था है, और मानव चेतना का लक्ष्य है।
यह आत्मा के लिए ईश्वर के प्रति जागरूक होने का एक अत्यंत दुर्लभ अवसर है, ईश्वर को इतनी अच्छी तरह से जानने की तो बात ही क्या करें कि वह उससे प्रेम कर सके।
चेतना और चरित्र
चेतना और मनुष्य के चरित्र में मौलिक संबंध है। चेतना वह विशेष गुण है जो मनुष्य को जीवित बनाती है और चरित्र उसका वह संपूर्ण संगठन है जिसके द्वारा उसके जीवित रहने की वास्तविकता व्यक्त होती है तथा जिसके द्वारा जीवन के विभिन्न कार्य चलाए जाते हैं।
किसी मनुष्य की चेतना और चरित्र केवल उसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होते। ये बहुत दिनों के सामाजिक प्रक्रम के परिणाम होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने वंशानुक्रम को स्वयं में प्रस्तुत करता है। वह विशेष प्रकार के संस्कार पैत्रिक संपत्ति के रूप में पाता है। वह इतिहास को भी स्वयं में निरूपित करता है, क्योंकि उसने विभिन्न प्रकार की शिक्षा तथा प्रशिक्षण को जीवन में पाया है। इसके अतिरिक्त वह दूसरे लोगों को भी अपने द्वारा निरूपित करता है, क्योंकि उनका प्रभाव उसके जीवन पर उनके उदाहरण, उपदेश तथा अवपीड़न के द्वारा पड़ा है।
जब एक बार मनुष्य की चेतना विकसित हो जाती है, तब उसकी प्राकृतिक स्वतंत्रता चली जाती है। वह ऐसी अवस्था में भी विभिन्न प्रेरणाओं (आवेगों) और भीतरी प्रवृत्तियों से प्रेरित होता है, परंतु वह उन्हें स्वतंत्रता से प्रकाशित नहीं कर सकता। वह या तो उन्हें इसलिए सर्वथा दबा देता है जिस से कि समाज के दूसरे लोगों की आवश्यकताओं और इच्छाओं में वे बाधक न बनें, अथवा उन्हें इस प्रकार चपेट दिया जाता है, या कृत्रिम बनाया जाता है, जिसमें उनका प्रकाशन समाजविरोधी न हो।
इस प्रकार मनुष्य की चेतना अथवा विवेकी मन उसके अवचेतन, अथवा प्राकृतिक, मन पर अपना नियंत्रण रखता है। मनुष्य और पशु में यही विशेष भेद है। पशुओं के जीवन में इस प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता, अतएव जैसा वे चाहते हैं वैसा करते हैं। मनुष्य चेतनायुक्त प्राणी है, अतएव कोई भी क्रिया करने के पहले वह उसके परिणाम के बारे में भली प्रकार सोच लेता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चेतना
मनोविज्ञान की दृष्टि से चेतना मानव में उपस्थित वह तत्व है जिसके कारण उसे सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। चेतना के कारण ही हम देखते, सुनते, समझते और अनेक विषय पर चिंतन करते हैं। इसी के कारण हमें सुख-दु:ख की अनुभूति भी होती है और हम इसी के कारण अनेक प्रकार के निश्चय करते तथा अनेक पदार्थों की प्राप्ति के लिए चेष्टा करते हैं।
मानव चेतना की तीन विशेषताएँ हैं।
वह ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक होती है। भारतीय दार्शनिकों ने इसे सच्चिदानंद रूप कहा है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के विचारों से उक्त निरोपज्ञा की पुष्टि होती है। चेतना वह तत्व है जिसमें ज्ञान की, भाव की और व्यक्ति, अर्थात् क्रियाशीलता की अनुभूति है। जब हम किसी पदार्थ को जानते हैं, तो उसके स्वरूप का ज्ञान हमें होता है, उसके प्रति प्रिय अथवा अप्रिय भाव पैदा होता है और उसके प्रति इच्छा पैदा होती है, जिसके कारण या तो हम उसे अपने समीप लाते अथवा उसे अपने से दूर हटाते हैं।
चेतना को दर्शन में स्वयंप्रकाश तत्व माना गया है। मनोविज्ञान अभी तक चेतना के स्वरूप में आगे नहीं बढ़ सका है। चेतना ही सभी पदार्थो को, जड़ चेतन, शरीर मन, निर्जीव जीवित, मस्तिष्क स्नायु आदि को बनाती है, उनका स्वरूप निरूपित करती है। फिर चेतना को इनके द्वारा समझाने की चेष्टा करना अविचार है। मेगडूगल महाशय के कथनानुसार जिस प्रकार भौतिक विज्ञान की अपनी ही सोचने की विधियाँ और विशेष प्रकार के प्रदत्त हैं उसी प्रकार चेतना के विषय में चिंतन करने की अपनी ही विधियाँ और प्रदत्त हैं। अतएव चेतना के विषय में भौतिक विज्ञान की विधियों से न तो सोचा जा सकता है और न उसके प्रदत्त इसके काम में आ सकते हैं। फिर भौतिक विज्ञान स्वयं अपनी उन अंतिम इकाइयों के स्वरूप के विषय में निश्चित मत प्रकाशित नहीं कर पाया है जो उस विज्ञान के आधार हैं। पदार्थ, शक्ति, गति आदि के विषय में अभी तक कामचलाऊ जानकारी हो सकी है। अभी तक उनके स्वरूप के विषय में अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। अतएव चेतना के विषय में अंतिम निर्णय की आशा कर लेना युक्तिसंगत नहीं है। चेतना को अचेतन तत्व के द्वारा समझाना, अर्थात् उसमें कार्य-कारण संबंध जोड़ना सर्वथा अविवेकपूर्ण है।
चेतना को जिन मनोवैज्ञानिकों ने जड़ पदार्थ की क्रियाओं के परिणाम के रूप में समझाने की चेष्टा की है अर्थात् जिन्होंने इसे शारीरिक क्रियाओं, स्नायुओं के स्पंदन आदि का परिणाम माना है, उन्होंने चेतना की उपस्थिति को ही समाप्त कर दिया है। उन्होंने चेतना की उपस्थिति को ही समाप्त कर दिया है। पैवलाफ और वाटसन महोदय के चिंतन का यही परिणाम हुआ है। उनके कथनानुसार मन अथवा चेतना के विषय में मनोविज्ञान में सोचना ही व्यर्थ है। मनोविज्ञान का विषय मनुष्य का दृश्यमान व्यवहार ही होना चाहिए।
चेतना के शरीर में संबंध के विषय में मनोवैज्ञानिकों के विभिन्न मत हैं। कुछ के अनुसार मनुष्य के बृहत् मस्तिष्क में होनेवाली क्रियाओं, अर्थात् कुछ नाड़ियों के स्पंदन का परिणाम ही चेतना है। यह अपने में स्वतंत्र कोई तत्व नहीं है। दूसरों के अनुसार चेतना स्वयं तत्व है और उसका शरीर से आपसी संबंध है, अर्थात् चेतना में होनेवाली क्रियाएँ शरीर को प्रभावित करती हैं। कभी-कभी चेतना की क्रियाओं से शरीर प्रभावित नहीं होता और कभी शरीर की क्रियाओं से चेतना प्रभावित नहीं होती। एक मत के अनुसार शरीर चेतना के कार्य करने का यंत्र मात्र हैं, जिसे वह कभी उपयोग में लाती है और कभी नहीं लाती। परंतु यदि यंत्र बिगड़ जाए, अथवा टूट जाए, तो चेतना अपने कामों के लिए अपंग हो जाती है। कुछ गंभीर मनोवैज्ञानिक विचारकों द्वारा विज्ञान की वर्तमान प्रगति की अवस्था में उपर्युक्त मत ही सर्वोत्तम माना गया है।
चेतना के स्तर
चेतना के तीन स्तर माने गए हैं : चेतन, अवचेतन और अचेतन। चेतन स्तर पर वे सभी बातें रहती हैं जिनके द्वारा हम सोचते समझते और कार्य करते हैं। चेतना में ही मनुष्य का अहंभाव रहता है और यहीं विचारों का संगठन होता है। अवचेतन स्तर में वे बातें रहती हैं जिनका ज्ञान हमें तत्क्षण नहीं रहता, परंतु समय पर याद की जा सकती हैं। अचेतन स्तर में वे बातें रहती हैं जो हम भूल चुके हैं और जो हमारे यत्न करने पर भी हमें याद नहीं आतीं और विशेष प्रक्रिया से जिन्हें याद कराया जाता है। जो अनुभूतियाँ एक बार चेतना में रहती हैं, वे ही कभी अवचेतन और अचेतन मन में चली जाती हैं। ये अनुभूतियाँ सर्वथा निष्क्रिय नहीं होतीं, वरन् मानव को अनजाने ही प्रभावित करती रहती हैं।
चेतना का विकास
चेतना सामाजिक वातावरण के संपर्क से विकसित होती है। वातावरण के प्रभाव से मनुष्य नैतिकता, औचित्य और व्यवहारकुशलता प्राप्त करता है। इसे चेतना का विकास कहा जाता है। विकास की चरम सीमा में चेतना निज स्वतंत्रता की अनुभूति करती है। वह सामाजिक बातों को प्रभावित कर सकती है और उनसे प्रभावित होती है, परंतु इस प्रभाव से अपने आपको अलग भी कर सकती है। चेतना को इस प्रकार की अनुभूति को शुद्ध चैतन्य अथवा प्रमाता, आत्मा आदि शब्दों से संबोधित किया जाता है। इसकी चर्चा चाल्र्स युंग, स्पेंग्ल, विलियम ब्राउन आदि विद्वानों ने की है। इसे देशकाल की सीमा के बाहर माना गया है।
स्वामी क्रियानंद जैसे कुछ योग दार्शनिकों का मानना है कि चेतना पूर्ण या शुद्धतम अवस्था है। पदार्थ को स्पंदनशील ऊर्जा की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है; और वह ऊर्जा ही चेतना की अभिव्यक्ति के रूप में देखी जाती है। इस अर्थ में, यह कहा जाता है कि चेतना को परिभाषित नहीं किया जा सकता क्योंकि एक बार जब वह हो जाती है, तो वह शुद्ध नहीं रहती।
योगाभ्यास, जैसे कि माइंडफुलनेस और ध्यान, अभ्यासकर्ताओं को आत्मनिरीक्षण, या मन की परीक्षा के माध्यम से चेतना की प्रकृति का पता लगाने और समझने की अनुमति देते हैं। चेतना को बेहतर ढंग से समझने के लिए, अभ्यासकर्ता अपना ध्यान उन चीज़ों से हटाकर अपनी जागरूकता के साधन पर केंद्रित करता है, जो स्वयं चेतना है।
कई योगियों का मानना है कि व्यक्तिगत चेतना की स्थिति सामूहिक सार्वभौमिक चेतना का एक हिस्सा है, जैसे लहर एक महासागर का हिस्सा है। इस अर्थ में, चेतना वह है जो सभी प्राणियों और चीजों को जोड़ती है।
।। हरि ॐ तत सत ।। 07.05 विशेष ।।
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